The Lallantop
Advertisement

मुख्यमंत्री: मंडल कमीशन वाले बिहार के मुख्यमंत्री बीपी मंडल की पूरी कहानी

बीपी मंडल, जो लाल बत्ती के लिए लोहिया से भिड़ गए थे.

Advertisement
Bindheshwari Prasad Mandal
बिहार के सातवें मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल.
9 नवंबर 2020 (Updated: 9 नवंबर 2020, 11:51 IST)
Updated: 9 नवंबर 2020 11:51 IST
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share
7 अगस्त 1990. मंगलवार का दिन. देश में सब कुछ कमोबेश सामान्य. सुर्खियों के स्तर पर बस प्रधानमंत्री वीपी सिंह और उप प्रधानमंत्री रहे देवीलाल के बीच खटपट की खबरें. लेकिन उस शाम की केंद्रीय कैबिनेट मीटिंग के बाद सब कुछ बदलने वाला था. मीटिंग रुटीन थी, कोई खास एजेंडा नहीं. इसलिए सभी मंत्री दिल्ली में मौजूद भी नहीं थे. जो थे, वे शाम को प्रधानमंत्री के आवास पर पहुंच गए. मीटिंग शुरू हुई तो वीपी सिंह अपनी जगह से खड़े हुए और बोले-
मंडल आयोग की सिफारिश को लागू करना हमारे मैनिफेस्टो का हिस्सा है और अब इसे चरणबद्ध तरीके से लागू करने का समय आ गया है. इसी उद्देश्य से आज मैं इस आयोग की एक सिफारिश, जिसके अंतर्गत सरकारी नौकरियों में अन्य पिछड़ा वर्ग यानी OBC के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान करने की सिफारिश की गई है, को आपलोगों के समक्ष रखता हूं और आप सब से उम्मीद करता हूं कि आप इस पर अपनी सहमति व्यक्त करेंगे. मंडल कमीशन की बाकी सिफारिशों के बारे में बाद में सोचा जाएगा.
ये फैसला हिंदुस्तान की सियासत और समाज को हमेशा के लिए बदलने वाला था. इसे सुन कई मंत्री चुप्पी साध गए. शरद यादव और रामविलास पासवान ने इसका खुलकर समर्थन किया. आगरा के जाट नेता और रेल राज्यमंत्री अजय सिंह ने एक अलहदा सुझाव देते हुए कहा-
बाकी सब तो ठीक है लेकिन इसी में थोड़ा-बहुत इधर उधर करके जेनरल कैटेगरी (जिनमें जाट भी शामिल थे) के गरीब लोगों के लिए भी कुछ स्पेस बना दिया जाए तो कोई बवाल नहीं होगा अन्यथा इसका विरोध हो सकता है.
अजय सिंह की यह सलाह नक्कारखाने की तूती बनकर रह गई. मंत्रिपरिषद ने इस प्रस्ताव पर मुहर लगा दी. विपक्षी दल पसोपेश में पड़ गए, समर्थन करें या विरोध. और सवर्णों का सड़कों पर आंदोलन शुरू हो गया. डीयू के स्टूडेंट राजीव गोस्वामी की आग में लपटी तस्वीर सिंबल बन गई. सरकारी फैसले के समर्थन में पिछड़े वर्ग के छात्रों ने भी रैली निकालीं और टकराव होने लगा. तभी सुप्रीम कोर्ट की युवा वकील इन्द्रा साहनी सुप्रीम कोर्ट पहुंची और उनकी याचिका पर संज्ञान लेते हुए तत्कालीन चीफ जस्टिस रंगनाथ मिश्र ने मंडल आयोग की अधिसूचना पर तत्काल प्रभाव से स्टे लगाने का ऑर्डर दे दिया. तीनेक बरस बाद कोर्ट की संविधान पीठ ने आरक्षण के पक्ष में फैसला दिया.

इन सबके बीच मंडल एक नाम नहीं, एक मुहावरे में तब्दील हो गया. लेकिन मंडल का अर्थ क्या. ये नाम था पिछड़ों की स्थिति का अध्ययन करने के लिए बने आयोग के अध्यक्ष का. बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल. शॉर्ट में बीपी मंडल. और यही बीपी मंडल डेढ़ महीने के लिए बिहार के मुख्यमंत्री भी रहे. इनके सीएम पोस्ट पर पहुंचने की कहानी गजब है. सांसद थे, मंत्री बने, विधायक नहीं बने तो लाल बत्ती गई. फिर पार्टी में बागियों का झंडा थामा किसी को सीएम बनाया ताकि खुद विधायक और सीएम बन सकें. ये सब कैसे हुआ, बताते हैं.
मंडल बनाम मंडल बनाम लोहिया
बिहार के मधेपुरा पुरा जिले से पंद्रह किलोमीटर दूर है मुरहो गांव. यहीं के एक जमींदार परिवार से ताल्लुकर रखते थे बिंदेश्वरी. शुरुआती पढ़ाई के बाद हाई स्कूल करने दरभंगा गए. देखा हॉस्टल में पहले अगड़ी जाति के लड़कों को खाना मिलता है, फिर उनका नंबर आता है, बेंच भी नहीं मिलती बैठने को. बीपी ने अपने समूह के लड़के जुटाए और लगे प्रदर्शन करने. उनके तेवर देख हॉस्टल वालों के कस बस ढीले पड़ गए. स्कूल के बाद पटना कॉलेज से पढ़ाई पूरी की और भागलपुर में मैजिस्ट्रेट तैनात हो गए. कुछ ही बरस में चुनावों का ऐलान हुआ तो ये नौकरी पूर्व हो गई.
Bp Mandal
51 दिनों के लिए बिहार के मुख्यमंत्री बने थे बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल.


मधेपुरा से मशहूर सोशलिस्ट नेता भूपेंद्र नारायण मंडल चुनाव लड़ रहे थे. श्रीकृष्ण सिंह उनके खिलाफ पढ़ा लिखा उम्मीदवार तलाश रहे थे, जो मंडल की जाति का हो और उन्हें मात दे सके. तब किसी ने भूपेंद्र नारायण का नाम सुझाया. उन्हें कांग्रेस का टिकट मिला और वह जीत भी गए. 1957 के चुनाव में ये बिसात उलट गई. इस दफा निर्दलीय लड़े भूपेंद्र नारायण मंडल ने बीपी मंडल को हरा दिया. पांच साल बाद बीपी फिर विधायक हो गए. इस दफा टर्म पूरा होने से पहले उन्होंने पार्टी भी बदल ली. लोकसभा चुनाव से ठीक पहले बीपी मंडल ने डॉ. राम मनोहर लोहिया के नेतृत्व वाली संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी यानी संसोपा ज्वाइन कर ली. चुनाव में इसी पार्टी के टिकट पर मंडल मधेपुरा से लोकसभा के लिए चुन लिए गए. लेकिन कुछ ही वक्त उनका लोहिया से झगड़ा हो गया.
इस झगड़े की बुनियाद थी संसोपा की नियमावली और मंडल की महात्वाकांक्षा. संसोपा का पार्टी संविधान कहता है कि प्रदेश अध्यक्ष, सांसद और विधान परिषद के सदस्यों को राज्य सरकारों में कोई पद नहीं दिया जायेगा. इस पीछे लोहिया का तर्क था कि एक सांसद यदि राज्य सरकार में जायेगा तो उसकी सीट पर उपचुनाव कराना पड़ेगा. एक व्यक्ति की पदलोलुपता के कारण देश पर बेवजह आर्थिक बोझ पड़ेगा. उनका यह भी मानना था कि विधान परिषद और राज्यसभा वालों को जनसरोकारों की उतनी चिंता नहीं होती इसलिए उन्हें भी मंत्रिमंडल में नहीं होना चाहिए, जबकि प्रदेश अध्यक्ष को अपने सांगठनिक दायित्व पर फोकस करना चाहिए.
Bindheshwariprasad Mandal
बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल का राम मनोहर लोहिया से कुछ दिनों तक खटपट रहा था.


ये तो हुआ कायदा, अब बात फौरी हकीकत की. मंडल चुनाव जीत सांसद बने. लोकसभा के साथ ही सूबे में विधानसभा चुनाव हुए. इसमें कांग्रेस हारी और विपक्षी पार्टियों ने महामाया प्रसाद सिन्हा के नेतृत्व में संविद सरकार बनाई. इस सरकार में संसोपा भी शामिल हुई. कई विधायक मंत्री बने. बीपी मंडल भी सांसद होते हुए मंत्री बन गए. हेल्थ मिनिस्ट्री ले लिए. और ये सब जब हुआ तो लोहिया क्या कर रहे थे. वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर के मुताबिक-
1967 का चुनाव संपन्न होने के बाद लोहिया केरल चले गए थे. उस वक्त आज जैसे संचार माध्यम नहीं थे जिससे कोई भी सूचना तत्काल कहीं भी पहुंचाई जा सके. जब लोहिया दिल्ली लौटे तब उन्हें पता चला कि मधेपुरा के सांसद बीपी मंडल बिहार सरकार में मंत्री बन गए हैं और अब मंत्रि पद बचाने के लिए पिछले दरवाजे (यानी विधान परिषद के रास्ते) से बिहार विधान मंडल का सदस्य बनना चाहता है. इसनपर लोहिया ने सख्त आपत्ति दर्ज कराई और मंडल को विधान परिषद भेजे जाने के खिलाफ खड़े हो गए. नतीजतन बीपी मंडल को छह महीने के अंदर इस्तीफा देना पड़ा. लेकिन पद छोड़ते छोड़ते बीपी मंडल ने लोहिया और संसोपा के खिलाफ एक गांठ बांध ली.
एक पार्टी का बागी, दूसरी पार्टी के बागी से निपटा
मुख्यमंत्री सीरीज के पिछले यानी सतीश प्रसाद सिंह वाले ऐपिसोड में हमने आपको महामाया सरकार के गिरने, संसोपा के विधायकों के एक गुट के बीपी मंडल के नेतृत्व में टूटने और फिर त्रिवेणी फॉर्मूले के तहत सतीश के सीएम बनने की कहानी सुनाई थी. ये भी जिक्र हुआ था कि 3 दिन के सीएम सतीश का टास्क क्या था. बीपी मंडल को विधान परिषद में मनोनीत करने की सिफारिश करना, ताकि वो फिर सीएम की शपथ ले सकें. इस पूरी प्लॉटिंग में कांग्रेस का बाहर से सहयोग था. इसमें ईजाफा करते हुए पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेसी नेता केबी सहाय के करीबी और विधान परिषद के मनोनीत सदस्य परमानंद सहाय ने अपनी विधायकी से इस्तीफा दे दिया. और फिर इसी सीट पर बीपी मंडल का मनोनयन हो गया. सतीश प्रसाद सिंह ने उनके लिए 30 जनवरी 1968 को कुर्सी छोड़ी और दो रोज बाद 1 फरवरी को बीपी मंडल मुख्यमंत्री बन गए.
कुछ ही दिनों बाद जहानाबाद, सीवान, मुजफ्फरपुर और हाजीपुर में साम्प्रदायिक हिंसा शुरू हो गई. इससे निबटने में मंडल सरकार बुरी तरह विफल रही. उधर कांग्रेस के अंदर भी मंडल सरकार को समर्थन देने के मुद्दे पर खींचतान चल रही थी. पार्टी के इस फैसले से नाराज एंटी केबी सहाय गुट के सरगना पूर्व मुख्यमंत्री विनोदानंद झा के नेतृत्व में 17 विधायकों ने बगावत कर दी. लोकतांत्रिक कांग्रेस के नाम से एक अलग गुट बना लिया और मंडल सरकार से समर्थन वापस ले लिया. महज एक महीने पुरानी बीपी मंडल सरकार को इस्तीफा देना पड़ा और नई जोड़ तोड़ में इस लोकतांत्रिक कांग्रेस खेमे के विधायक भोला पासवान शास्त्री विपक्षी विधायकों के सहयोग से मंत्री बन गए.
सत्ता जाते ही बीपी मंडल ने चुनाव की तैयारी शुरू कर दी. विधानसभा का नहीं, उसमें तो अभी वक्त था. मधेपुरा लोकसभा का, जहां उनके इस्तीफे के चलते उपचुनाव होना था. बीपी मंडल फिर मैदान में थे, इस दफा निर्दलीय. वो चुनाव जीतने में सफल रहे. मगर दो साल बाद ये सांसदी रिवाइव नहीं हो पाई. 1971 की इंदिरा लहर में मंडल को कांग्रेस (रिक्विजिशनिस्ट) के राजेन्द्र प्रसाद यादव के हाथों हार गए. 1977 में पोस्ट इमरजेंसी चुनाव और जनता पार्टी की लहर के बीच बीपी मंडल ने फिर कांग्रेस से ये सीट छीन ली और पहुंच गए दिल्ली.
Bindheshwari Prasadmandal
1 फ़रवरी 1968 को मुख्यमंत्री बने थे बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल.


आखिरी कलाम और अमर होने की तैयारी
आपने इस किस्से की शुरुआत में मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होने की कहानी जानी थी. अब आयोग के बनने की कहानी सुनिए. कांग्रेस के मुकाबले विपक्षी दलों की गोलबंदी में समाजवादी दलों की खूब भूमिका थी. ये दल दलितों के साथ साथ पिछड़ों के अधिकारों की बात करते थे. उनके नेतृत्व की बात करते थे. और बात करते थे कि सरकारी अमले में उनकी मौजूदगी कितनी कम है. 1977 के लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी के टिकट पर पिछड़ा वर्ग के कई नेता चुनाव जीते. सरकार बनी मोरार जी देसाई की. फिर देसाई सरकार ने कांग्रेसी सरकारों को भंग कर चुनाव करवाए विधानसभाओं के. इसमें भी जनता पार्टी जीती. बिहार में सरकार बनी कर्पूरी ठाकुर की. और कर्पूरी ने अगले ही बरस बिहार की सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्ग के लिए 20 फीसदी आरक्षण का कानून बना दिया. इसके बाद केन्द्रीय सेवाओं में भी पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण के प्रावधान की मांग उठने लगी.
ये विषय नेहरू के समय भी आया था. 1953 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की सरकार ने पिछड़े वर्गों के लिए काका कालेलकर आयोग बनाया था. लेकिन इसकी सिफारिशें लागू नहीं की गई थीं. कालेलकर आयोग की रिपोर्ट में एक खामी यह थी कि उसमें सिर्फ हिन्दुओं में ही पिछड़ेपन की पहचान की गई थी, बाकी धर्म छूटे थे. इन्हीं सब परिस्थितियों को देखते हुए 20 दिसंबर 1978 को मोरारजी देसाई की सरकार ने मधेपुरा सांसद बीपी मंडल की अध्यक्षता में एक पिछड़ा वर्ग आयोग के गठन की अधिसूचना जारी की. इसे मंडल आयोग कहा गया. जनवरी 1979 में मंडल आयोग ने अपना काम शुरू किया. कुछ ही महीनों के बाद जुलाई 1979 में मोरारजी देसाई की सरकार गिरा दी गई और तब जनता पार्टी से टूटकर बनी जनता पार्टी (सेक्युलर) की चौधरी चरण सिंह की सरकार ने सत्ता संभाली लेकिन कुछ ही हफ्तों में यह सरकार भी चली गई और मध्यावधि चुनाव हो गए. इस मध्यावधि चुनाव में बी पी मंडल एक बार फिर जनता पार्टी (चरण सिंह-राजनारायण गुट वाली नहीं बल्कि चंद्रशेखर और जगजीवन राम वाली) के उम्मीदवार बने लेकिन इस बार वे तीसरे स्थान पर खिसक गए. उन्हें हराया कांग्रेस (उर्स) के राजेन्द्र प्रसाद यादव ने. वही राजेन्द्र प्रसाद यादव जिन्होंने उन्हें 1971 में भी हराया था.
वैसे इस चुनाव में इन्दिरा गांधी की सत्ता में वापसी हो गई थी. दिसंबर 1980 में मंडल आयोग ने अपनी रिपोर्ट तत्कालीन गृह मंत्री ज्ञानी जैल सिंह को सौंपी. इस रिपोर्ट में सभी धर्मों के पिछड़े वर्ग की साढ़े तीन हजार से भी ज्यादा जातियों की पहचान की गई और उन्हें सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में 27 प्रतिशत आरक्षण देने की सिफारिश की गई. मंडल की रिपोर्ट इंदिरा और राजीव राज में धूल फांकती रही. वीपी सिंह राज में, जब प्रधानमंत्री पर पार्टी के दूसरे गुटों और बाहर से समर्थन दे रही और कमंडल की राजनीति कर रही भाजपा का दबाव बढ़ा, तो उन्होंने धूल झाड़ दी और बन गए सामाजिक न्याय के मसीहा.
और बीपी मंडल. उनका तो रिपोर्ट सबमिशन के 16 महीने बाद पटना में निधन हो गया था. दशकों बाद उनके बेटे मनींद्र कुमार मंडल 2005 में दो दफा जेडीयू से विधायक बने और पोते निखिल मंडल उसी मधेपुरा से मैदान में हैं, जहां से दादा की सियासत शुरू हुई थी.

thumbnail

Advertisement