बार-बार करने जाते हैं केजरीवाल वो 'विपश्यना' है क्या?
अभी 'विपश्यना' खूब सुनाई पड़ रहा है, जिसे गौतम बुद्ध ने रीडिस्कवर किया और एस एन गोयनका इंडिया ले आए.
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फोटो - thelallantop
दरअसल विपश्यना करने के लिए आचार्य के पास जाना पड़ता है. दस दिन का शिविर होता है. इस दौरान विपश्यना करने वालों को शिविर वाली जगह पर रहना पड़ता है. बाहर की दुनिया से कॉन्टेक्ट्स काटने पड़ते हैं. किसी भी तरह की पढ़ाई-लिखाई नहीं कर सकते. पूजा-पाठ नहीं कर सकते. ट्वीट-वीट नहीं कर सकते हैं.इसमें तो दिन में कई-कई बार बैठे-बैठे ध्यान करना होता है. 10 घंटे बैठे रहो, और ध्यान करो. दस दिन तक मौन रखना होता है. इशारों में भी बात नहीं कर सकते. विपश्यना में कोई दिक्कत हो तो जो आचार्य हों वहां पे, उनसे थोड़ा-बहुत पूछ सकते हैं.
इसका मोटिव होता है, दिमाग में जो कुछ चल रहा है. और उससे जो दिक्कत हो रही है. उससे पिंड छुड़ाना. केवल बॉडी ही नहीं, सारे दुखों को दूर करना. इसमें आदमी खुद को चेक करता है, और खुद को शुद्ध करने की कोशिश करता है. जो कुछ भी घट रहा हो, उसको आदमी तटस्थ होकर देखता है और अपने चित्त को साफ़ करने की कोशिश करता है.
दरअसल विपश्यना है ध्यान विधि. भारत में प्राचीन टाइम से चल रही है. इतनी पुरानी है कि ढाई हजार साल पहले भगवान गौतम बुद्ध ने इसको री-डिस्कवर किया था. उनने खुद इसकी प्रैक्टिस की और दूसरों को कराई. उनके टाइम पर उत्तर भारत में ये खूब फेमस हुई फिर इधर से बर्मा, थाइलैंड जैसे देशों में पहुंच गई. बुद्ध गए तो 500 साल बाद विपश्यना वैसी नहीं रह गई जैसी ये थी, धीरे-धीरे इंडिया से गायब ही हो गई. लेकिन बर्मा जैसी जगहों के लोग चग्घड़ थे, बचाए रहे इसको.

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फिर हुए सयाजी ऊ बा खिन. ये नाम है. बर्मा के थे. 6 मार्च, 1899 को बर्मा की राजधानी रंगून में पैदा हुए. पहले पहल क्लर्क हुआ करते थे. एकाउंटेंट जनरल के ऑफिस में. जब बर्मा इंडिया से अलग हुआ, उस टाइम रंगून नदी के किनारे एक गांव के किसान से उनने 'आनापान' का कोर्स किया. इसमें दिमाग और चित्त को एकाग्र करना सिखाया जाता है. सीख-सिखाकर1950 में इनने अपने ऑफिस में विपश्यना ऑफिस बनाया, तब तक ये स्पेशल ऑफिस सुपरिन्टेंडेंट बन गए थे. 1952 में उनने रंगून में अंतरराष्ट्रीय विपश्यना ध्यान केंद्र की स्थापना की.

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31 साल का एक आदमी एक बार उनके पास आया. उसे अर्धकपारी हो रखा था, वो पहले तो उसे कुछ नहीं सिखाना चाहते थे, फिर विपश्यना सिखाया. उस आदमी का नाम सत्यनारायण गोयनका था. वो मारवाड़ी समूह के व्यापारी थे. मांडले में पैदा हुए थे. 14 साल तक उनने बा खिन से ट्रेनिंग ली. 1969 में सत्यनारायण गोयनका विपश्यना को भारत ले आए. उनने 1969 शिविर लगाने शुरू किए. 120 असिस्टेंट्स को इस काम के लिए ट्रेंड किया. बाद में 2012 में उनको पद्मभूषण भी मिला था.
विपश्यना वाले शिविर में प्रशिक्षण के 3 स्टेज होते हैं. पहले में जो साधना करने वाला साधक होता है वो उन सब चीजों से दूर रहता है, जिससे उसको नुकसान हो. इसके लिए त्रिशरण और पंचशील का पालन करना पड़ता है. इसमें जीव-हिंसा से दूर रहना, चोरी से बचना, झूठ न बोलना, ब्रह्मचर्य और नशे से दूर रहना होता है.
दूसरी स्टेज में सा़ढ़े 3 दिन लगते हैं. अपनी सांस पर ध्यान केंद्रित करना और मन एकाग्र करना होता है. इसको 'आनापान' कहते हैं. 'आनापान' आन और अपान से बना है. आन माने आने वाली सांस, अपान माने जाने वाली सांस. इससे मेमोरी बढ़ती है.
तीसरी स्टेज में बॉडी के अंदर हर पल घट रही संवेदनाओं को एक दर्शक जैसे देखना सिखाया जाता है. ऐसे में अपने अंदर जो कुछ भी वेदना-संवेदना चल रही हो उसका पैटर्न समझ आने लगता है. ऐसे में ये समझ आता है कि अच्छा हो या बुरा. सब बदलता ही रहता है. हम चाहें तब भी उसका बदलना रोक नहीं सकते.