फेसबुक तेरे आने से पहले, तेरे आने के बाद
हम जब फेसबुक पर नहीं थे तो क्या थे इसका किस्सा है. पढ़ो. क्या पता तुम्हारी कहानी भी कहीं मैच कर जाए.
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फोटो - thelallantop
फेसबुक पर आने से पहले भी अपन खुश थे. पढ़ाई और नौकरी एक साथ चल रही थी. दोनों में मन नहीं लगता था. पढ़ाई में इसलिए नहीं लगता था क्योंकि कॉलेज में कोर्स कराया जाता था. मुझे जरूरत थी ज्ञान की. वो वहां यूनिभर्सटी में पैसा खर्च करके भी न मिलती थी. बाबा रणछोड़ दास चांचड़ तब डायरेक्टर के दिमाग में भी न पैदा हुए रहे होंगे. बड़ी खुरपेंच थी दिमाग में. कि कुछ करना है. कुछ बड़ा. कुछ बेहतर. लेकिन चवन्नी चोर कंपनियों की दिहाड़ी नौकरी और फीताकृमि एक्जाम्स में चुक्कीमाना हो रहे थे.
कुछ बड़ा, कुछ बेहतर करना है. ये सपना साला दिमाग में ऐसे चिपक गया था जैसे बालों में डामर की गोली. एक बार गरम पड़ कर चिपक जाए तो पेट्रोल से ही छूटता है. लेकिन सपनों को पंख कैसे मिलें? ये क्वेस्चन गैंग्स ऑफ वासेपुर के रामाधीर सिंह जैसा था. हमको खुदै नहीं पता ''कहां गाड़े थे." कुल मिला कर जिंदगी फुल्ल रोबोटिक यक्कदम मशीनी थी.
फेसबुक कब का अस्तित्व में आ चुका था लेकिन इंडिया में उसके रैबीज इतनी बुरी तरह नहीं फैले थे. बड़े बड़ों के एकाउंट ऑर्कुट पर थे. सिर्फ कंप्यूटर पर चलता था. वोब्बड़े वाले टीवी जैसे. उसका स्क्रीन इतना भारी था कि फर्श पर गिर जाए तो वहां पानी निकल आए जमीन से. मोबाइल पर नेट जैसी चीज भी जस्ट आई थी. पहली बार हमने कैसे मोबाइल पर नेट चलाया उसकी अलग कहानी है. भगवान गणेश को बुलाना पड़ेगा उसे लिखने के लिए. इतना बड़ा वृत्तांत लिखने में मेरे हाथ मेरा साथ छोड़ देंगे.
तो साल 2010 का अप्रैल महीना था वो जब हमारा फेसबुक नाम की बला से पाला पड़ा. लेकिन इसने हमको कब्जे में नहीं लिया अगले दो तीन साल. महीने दो महीने में एकाध बार कोई गंदी सी फोटो या घटिया सी शायरी लिख जाता था. वो भी किसी और की. वो भी रोमन वाली हिंदी में. 2013 का साल आया तो ये वायरस हमारे अंदर घुस गया. इंजेक्ट करने वाला था हमारा अपना खाली टाइम. कुछ करने धरने को नहीं था. तो वहां ज्ञान उड़ेलने लगा. फिर तो सिलसिला चल पड़ा.ताजी हवा का झोंका बन कर आए 2014 के लोकसभा चुनाव. हर आदमी पार्टीबंदी में बंध गया. फेसबुक के लाइको कमेंट ने दुश्मनों में मेल करा दिया. दोस्तों की खोपड़ी फोड़वा दी. भाई भाई एक दूसरे को खांग्रेसी और खाजपाई के नामों से जानने लगे. बिकट सीन था. कोई भी निष्पक्ष नहीं रहा. राह में पड़ा रोड़ा भी राहगीर की पार्टी देख कर पैर का अंगूठा फोड़ता था. उस दौर में फेसबुक खूब खिला. अलबत्ता लोग कहते हैं कि ये सरकार फेसबुक से चुन कर आई है. जहां तक फेसबुक पर चिपकने के बाद का सीजन याद आता है. कभी खाली वक्त नहीं मिला. कभी खुद को अकेला महसूस नहीं किया. रेलवे स्टेशन पर ट्रेन आने में लेट हो. ठांय से लॉगिन करके बैठ जाओ. साली ट्रेन आकर चली भी जाए पता न चले. पढ़ने सुनने वाले मिलने लगे तो अंदर कीड़े कुलबुलाने लगे. क्रियेटिविटी उबल कर चूने लगी. देश दुनिया भर के लोगों से दोस्ती हो गई. पता चल गया कि अकेले नमूने हमई नहीं हैं. अपने जैसे और भी हैं दुनिया में. फेसबुक से बहुत फायदे उठाए और नुकसान भी. हिसाब सब बराबर है. अच्छी जगह है. लेकिन भौतिकी के नियम यहां भी लागू होते हैं. एडिक्शन खतरनाक है. खास तौर से यहां उन लोगों से बचना जो इसे जहर की पुड़िया कहते हैं. मजे की बात वो ये बताने के लिए हमेशा फेसबुक पर बने रहेंगे. रहती दुनिया तक. अगर आप जकरबर्ग बनना चाहते हो तो इधर कान लाओ. आप ये हमाई बिन मांगी सलाह अपने टेट में डाल कर रखो. सपना हमेशा बड़ा देखो... पूरा चाहे घंटा न हो. और हां दुवा कीजिए कि अपनी आने वाली नस्लें ऐसी न हों
