The Lallantop
Advertisement

मधु लिमये, RSS के खिलाफ जिनकी बगावत ने केंद्र में सरकार गिरवा दी थी

आज मधु लिमये की 26वीं बरसी है.

Advertisement
Img The Lallantop
मधु लिमये ने जनता पार्टी में जनसंघ के सदस्यों की दोहरी सदस्यता का सवाल उठाया था. इस पर खूब बवाल हुआ था.
8 जनवरी 2021 (Updated: 7 जनवरी 2021, 03:32 IST)
Updated: 7 जनवरी 2021 03:32 IST
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share

एक नेता, जो कभी सरकार का हिस्सा नहीं रहा. जब सरकार में जाने का मौका मिला, तब भी नहीं गया. अंग्रेजों की लाठियां भी खाईं और पुर्तगालियों से भी लोहा लिया. दूसरे शब्दों में कहें तो आजादी की लड़ाई में जेल गया और गोवा मुक्ति संग्राम में भी जेल की सजा पाई. पुणे का रहने वाला और प्रतिष्ठित फर्ग्युसन काॅलेज में पढ़ा यह नेता दो बार मुंबई के बांद्रा से चुनाव लड़ा, लेकिन कामयाब नहीं रहा. तब इस नेता ने बिहार को अपनी सियासी कर्मभूमि बनाया और वहां से 4 बार संसद पहुंचा. संसद में ऐसी धाक जमाई कि जब वह बोलने के लिए खड़ा होता था, तो सत्ता पक्ष में सिहरन पैदा हो जाती थी. सबूतों और दस्तावेजों के साथ ऐसा कमाल का भाषण कि इसके चक्कर में कई केन्द्रीय मंत्रियों की कुर्सी चली गई. संसदीय परंपराओं और व्यवस्था का ऐसा ज्ञान कि सत्ता पक्ष के लोगों की तमाम दलीलें धरी की धरी रह जाएं.

हम बात कर रहे हैं सोशलिस्ट नेता मधु लिमये की, जिनकी आज यानि 8 जनवरी को 26वीं बरसी है.

आज हम आपको मधु लिमये और उनकी सियासत से जुड़े 5 किस्से बताएंगे, जिसे पहले आपने शायद ही कभी सुना हो.
राममनोहर लोहिया (बाएं से तीसरे) के साथ मधु लिमये (दाएं से दूसरे).
राममनोहर लोहिया (बाएं से तीसरे) के साथ मधु लिमये (दाएं से दूसरे).
1. जब देश को एक संवैधानिक संकट से बचाया

मधु लिमये पहले प्रजा सोशलिस्ट पार्टी यानी प्रसोपा में थे. प्रसोपा आचार्य नरेन्द्र देव गुट के समाजवादियों की पार्टी थी. लेकिन 1956 में आचार्य नरेन्द्र देव का निधन हो गया. उसके बाद पार्टी में बिखराव शुरू हो गया. कुछ लोग जैसे अशोक मेहता, चंद्रशेखर, नारायण दत्त तिवारी वगैरह कांग्रेस में चले गए. तो मधु लिमये, जॉर्ज फर्नांडीज, कर्पूरी ठाकुर जैसे कुछ लोग डाॅ. राममनोहर लोहिया की सोशलिस्ट पार्टी के साथ चले गए. उसके बाद सोशलिस्ट पार्टी का नाम बदलकर संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी यानी संसोपा कर दिया गया. इसी पार्टी के टिकट पर 1964 में मुंगेर लोकसभा सीट का उपचुनाव जीतकर मधु लिमये संसद पहुंचे. 1967 में वह लगातार दूसरी बार मुंगेर से जीते. लेकिन इसी दरम्यान 1969 में कांग्रेस में विभाजन हो गया. इंदिरा गांधी सरकार के कई मंत्री उनके विरोधी खेमें में चले गए. नतीजतन कुछ दिनों तक कई मंत्रियों के पास एक से ज्यादा विभागों का प्रभार रहा. खुद इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री पद के साथ-साथ वित्त मंत्रालय संभाल रही थीं. इसी वजह से 1970 का बजट इंदिरा गांधी ने खुद ही पेश किया था.

*बजट का वर्ष 1 अप्रैल से 31 मार्च तक होता है, जबकि बजट पास होते-होते पहले मई का महीना आ जाता है. इसलिए बजट के साथ-साथ 2 महीने का vote on account, हिंदी में कहें तो लेखानुदान पेश किया जाता है. इस लेखानुदान को 31 मार्च से पहले संसद से पारित करा लिया जाता है ताकि अगले 2 महीने (अप्रैल और मई) तक देश का खर्च चलाने के लिए सरकार को पर्याप्त रकम मिल सके.

लेकिन 1970 में ऐसा नहीं हुआ. किसी का ध्यान भी इस पर नहीं था. 31 मार्च की तारीख आ गई. शाम को संसद की उस दिन की कार्यवाही समाप्त हो गई. सभी सांसद अपने घर चले गए.

लेकिन तभी मधु लिमये को याद आया कि आज 31 मार्च है और लेखानुदान तो पास ही नहीं हुआ है. कल से देश का खर्चा कैसे चलेगा? सरकारी कर्मचारियों को वेतन कैसे मिलेगा? बाकी कामकाज कैसे होंगे?

ये सब सोचकर मधु लिमये तत्काल लोकसभा के स्पीकर गुरदयाल सिंह ढिल्लों के कक्ष में पहुंचे, और कहा,


"जल्दी संसद की बैठक बुलाइए. रात 12 बजे से पहले लेखानुदान पारित करवाइए. नहीं तो कल से देश ठप्प हो जाएगा."

स्पीकर ने भी उनकी बात पर गौर किया. तत्काल इंदिरा गांधी से बात की गई. उसके बाद ऑल इंडिया रेडियो पर पौने नौ के न्यूज बुलेटिन में न्यूज प्रसारित करवाई गई कि तत्काल सभी सांसद संसद पहुंचें क्योंकि लेखानुदान पर तत्काल वोटिंग जरूरी है. इसके अलावा लुटियंस दिल्ली में माइक लगी हुई गाड़ियों से सांसदों के इलाके में एनाउंसमेंट करवाया गया. तब जाकर रात में संसद बैठी, कोरम पूरा हुआ और लेखानुदान को संसद की मंजूरी दिलाई गई. इस तरह मधु लिमये ने एक गंभीर वित्तीय और संवैधानिक संकट से देश को बचा लिया.
मधु लिमये (बीच में) संसद के बेजोड़ वक्ता थे.
मधु लिमये (बीच में) संसद के बेजोड़ वक्ता थे.
2. जब संसोपा के संसदीय दल के नेता का पद छोड़ा

1967 में राममनोहर लोहिया की मृत्यु के बाद मधु लिमये संसोपा संसदीय दल के नेता चुने गए. लेकिन तब तक संसोपा पर पिछड़ावाद हावी हो चुका था. पार्टी के कई लोगों को मलाल था कि जो पार्टी 'संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ' का नारा देती है, उस पार्टी और उसके वर्चस्व वाली सरकारों में महत्वपूर्ण पदों पर अगड़े वर्ग के लोग क्यों काबिज हैं. इसी विवाद में 1968 में बिहार की महामाया प्रसाद सिन्हा की सरकार चली गई थी. 1969 में यही सवाल संसोपा संसदीय दल की बैठक में भी उठा कि पिछड़ों की पार्टी के संसदीय दल के नेता पद पर ब्राह्मण समुदाय के मधु लिमये क्यों काबिज हैं? लेकिन सवाल उठने के बाद मधु लिमये ने एक मिनट की भी देर नहीं लगाई. अपने पद से इस्तीफा दे दिया. इसके बाद पार्टी के कई नेताओं ने उनको मनाने की कोशिश की, लेकिन वह नहीं माने. आखिरकार उनकी जगह उत्तर प्रदेश के सोशलिस्ट नेता और बाराबंकी के सांसद रामसेवक यादव को संसोपा संसदीय दल का नेता चुना गया.

लेकिन 1971 में लोकसभा का मध्यावधि चुनाव हुआ. उसमें इंदिरा गांधी के गरीबी हटाओ के नारे के सामने दोनों नेता, मधु लिमये और रामसेवक यादव अपनी-अपनी सीट गंवा बैठे. उसके बाद 1971 में ही बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और दरभंगा के सांसद विनोदानंद झा का निधन हो गया. उनकी सीट पर उपचुनाव कराया गया. इस उपचुनाव में इंदिरा गांधी की कांग्रेस ने अपने सबसे बड़े फंड मैनेजर ललित नारायण मिश्र को उम्मीदवार बनाया. मिश्र का मुकाबला करने के लिए संसोपा ने उत्तर प्रदेश से रामसेवक यादव को बुलाया, जो 1971 का चुनाव हारने के बाद लोकसभा पहुंचने का मौका तलाश रहे थे. लेकिन इस बहुचर्चित उपचुनाव में ललित बाबू बाजी मार ले गए. रामसेवक यादव संसद पहुंचने में नाकामयाब रहे.


1971 की इंदिरा लहर में मधु लिमये चुनाव हार गए थे.
1971 की इंदिरा लहर में मधु लिमये चुनाव हार गए थे.
3. कांग्रेस के दुष्प्रचार और अपने साथी का एकसाथ मुकाबला किया

1971 में इंदिरा गांधी के गरीबी हटाओ के नारे की आंधी में मधु लिमये कांग्रेस के डीपी यादव से अपनी मुंगेर लोकसभा सीट हार गए थे. लेकिन लोकसभा जाने का दूसरा मौका उनको जल्दी ही मिला, जब बांका के कांग्रेसी सांसद शिव चंडिका प्रसाद का निधन हो गया और इस वजह से उनकी सीट पर उपचुनाव कराना पड़ा. इस सीट पर संसोपा ने मधु लिमये को अपना उम्मीदवार बनाया. उस दौर में मधु लिमये की अपने सोशलिस्ट साथी राजनारायण से भी अनबन चल रही थी. यहां तक कि बिहार के बड़े सोशलिस्ट नेता कर्पूरी ठाकुर भी राजनारायण के साथ थे. लिहाजा राजनारायण ने भी बांका से निर्दलीय पर्चा भर दिया.

इस पूरे घटनाक्रम के चश्मदीद रहे वरिष्ठ पत्रकार सुरेन्द्र किशोर ने दी लल्लनटाॅप को बताया,


"मधु लिमये के खिलाफ चुनाव लड़ने के लिए नेताजी (राजनारायण) पटना पहुंचे. उन दिनों मैं कर्पूरी ठाकुर का निजी सचिव था. इस वजह से मैं भी कर्पूरी ठाकुर के साथ नेताजी से मिलने पहुंचा. भारी-भरकम शरीर वाले नेताजी मुझे पहले से जानते थे, इसलिए देखते ही मेरे जैसे दुबले-पतले आदमी के कंधे पर हाथ रखकर पूछ बैठे, सुरेन्द्र, तुम बताओ मैं चुनाव लड़कर ठीक कर रहा हूं या नहीं? अब चूंकि मैं कर्पूरी ठाकुर के साथ गया था तो कैसे कहता कि आप ठीक नहीं कर रहे हैं. लिहाजा मैंने भी उनकी हां में हां मिला दी."
राजनारायण बांका से चुनाव लड़ गए. मधु लिमये के खिलाफ खूब आग-उगलने लगे. लेकिन मधु लिमये की परेशानी सिर्फ राजनारायण ही नहीं थे. उनकी मुश्किलें बढ़ाने के लिए कांग्रेस ने बांका में बिहार सरकार के मंत्री दारोगा प्रसाद राय जो पहले मुख्यमंत्री भी रह चुके थे, को तैनात कर रखा था. दारोगा प्रसाद राय अपनी हर सभा में लिमये को 'मधु लिमये बंबईया' कहकर उनकी खिल्ली उड़ाते और उन्हें बाहरी बताते. जब यह सब बात दिल्ली तक पहुंची तो वहां से जॉर्ज फर्नांडीस को भेजा गया. जॉर्ज ने तत्काल बांचा पहुंचकर लिमये के अभियान की कमान संभाल ली. यानी देश के दो बड़े वक्ता लिमये और जॉर्ज एक साथ बांचा में थे. जॉर्ज फर्नांडीस लोगों से कहते,
"गनीमत है कि दारोगा प्रसाद राय त्रेता युग या चंपारण सत्याग्रह के दौर में नहीं थे. नहीं तो वे कभी भगवान राम की शादी नेपाल में नहीं होने देते या फिर चंपारण में महात्मा गांधी को भी बाहरी बताकर भगा देते."
जॉर्ज की इन बातों का जनता पर असर पड़ा. मधु लिमये ने बांका में बड़ी जीत दर्ज की. राजनारायण की तो जमानत तक नहीं बची थी.
मधु लिमये को बांका का उपचुनाव जिताने में जार्ज फर्नांडीस के ओजस्वी भाषणों की बड़ी भूमिका थी.
मधु लिमये को बांका का उपचुनाव जिताने में जॉर्ज फर्नांडीस के ओजस्वी भाषणों की बड़ी भूमिका थी.
4. जब केन्द्र में मंत्री बनने से इनकार कर दिया 

1977 में इमरजेंसी के बाद हुए लोकसभा चुनावों में विपक्षी दलों के मर्जर से बनी जनता पार्टी को बड़ी जीत मिली. मधु लिमये भी बांका लोकसभा सीट जीतकर एक बार फिर लोकसभा पहुंचे. मोरारजी देसाई को जनता पार्टी के संसदीय दल का नेता चुना गया और वे प्रधानमंत्री बने. लेकिन असल माथापच्ची मंत्रिमंडल को लेकर थी. मोरारजी चाहते थे कि जितने भी बड़े संसदविद् और वक्ता हैं, उन्हें सरकार में शामिल किया जाए. वरना विपक्ष के लोग जैसे पिछले 15-20 सालों से सरकार की नाक में दम किए रहे हैं, वैसे ही इस सरकार में भी करेंगे. ऐसे लोगों में 4 लोग- पीलू मोदी, जॉर्ज फर्नांडीस, अटल बिहारी वाजपेयी और मधु लिमये प्रमुख थे. खुद कांग्रेसी सरकारों में मंत्री रहने के दौरान मोरारजी देसाई भी अक्सर इन लोगों के निशाने पर रहे थे. लेकिन इनमें से एक पीलू मोदी तो पहले ही लोकसभा चुनाव हारकर मंत्री पद की रेस से बाहर हो चुके थे. जॉर्ज और वाजपेयी मंत्री बनने के लिए तैयार हो गए थे. लेकिन मधु लिमये नहीं माने. उन्होंने मोरारजी देसाई को साफ-साफ कह दिया,


"मुझे मंत्री नहीं बनना. आप मेरी जगह पुरुषोत्तम कौशिक को मंत्री बना दीजिए."
अंततः यही हुआ. लिमये नहीं माने. उनकी जगह छत्तीसगढ़ के सोशलिस्ट नेता पुरुषोत्तम कौशिक को मंत्री बनाया गया. 5. RSS से असहमति

मधु लिमये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों से पूरी तरह असहमत रहते थे. उनके शब्दों में-


'मुझे गाली देने में अपने अखबारों का जितना स्थान RSS ने खर्च किया, उतना तो शायद इंदिरा गांधी को भी गाली देने के लिए नहीं किया होगा. पांचजन्य और ऑर्गनाइजर में मुझे और जनता पार्टी के कई नेताओं के बारे में बहुत भला-बुरा लिखा गया. इसके बावजूद एक अरसे तक इन लोगों से मेरी बातचीत होती रही. एक दफा तो मुझे याद है, मेरे घर बंबई में बाला साहब देवरस आये. फिर उसके बाद 71 के चुनाव के बाद एक दफा मैं उनसे मिला. बाला साहब देवरस से मई 1977 में भी मेरी बात हुई थी. इसलिए ऐसा कोई नहीं कह सकता कि मैंने उनसे चर्चा नहीं की थी. लेकिन मैं अब इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि उनके दिमाग का किवाड़ बंद है. उसमें कोई नया विचार पनप नहीं सकता. बल्कि  RSS की यह विशेषता रही है कि वह बचपन में ही लोगों को एक खास दिशा में मोड़ देता है. पहला काम वे यही करते हैं कि बच्चों और नौजवानों की विचार प्रक्रिया को ‘फ्रीज़’ कर देते हैं. उन्हें जड़ बना देते हैं. जिसके बाद कोई नया विचार वे ग्रहण ही नहीं कर पाते.'

आखिरकार मधु लिमये की RSS से यह असहमति भारत में पहले गैर-कांग्रेसी प्रयोग पर भारी पड़ गई. लिमये ने जनता पार्टी में जनसंघ घटक के सदस्यों की दोहरी सदस्यता का सवाल उठा दिया. मांग की कि जिन लोगों ने भी जनता पार्टी की सदस्यता ले रखी है, उन्हें RSS की सदस्यता छोड़नी होगी. कहा कि जनता पार्टी का कोई भी सदस्य RSS जैसे 'सांप्रदायिक मानसिकता' वाले संगठन का सदस्य नहीं हो सकता. यह दोहरी सदस्यता नहीं चलेगी.

लेकिन जनसंघ घटक के लोगों ने उनकी मांग को मानने से इनकार कर दिया. धीरे-धीरे यह विवाद इतना तूल पकड़ गया कि जुलाई 1979 में मोरारजी देसाई की सरकार गिर गई. विपक्षी एकता के नाम पर बनी जनता पार्टी बिखर गई.


मधु लिमये की आरएसएस से असहमति मोरारजी देसाई की सरकार गिरने का कारण बनी.
मधु लिमये की आरएसएस से असहमति मोरारजी देसाई की सरकार गिरने का कारण बनी.

इसके बाद मधु लिमये ने 1980 में तत्कालीन प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह की जनता पार्टी (सेक्युलर) के टिकट पर बांका से चुनाव लड़ा. लेकिन कांग्रेस (ई) के चंद्रशेखर सिंह से चुनाव हार गए. इसके बाद उन्होंने चुनावी राजनीति से संन्यास ले लिया. लिखने-पढ़ने के काम में लग गए. मधु लिमये ने कभी भी पूर्व सांसद के तौर पर पेंशन नहीं ली. अखबारों में काॅलम लिखकर अपना खर्च चलाते रहे. 8 जनवरी 1995 को 73 वर्ष की अवस्था में उनका देहांत हो गया.
चलते-चलते उनके बारे में एक तथ्य और बताते चलें कि 1990 में मंडल कमीशन का बवाल खड़ा होने के बाद जब सुप्रीम कोर्ट में इस विवाद पर इंद्रा साहनी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया केस की सुनवाई शुरू हुई, तब क्रीमी लेयर का मामला लेकर मधु लिमये भी सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए थे और खुद इस केस में एक पार्टी बन गए. सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने जजमेंट में उनके इस तर्क को माना कि पिछड़े वर्ग में क्रीमी लेयर यानी संपन्न तबकों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए.

thumbnail

Advertisement

election-iconचुनाव यात्रा
और देखे

Advertisement

Advertisement