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ऐश्वर्या से प्यार के वो किस्से, जो आपको कहीं और नहीं मिलेंगे

गॉसिप भरी दुनिया में ये सच्चा है, अच्छा है.

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ऐश्वर्या राय, जिनका जन्मदिन मनता है 1 नवंबर को.
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सौरभ द्विवेदी
1 नवंबर 2020 (Updated: 31 अक्तूबर 2020, 04:42 AM IST) कॉमेंट्स
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भाई दो साल बड़ा है. जवान होने को था. हाई स्कूल वाले दिन. कमरे में ब्रूस ली का पोस्टर लगाता था. नॉनचाक की बातें करता था. रात में तखत के नीचे टॉर्च लगाकर कॉलगर्ल नाम का नॉवेल पढ़ता था. एक दिन मेरी गेंद खो गई. तखत के नीचे झांका तो मिली. गेंद नहीं. नॉवेल. फिर भाई का अफेयर शुरू हो गया. पहला. उसकी गर्लफ्रेंड गाना गाती. परदेसी जाना नहीं. वो गाता बांहों में चले आओ. हमसे सनम क्या पर्दा. मैं दोनों के गाने सुनता. और गर्लफ्रेंड से किटकैट पाता. फिर ब्रेकअप हो गया.

और फिर भाई का असली वाला अफेयर शुरू हुआ. नई लड़की थी. बहुतई जियादा सुंदर. आंखें नीली थीं. नाचती तो लगता की कनेर की डाल लचक लहरा रही है. आशी नाम था उसका. पर एक दिक्कत थी. उसका पहले से बॉयफ्रेंड था. झबरैले कुत्ते से बाल दिखते थे उसके. हमको भरोसा था. मेरा सुंदर भाई विजेता बन उभरेगा.

मगर सब सुतली बम गीले निकले. भाई ने हमें लोल बनाया था. ये लड़की आशी नहीं थी. हीरोइन थी. ऐश्वर्या नाम की. भाई ने उसका गाना आहूजा मेडिकल स्टोर के बगल की दुकान पर डेक पर सुन लिया था. और वहीं से कहानी उड़ा लाया था. दुष्ट कहीं का.

मगर ये कहानी तो अनैतिक होनी थी. इसलिए भाई की आशी से हमें भी प्यार हो गया. बॉयज स्कूल वालों को वैसे भी जल्दी होता है. हर वक्त हुवआने को उद्दत रहते हैं. गाना रिपीट में सुना. और बाबुषा की जबान में कहूं तो प्रेम गिलहरी दिल अखरोट हो गया.

वो ठीक मेरे सामने खड़ी थी. सिल्वर कलर के लहंगे में. सामने देख रही थी. बोल रही थी.

ढूंढ़ रही हूं मैं ऐसा दीवाना थोड़ा सा पगला थोड़ा सयाना

ये तो हूबहू मेरा डिस्क्रिप्शन है. मूरख मन ने माना. और प्यार शुरू हो गया. इकतरफा. जिसके बारे में ब्रो रणबीर ने बोला है. कम होने का खतरा नहीं. तो ये ऐश्वर्या से इश्क की कहानी है. कहते हैं कि ऊपर जो जन्नत है वो सात परतों में बंटी है. शेर भी है.

रात दिन गर्दिश में हैं सात आसमां हो रहेगा कुछ न कुछ घबराएं क्या

तो ऐश्वर्या जो है, वो भी सात सतरों में नुमाया होती है. पेश हैं सारी की सारी.

1

साल 1997, शरीर सोने का

ये आशी के आने का साल था. उसने सोने के रंग का सूट पहन रखा था. वो खुश थी. मैं खुश था. कि उसकी खुशी के लिए मरहूम नुसरत फतेह अली खान गा रहे थे.

कोई जाने कोई न जाने ये परवाने होते हैं दीवाने देखो ये दो परवाने हैं दोनों ही दीवाने जब से मिली हैं आंखें होश हैं दोनों के ही गुम कैसा खुमार है अल्लाह अल्लाह कैसा ये प्यार है अल्लाह अल्लाह

फिर नुसरत की आवाज कम हो जाती. मेरी तेज हो जाती. स्वर वही रहते.

Aish koi jaane

प्यार का नाजुक धागा हमें कहां ले आया

मगर ये पहली नजर का इश्क था. इसकी उम्र कितनी होनी थी. मौसम बदल गया. बंबा रोड पर सब्जी लेने गए तो लॉन्ग बूट में फौजी जिप्सी से उतरी कन्या दिखी. आशी गुमी.

2

साल 1999, नींबू उत्तेजना बढ़ाता है

सूरज है. सामने है. बड़ा सा है. लाल है. सुर्ख लाल. खून सा. मगर उससे जो रौशनी निकल रही है. वो बहुत गाढ़ी है. सुनहरी भी. और जहां उनका गाढ़ापन खत्म होता है, वहां सीढ़ियां शुरू होती हैं. मगर ये सब ध्यान से उतर सकता है. क्योंकि भटकाने के लिए एक नीला रंग है. जो फैल रहा है. अपने आप. ये एक लड़की है. उसने आसमानी बल्कि फिरोजी लहंगा पहन रखा है. वो सीढ़ियों से उतर रही है. मगर सामने नहीं देख रही. ये सावधानी तुच्छ इंसानों के लिए है. वो राजकन्या है. नीलम देश की. स्वर्ग से उतरती. इतराती. हवा में खुशबुएं घोलती. ताकि हर कोई गंधमादन पर्वत पर कुछ वक्त बिता सके.

अब वो नीचे है. नीले के दो शेड है. एक आंख में. एक बदन पर. चमकीला सा. अर्धचंद्राकार मुड़ा.

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और भाई साहब उसी वक्त तय हो गईं. दो बातें. पहली, लेडीज संगीत पर लड़कियां इसी पर डांस करेंगी. और जो सबसे अच्छा करेगी. हम उसे ही प्यार करेंगे. दूर की रिश्तेदार हुई तो उसके पापा के व्यवहार लिखवाकर जाने तक. करीब की हुई तो कुछ घंटे और सही.

दो लड़कियों ने डांस किया. पहली ने कुछ महीने बाद इस्कूल में. दिवी नाम था. कंपटीशन में जा रही थी. तो अर्चना मैडम बोलीं कि एक बार यहीं ड्रेस रिहर्सल कर लो. उसने कर दिया. हमने भी ताली पीट दी. मगर प्यार नहीं कर पाए. दिवी छोटी थी. आठवीं में. हम 11वीं में थे. हालांकि एक बात थी गुरु. बीच की क्लास में लड़कियां नहीं थीं. मगर हमको दिवी की क्लासमेट पसंद थी. तो हम सिर्फ नींबू के लिए बेवफाई नहीं कर सकते थे. और वैसे भी एक दूसरी, दूसरी लड़की हमारे लिए इंतजार कर रही थी. कई बरस बाद के फासले पर.

यहां भी एजुकेशन का मंदिर ही रास का प्रांगण बनना था. केमिस्ट्री को कोचिंग थी. निगम सर मस्त थे. एक दिन सांस्कृतिक सुबह का आयोजन हुआ. संध्या वहां होती है, जहां लड़कियों को जाने की इजाजत हो. और यहां उसने डांस किया.

एक बार फिर बात नींबू की थी. हमको उस दिन केमिस्ट्री के कुछ नए कंपाउंड याद आ गए. कुछ पुराने भूल गए. वो लगातार नाच रही थी. उसकी बड़ी बड़ी आंखें नीली नहीं थीं. पर सुंदर थीं. सागर सी. जो कि नीला ही होता है. बशर्ते हिंदुस्तान के किसी बड़े शहर के बिलकुल किनारे न हो.

और फिर वो रुक गई. रुकी तो समझ आया गाना खतम हो गया था. अब वो बालकनी में खड़ी थी. सांस ले रही थी. मगर स्त्री शरीर और पुरुष नजर. सांस लेना नहीं, छोड़ना नजर आता है. ऊपर नीचे. नीचे ऊपर. उसके गाल खट्टे लग रहे होंगे. ऐसा मैंने सोचा. वो अभी अभी नींबू नाच कर आई थी. पर हम बहुत ही बिसेसरी लाल थे. खूब सारी बातें कर लीं. तारीफ कर दी. पुलाव में छोले उलटे. सलटे. और रवाना हो गए. इस बार फिर गोच्ची दूसरी लड़की ने कर दी. जब ये वाली आशी गा रही थी

लेकिन चाहत में सजना सजनी को लगती है एक दूजे की नजर तब उनमें अकसर होती है मीठी तकरार निंबूड़ा बोले है यही प्यार

तब हम एक दूसरे मामले में मुब्तिला थे. इस बार भी बात रणबीर मार्का थी. हम एक तीसरी कन्या को करीना ठहराए जा रहे थे. कन्या थी कि भाव ही नहीं दे रही थी.

इन दोनों प्रकरणों को भी दसियों बरस बीत गए. पहली वाली मिली नहीं. दूसरी वाली मिली. फेसबुक पर. परदेस में थी. वहीं से बोली. हम तुम्हें बहुत पसंद करते थे. लगा कि किसी ने नींबू निचोड़ दिया. आंख में. छरछराहट. मजा भी. करीना की खोज अब भी जारी है. दिक्कत एक है. करीना तो खान होकर भी कपूर बनी रहीं. तो फेसबुक पर सर्च कर सकते हैं. हमारी वाली ने रामजाने किस बिरादरी में जीजा खोजा.

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साल 1999, मुझे दूब के लिए सेलेक्ट होना है

पांडे मास्साब कहते थे. जिसे मैथ्स नहीं आती वो क्या है. बकरी का बच्चा है. हमें नहीं आती थी. हम दूब खाना चाहते थे. कोई भी नहीं. वो भी नहीं जो इब्राहिम प्रसंग में आदम हव्वा के लिए ईश्वर ने बनाई थी. हमारी दूब को उगने के लिए इंतजार करना पड़ा. हजारों साल का. फिर वो उगी. आशी मानसी बन गई थी. वो हरे पहाड़ों पर रहती थी. सुंदर चीजों को नीचे नहीं उतरना चाहिए. शहर सांस लेते हैं. वो मैली हो जाती हैं.

वो वहीं थी. दूब के दूध सी पोशाक पहने. मलमल की. सफेद एक सुंदर रंग है. मैंने कॉपी के आखिरी पन्ने पर तीन बार लिखा. फिर बारिश होने लगी. ये सफेद रंग को हल्का करने का सबसे मनोहर तरीका था. मंदाकिनी कसम. मगर यहां यौन मसलों की गुंजाइश नहीं थी. ये आर्चीज वाला लव था. कंडोम वाला नहीं.

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वो नाच रही थी. ऐसा लग रहा था कि शिव आज अदृश्य हैं. मगर उनका धनुष तांडव कर रहा है. उसकी प्रत्यंचा तनी है. उसे कोई सख्ती से संधान को तैयार कर रहा है. एक गीली टंकार सी हो रही थी. फिर दो नायकों से दो काले रंग के भीगे खंभे आए. उन्हें सखी मान उसने एक एक लेयर उतार दी. अब वो घर के कपड़ों में थी. जैसे चौथी क्लास में पड़ोस की लड़की होती थी. सिर्फ शमीज और चड्ढी में. और वो किसी भी फ्रॉक से सुंदर लगता था. बेहद घरेलू. अपना. लूडो के बोर्ड जितना दूर.

पीछे से आवाज आ रही थी. जिसके मायने मुझे आज भी पूरे न समझ आए.

सावन ने आज तो मुझको भिगो दिया

और पुरुष आवाज में हम सबकी कारुणिक पुकार

माना अंजान हूं मैं तेरे वास्ते माना अंजान है तू मेरे वास्ते मैं तुझको जान लूं तू मुझको जान ले आ दिल के पास आ इस दिल के रास्ते

साल भर बाद पता चला कि पिंटू ने यही लाइन लिखकर बगल वाले हाते की एक लड़की घुमा दी थी. पाजी कहीं का. सीन में घुस आया. तो सावन ने मैनेज कर लिया आशी को. कितना भीतर बंद होगी वो. कितनी कितनी ओढ़नियां. तक्कों की गुंजाइश नहीं. आखिर पानी भीतर पहुंच ही गया. और तब वो जमीन पर लेट गई. दायां हाथ उठाकर उसने दूब को सहला दिया. कोई गीले बदन यूं हाथ फेर दे तो क्या होगा. पीठ के निचले हिस्से से हवा ऊपर उठेगी. हाथ भी उठा. दूब उसके हाथ में थी. टूटी. चिपकी. मैं दूब के लिए सेलेक्ट होना चाहता था. मुझे नहीं चाहिए था आईआईटी का ब्रोशर. एनडीए का सिलेबस. एक रिंग टोन काफी थी.

नहीं सामने तू ये अलग बात है मेरे पास है तू मेरे पास है मेरे पास है.

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2000 पहाड़ को समंदर में कूद मर जाना चाहिए

अब तक उसे पता ही नहीं था. कि उसकी बत्तू में बहुत बड़ा गिलट का सिक्का है. इतना कि पूरी हाट खरीद ले. हाथी खरीद ले. हथियार खरीद ले. जब जान गई तो उसने खोल दिए. बालों में बंधे सतरंगी रिबन. इस बार डायरेक्ट नहीं कर रहा था कोई उसकी हंसी. जैसा करता है कोई ग्राहक. धूमिल के मोचीराम से डिमांड. इहां से कांटों, वहां से छांटो.

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वो हंसती तो ज्वार को आने की वजह मिल जाती. आशी गोवा सेटल हो गई थी. पहाड़ पीछे थे. वो आए और धम्म से डूब गए. वो खिलखिला थी. एक आवाज जिसके दो रंग थे. ऊपर तो पीला. टॉप जैसा. और नीचे नीला. डेनिम सा. जब सब कुछ ठहरा तो कविता बनी

हाय मेरा दिल चुराके ले गईचुराने वाली मेरी कातिल

ये लाइन उसने सुनी. झटककर जुल्फ गर्दन का एक खाली खेत नुमांया किया और दौड़ गई. जहां समंदर और पहाड़ और आसमान एक हो रहे थे. सिर्फ वही ये कर सकती थी. इसका एक प्रूफ पिछले ही बरस था. मास्टर साहब पूछना भूल गए थे. गौर करें

मिट्टी पर खींची लकीरें रब ने तो ये तस्वीर बनी आग हवा पानी को मिलाया तो फिर ये तस्वीर सजी ओए.

ये ओए सिर्फ आशी की आवाज में. इसे पढ़ें. स्त्रोत की तरह. मगर पालथी मार नहीं. रेत पर दौड़ें. और हां. एक हाथ में कंदील भी टांग लें.

और एक बात हाशिए के ऊपर लिखी थी. पिंटू ने पढ़ ली. अबे भाई जी. जब चंद्रचूड़ सिंह को मिल सकती है तो हमें क्यों नहीं. हम तो साहरुख सलमान वाली श्रेणी के हैं. उसने कहा और सेंट्रल पार्क एक साथ रेत, समंदर, पहाड़ उगलने लगा अपने गर्भ से. हमने उसके बीच बांस की बनी बिना बाउंड्री वाली नाव डाल दी. उसके डंडे पर लिखा था.

हारे हारे हारे हम तो दिल से हारे

वैसे ये किस्सा है. असल बात ये है कि हम सही में हार गए थे. एक आदमी कानपुर में हमको तगड़ा चूतिया बनाया. राजेश सिंह नाम था. बोला चलो इलाहाबाद. तुम्हारा यूनिवर्सिटी में दाखिला कर देंगे. हम मैथ्स से खूंटा तुड़ाना चाहते थे. हाथ में ट्यूशन का पइसा था. जोश देखी. जोश में आए. चले गए. रस्ते में उसने पइसा मांगा और फिर रस्ते में ही उतर गया. फिर रस्ता नहीं मिला. इलाहाबाद गए और कुछ महीने में लौट के घर आए. गांव. यहां आशी नहीं थीं. बबलू था. हमारा नौकर. जानवर देखता था. हमें भी देखता था. दोस्त बन गया था. नशा लाता था. सस्ता वाला. 50 पइसे में देसी गुटखा, पान का पत्ता और चूना. जिसे बोरे में छिपा रखते. जब चूना जबड़ा काटता तो गाना याद आता. धड़कन का.

अकसर इस दुनिया में अनजाने मिलते हैं अनजानी राहों में मिलकर खो जाते हैं.

स्साला राजेशवा मिल जाए तो भगवान कसम हम उसे मार जूता लुगदी बना दें. पर आज हिंसा बात नहीं. किसी का बड्डे केक हमारा वेट कर रहा है.

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2000 खिड़कियां सब चुनवा दी जाएं. ऐसा सरकारी आदेश हो

कित्ता आर्चीज प्यार करें. जब सामने गीता हैंडपंप पर पानी भरती दिखती हो. भूसा लादे आती. लौटते में हमारा दिल दिमाग गर्मी सर्दी सब खाली बोरे में लिसड़ा चला जाता. लगा कि अब तो दुहनी सानी में ही खर्च होगा जीवन. तभी एक रोज टैंपू मिला. गांव से उरई ले गया. यहां आराधना टॉकीज थी. एक नया तमाशा लगा था. तीन लड़के. जिनका पढ़ने में कतई मन नहीं लगता था. सिवाय सीटियाबाजी के कोई काम नहीं. कोई अंदाजा नहीं उन्हें. कितना तगड़ा कंपटीशन है हर तरफ. काकादेव तो छोड़ दो डीवीसी कॉलेज में बीएससी की मेरिट लिस्ट में आ जाओ तो बहुत है. मगर एक सत्य कथा भी थी इस फर्जी मनोहर कहानियां में.

एक बाप था. बहुत सख्त. हमारे बाप सा. एक बेटी थी. बेहद सम्मोहक. सुशील. अगरबत्ती की खुशबू सी. जो हम होना चाहते थे. पर हो नहीं सकते थे. और एक दिन वो बेटी खिड़की से कूद गई. हमाई तो छोड़ो कैमरे तक की हिम्मत नहीं पड़ी नीचे झांकने की. कदौरा ब्लॉक में बीडीओ के दफ्तर के बाहर उस दिन नोटिस चिपका. सब खिड़की चुनवा दी जाएं. हमने खिड़की से सटा छन्ना (छन्नी का विकराल रूप) हटा दिया. इसी के सहारे चढ़ते थे ऊपर. फिर और ऊपर. एक खिड़की सबसे ऊंची. अगल बगल के आंगन बरामदों में बने मेकशिफ्ट बाथरूम में झांकती सी.

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अब कुछ नहीं बचा था खिड़की के नीचे. एक सूखी पत्ती थी जो हर सुबह उग आती थी. बुहारो तो गाती थी.

पास आओ गले से लगा लो

अब ये एकांत खटिया की मूंज सा चुभ रहा था. मगर उसके आने में वक्त था. नाम बदलना था, देश बदलना था.

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साल 2003 डीजे की धुन पर पीएसी लाठी मारती है

अब सब सैंटा बन चुके थे. पेवर राजश्री गुटखा छाप. हीरोइन जो थी. वो हिस्ट्री की मिस्ट्री बन चुकी थी. देवदास ने उसके माथे पर निशान बना दिया. हमें शिकन तक नहीं आई. उसने गहरे नीले मगर ट्रांसपेरेंट लहंगे में रास रचाया. लालटेन घुमाई. हम नहीं घूमे. मगर महा जिद्दी है जा मौड़ी. फिर आ गई.

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रेत का पहाड़ है. पर अजीब है. हरा सा है. कुछ लाशें पड़ी हैं. मगर ये क्या. इनमें तो हरकत है. ये कौन है जो अपनी टांगों से धरती हिला रहा है. और जीवन बाहर आ रहा है. ये टिया है. वो गा रही है. नाच रही है. ताकि गरीबों बच्चों की मदद हो सके. मगर क्या गा रही है. प्रणय गीत है. उसने लाल टॉप पहना है. सौरभ भीना झीना गीला. दिखता मृदु अंचल सा दूकुल. और जहां जोड़ है वहां कत्थई रंग की मोटी सिलाई. उसके लबों पर गाना है जो देसी से शुरू होता. फिराक को छू समीर पर निपटता.

दइया दइया दइया रे दइया दइया दइया रे आशिक मेरे मैंने तुझसे प्यार किया रे 

मंत्री जी जा चुके हैं. गांधी डिग्री कॉलेज का छात्र संघ शपथ ग्रहण समारोह पूरा नहीं हुआ लेकिन. लौंडे वहीं डीजे पर डांस करने लगे. टिया की आवाज सिंधी कॉलोनी तक पहुंचने लगी. साथ में कमेंटबाजी भी थी. गिल्लू सिटारी और झल्लू सिरौठिया सबसे आगे थे. और तब टिटुही बोली. अपशकुन.

अब दइया दइया पर पीएसी लाठियां भांज रही थी. लड़के कल्लू की दुकान से लेकर शंभू दूध वाले की गली तक फैल गए. एक ने पुड़िया फाड़ी और बोला. मरतई बचे आज चच्चा.

चच्चा मगन थे. रेडियो पर गाना आ रहा था. जो अक्षय कुमार की आवाज के साथ शुरू होता था.

नीली आंखें मुझे मरवा ही डालेंगी...

आशिक हूं दीवाना हूं तेरे लिए कुछ भी कर जाऊंगा इश्क में तेरे जीता हूं तेरे लिए मैं मर जाऊंगा.

मर जाओ साले. किसी के हाथों. 302 लगवा के. जो जमा होगा जेल में. हम उसे सेंगर के साथ डब्बा देने जाएंगे खाने का. लौट के कहानियां सुनाएंगे.

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साल 2010 सात साल बाद पानी में आग फैल गई

बहुत वक्त बीत गया था. कितना. पूरे सात साल. सात फेरों की तैयारी हो चुकी थी. हम आशी और करीना के पार जा चुके थे. कांसे के गिलास में भरी एक वाइन में. जिसके किनारों पर मक्खन की खुशबू थी. तुम भी तो अपनी दुनिया में मगन थीं. मैंने कोई ध्यान नहीं दिया. मंगल के नाम पर हुए अमंगल पर. तुम सिंदूर सी लग रही थीं. विरोध के तमाम जतनों के बावजूद ऐन उस पल दीपक की रौशनी में उजास को एक नया शेड देतीं.

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फिर एक राक्षस आया. ओस में भीगी काली खादी सा. तुम्हें उठा ले गया. सरसों के फूल वाले रंग का अनारकली सूट. एक चक्र पूरा हुआ. सब बुरे दढ़ियल लड़के. जो थे तो अच्छे. मगर उन्हें गिटार बजाना नहीं आया. अंग्रेजी बोलना नहीं आया. अपनी खाल से गांव छुड़ाना नहीं आया. एक झटके में रावण होने को सही मानने लगे. मगर ये आसान नहीं था. तुम्हारे इर्द गिर्द होना. और फिर भी नजर फेरे रखना. उसके लिए. मेरे लिए.

रांझा रांझा करदी वे मैं आपे रांझा होई रांझा रांझा सद्दो नी मेनू हीर नु आंखो कोईरांझा रांझा ना कर हीरे जग बदनामी हौएपत्ती पत्ती झर जावे पर खुशबू चुप ना होएबेगुनाह पकड़ा गया यारों, इश्क में जकड़ा गया यारोंआंख के दोष में दिल यारों, बेवजह पकड़ा गया यारों

तो सब कुछ नए सिरे से शुरू हुआ. इस बार मैं देह के उस हिस्से पर हाथ रख बता सकता हूं. जिस हिस्से से ये हरा गीला काला काई सा बुखार फैलना शुरू हुआ. तुम डरी हुई थीं. जैसे अनजान से डरना चाहिए. जैसे छाया से. फिर चाहे वह अपना हिस्सा बनने वाली ही क्यों न हो. और तभी तुम गिर भी गईं. साथ में नजर गिरी. गिरती रही. गीले कैनवस पर, काही से. नीचे पानी था. पत्थर थे. दुनिया थी. जिससे तुम आई थीं. मगर इन सबके बीच किनारे एक शाख आ लगी थी. डार से बिछुड़ी. उसने तुम्हें थाम लिया. सीन हिल रहा था. जैसे तुम्हारी छाती हिलती थी. दूब तोड़ने के बाद. मेरी आवाज सुनकर. गीले काले पेड़ के पीछे. मगर वहां नजर खुली थी. यहां बंद थी.

शाख नीचे जाती. तुम्हारा तन और उससे चिपका पीला कपड़ा कुछ और गीला होता. शाख ऊपर आती, लगता कि पानी वाली नहीं, ये हवा वाली ऑक्सीजन ही ठीक है. नीम बेहोशी सी हालत. जैसे मरने वाले हों. जैसे सब कुछ जल्दी-जल्दी याद आने लगा हो. हॉस्टल में पढ़ने की मेज पर तुम्हारी तस्वीर. मुंह में नानखटाई आने पर जैसी आंखें बनती हैं, वैसी आंख बना तुम देख रही थीं. फिर गेरुआ रंग का लिबास पहने तुम योग करतीं. फिर मेंहदी के रंग की वो साड़ी, जिसमें तुम थीं. और वनराज समीर की चिट्ठियां पढ़ रहा था. वो नीली शॉर्ट स्कर्ट, जिसमें तुम्हारी कमनीय काया दिख रही थी. पतित नायक गा रहा था.

कोई ये जाने न कोई ये माने न इश्क लेता है जान

और अंत में प्रार्थना- उदय प्रकाश से माफी के साथ. यूं मरना फिर हो. इस बार दूब नहीं धागा बनूं. वो तो ब्लाउज को बांध खोल रहा था. जिसे कसकर तुम पलटी थीं. और बोली थीं.

कजरारे कजरारे मेरे कारे कारे नैना

मुझे याद था. ये नीले हैं. मगर तुम्हारे फरेब को ही सारी उमर सच मान जिया हूं. तो अब क्यों सिक्का पलटूं. जन्मदिन मुबारक आशी.

तुमसे कहें या हम न कहेंबहकी हुई हैं क्यों ये धड़कनें


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