मिस्र: इतना 'महान' राष्ट्रपति कि हाथ में होने पर भी 100% वोट नहीं लिए, बस 97% से संतुष्ट हो गया
जब सब हाथ में था, तो इस नेता ने 100% वोट क्यों नहीं लिए?
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सीसी खुश हैं कि उन्हें इतना बड़ा जनसमर्थन मिला है. हालांकि वो अच्छी तरह जानते हैं कि मिस्र के चुनावों के निष्पक्ष होने की गलतफहमी किसी को नहीं. सब जानते हैं कि ये दिखावटी लोकतंत्र है. सीसी लोकतांत्रिक लीडर नहीं हैं, तानाशाह हैं.
सीसी को जिताने के लिए ही तो चुनाव हुए थे ये वो खबर है, जिसके लिए मेरे मन में शून्य उत्सुकता थी. उत्सुकता रखकर क्या करना? सूरज किस दिशा में उगेगा, इस बात पर किसी को सिर खुजलाते देखा है? जो तय है, उसमें क्या अचंभा. सीसी का चुनाव जीतना अटल था. बल्कि मिस्र में चुनाव हुए ही इसीलिए थे कि सीसी उसमें जीत जाएं. बड़े अंतर से, खूब सारे वोट पाकर.

सीसी के समर्थक उनके चुनाव जीतने की खुशी मनाते हुए. आप किसी भी तानाशाही सत्ता को याद कीजिए. ऐसा नहीं कि उनके समर्थक नहीं होते. होते हैं. लेकिन उनसे कहीं ज्यादा संख्या विरोधियों की होती है. वैसे भी जब सत्ता को निष्पक्ष और लोकतांत्रिक तरीके से चुनौती देने का विकल्प न हो, तो वो सिस्टम तानाशाही ही कहलाएगा. सीसी सरकार ने मिस्र में हर विरोध, हर विपक्ष को कुचलने का काम किया है.
कहा, 100 में 97 से ज्यादा वोटों ने हमको वोट दिया आगे बढ़ने से पहले कुछ आंकड़े देख लीजिए. कुल 41.5 फीसद लोगों ने वोट किया. इनमें से सीसी को मिले 97.8 फीसद वोट. उनके इकलौते विरोधी मूसा मुस्तफा मूसा को बस तीन फीसद वोट मिले. इतने मिल गए, वो भी ताज्जुब है. आपने कहीं देखा है कि कोई आदमी चुनाव में उतरे और लोगों से अपने विरोधी के लिए वोट मांगे! मूसा ने ऐसा ही किया था. 7.27 फीसद बैलेट पेपर ऐसे भी थे, जो खराब थे. ये उन लोगों के होंगे, जिन्होंने सरकारी दबाव में वोट तो डाला. लेकिन मतदान न करने की अपनी जिद (अनिच्छा) में चुपके से बैलेट पेपर खराब करके लौट आए.

मूसा मुस्तफा सीसी के इतने बड़े समर्थक हैं कि अपने मुख्यालय के बाहर भी सीसी का आदमकद पोस्टर टांगकर रखते हैं.
मिस्र के इन चुनावों पर हमने तसल्लीबख्श खबर की थी. पूरा पोस्टमॉर्टम किया था. पढ़ने के शौकीन हों और दिलचस्पी रखते हों, तो आप वो खबर इस लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं.
इस तमाशे को लोकतंत्र कैसे कहा जा सकता है? हम लोग तो कल्पना भी नहीं कर सकते कि मिस्र का चुनाव कैसा था. उसमें चुनाव जैसी कोई बात नहीं थी. देश में जगह-जगह बस सीसी के पोस्टर थे. यहां तक कि इकलौते विरोधी उम्मीदवार ने भी अपने दफ्तर के बाहर उनकी एक बड़ी सी तस्वीर चिपकाई हुई थी. ऐसा नहीं कि सीसी बहुत लोकप्रिय हों. इस अतिरेक सपोर्ट की वजह तानाशाही है. 2011 में हुए अरब स्प्रिंग के बाद तानाशाह होस्नी मुबारक को गद्दी छोड़नी पड़ी. उनके बाद आए मुस्लिम ब्रदरहुड के नेता मोहम्मद मोरसी. चुनाव जीतकर राष्ट्रपति बने वो. फिर जुलाई 2013 में वहां तख्तापलट हो गया. मोरसी को पकड़कर जेल में डाल दिया गया. उनकी जगह राष्ट्रपति बने सीसी. 2014 में उन्होंने चुनाव करवाया. नतीजे आए, तो पता चला कि उनको 96.9 फीसद वोट मिले हैं. ये लोकतंत्र का मजाक था. सीसी ने विपक्ष और आलोचना को पूरी क्रूरता से दबाया. अपने खिलाफ उठने वाली हर आवाज को दबा दिया. हजारों हत्याएं कराईं. पूरा इंतजाम करने के बाद जाकर चुनाव कराया. इसको लोकतंत्र कहने की कोई हिम्मत भी कैसे करे? ये तो डेमोक्रेसी की भावना के खिलाफ ईशनिंदा है.

ये बैलेट पेपर है. इसपर दो ही नाम हैं. एक सीसी का. दूसरा मूसा का. मूसा खुलकर कह रहे थे कि वो सीसी के समर्थक हैं. उनके ऑफिस की इमारत के बाहर सीसी का बहुत बड़ा पोस्टर चिपका था. इसको विरोधी कहेंगे भी? जैसे फिल्मों में स्टंटमैन से ऐक्शन सीन करवाकर ये दिखाते हैं कि उन्हें हीरो ने किया है, वैसे ही मूसा भी विपक्षी के नाम पर सीसी के खिलाड़ी थे.
आप सीसी के विरोध में हैं, माने आप मिस्र-विरोधी हैं इस बार भी ऐसा ही हुआ. दुनिया जानती थी कि मिस्र में लोकतंत्र के नाम की नौटंकी हो रही है. सीसी का जीतना तय था. उन्होंने विरोध और विपक्ष का कोई विकल्प ही नहीं छोड़ा था. अपने खिलाफ चुनाव लड़ने की कोशिश कर रहे पांच विरोधियों को डरा-धमकाकर किनारे करवाया. एक नाम था मुहम्मद अनवर अल-सादत का. उन्होंने चुनाव में खड़े होने की कोशिश की थी. फिर अपना नाम वापस ले लिया. कहा कि उनके समर्थकों को धमकाया जा रहा है. सीसी के खिलाफ बोलना देशद्रोह हो गया. आप सीसी के विरोध में हैं, माने आप मिस्र-विरोधी हैं. इतना सब करके सीसी मूसा को उठा लाए. ये दम भरने के लिए वो चुनाव लड़कर सत्ता में लौटे हैं. कि उन्हें लोगों ने चुना है. तानाशाहों को ये पुरानी बीमारी रही है. उन्हें लोकतंत्र पर रत्तीभर भी भरोसा नहीं होता. मगर खुद को जायज प्रतिनिधि बताने के लिए वो लोगों के हाथों चुने जाने का नाटक भी करते हैं. सीसी इस तरह की पहली मिसाल नहीं हैं. ऐसे तानाशाह छप्पड़ फाड़ जीत तो दिखाते हैं, लेकिन निष्पक्षता दिखाने के लिए इतनी कसर रखते हैं कि 100 फीसद वोट अपने नाम पर नहीं दिखाते.

रूस के चुनाव में पुतिन को जीतने की टेंशन नहीं थी. वो बस ये चाहते थे कि लोग बाहर आएं और जमकर वोट डालें. ताकि संदेश जाए कि लोगों में उत्सुकता है और उन्होंने पुतिन को अपना समर्थन दिया है. ऐसे ही हालत सीसी की थी. वो ज्यादा से ज्यादा वोट पाकर जीतना चाहते थे. ताकि खुद को बड़े अंतर से जीता हुआ डेमोक्रैटिक ली़डर बता सकें. तस्वीर में वोटों की गिनती का काम चल रहा है.
बस अब संविधान में चेंज करना है सीसी को अब बस एक काम और करना है. मतलब वो करेंगे. मिस्र के मौजूदा संविधान के मुताबिक, एक इंसान बस दो बार राष्ट्रपति बन सकता है. ये तय है कि सीसी इस नियम को बदलेंगे. इसके लिए उनको एक जनमत संग्रह करवाना होगा. वो ये कब करवाते हैं, ये देखना होगा. उनके पास अभी 2022 तक का वक्त है. उसी साल अगला राष्ट्रपति चुनाव होना है. हो सकता है कि इस संशोधन को लेकर उन्हें तगड़ा विरोध झेलना पड़े. एक संभावना ये भी है कि शायद उनकी इन कोशिशों से आखिरकार विपक्ष ही मजबूत होगा. शायद इसी तरह से विपक्ष के लिए सपोर्ट बढ़ेगा.

2013 में हुए सैन्य तख्तापलट के बाद सीसी राष्ट्रपति बने. उनसे पहले मुस्लिम ब्रदरहुड के नेता मुहम्मद मोरसी राष्ट्रपति थे. अरब स्प्रिंग के बाद जब होस्नी मुबारक को सत्ता गंवानी पड़ी, तब मोरसी ही आए थे. सैन्य तख्तापलट के सहारे राष्ट्रपति बनकर सीसी खुद को लोकतंत्र का दूत नहीं बता सकते.
ऐसे फर्जी लोकतंत्रों और चुनावों पर शोक मनाया जाना चाहिए मिस्र ने होस्नी मुबारक के खिलाफ क्रांति की थी. इसलिए नहीं कि एक तानाशाह जाए और दूसरा आ जाए. सीसी कमजोर होंगे. कब, ये ही देखने वाली बात है. हालांकि ऐसी खबरें भी आ रही हैं कि सेना के अंदर उनके लिए गुस्सा बढ़ रहा है. लेकिन ये गुस्सा और विरोध अभी कमजोर है. इनको मजबूत होना होगा. और बिना जनता की भागीदारी के कोई बदलाव नहीं आता. बदलाव को बेहतरी पढ़िएगा. जब तक ये दिन नहीं आता, तब तक ऐसे फर्जी लोकतंत्रों को लानत ही मिलनी चाहिए.
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