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क्या दुबले लोगों को कभी हाई कोलेस्ट्रॉल नहीं होता? सच जान लीजिए

चाहे वज़न बढ़ा हो या कम हो. फिट ही क्यों न हों. हर 6 महीने-सालभर में अपना कोलेस्ट्रॉल चेक कराना बहुत ज़रूरी है.

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can you be slim and still have high cholesterol
हाई कोलेस्ट्रॉल हमारे देश में एक बहुत बड़ी समस्या है
17 दिसंबर 2025 (Published: 04:27 PM IST)
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हाई कोलेस्ट्रॉल होना खतरनाक है. ये नहीं होना चाहिए. ये बात सब जानते हैं. इसके बावजूद, हाई कोलेस्ट्रॉल हमारे देश में एक बहुत बड़ी समस्या है. अब नॉर्मल कोलेस्ट्रॉल लेवल को मेडिकल भाषा में ‘डिस्लिपिडेमिया’ कहते हैं. ये बीमारी चुपके से आती है और दिल को घेर लेती है. नसों में ब्लॉकेज और हार्ट अटैक के पीछे इसका बड़ा हाथ है.

ICMR–INDIAB के डेटा के मुताबिक, भारत में 81.2% लोगों को हाई कोलेस्ट्रॉल की समस्या है. इसके बाद भी लोग हाई कोलेस्ट्रॉल यानी डिस्लिपिडेमिया को सीरियसली नहीं लेते. न डॉक्टर को दिखाते हैं. न दवाएं खाते हैं.

अच्छी बात ये है कि इस साइलेंट किलर को 100% ठीक किया जा सकता है. बस आपको सही तरीका पता होना चाहिए, जो हम बताएंगे आज.

हमारे पहले एक्सपर्ट हैं- डॉक्टर अनिरुद्ध व्यास, कंसल्टेंट, इलेक्ट्रोफिज़ियोलॉजी, पेसिंग एंड इंटरवेंशनल कार्डियोलॉजी, विशेष ज़्यूपिटर हॉस्पिटल, इंदौर.

हमारे दूसरे एक्सपर्ट हैं- डॉक्टर प्रवीण गोयल, डायरेक्टर, इंटरवेंशनल कार्डियोलॉजिस्ट, मेदांता हार्ट इंस्टीट्यूट, लखनऊ.

हमारे तीसरे एक्सपर्ट हैं- डॉक्टर सुशांत कुमार पाठक, सीनियर कंसल्टेंट कार्डियोलॉजिस्ट, फोर्ड हॉस्पिटल, पटना.

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डॉक्टर प्रवीण गोयल, डॉक्टर अनिरुद्ध व्यास, डॉक्टर सुशांत कुमार पाठक
क्या होता है डिस्लिपिडेमिया?

हमारे शरीर में लिपोप्रोटीन होते हैं. ये शरीर में कई ज़रूरी काम करते हैं. अगर लिपोप्रोटीन का लेवल बहुत ज़्यादा बढ़ जाए या कम हो जाए. तब इस कंडीशन को मेडिकल भाषा में डिस्लिपिडेमिया कहा जाता है. 

हाई ब्लड प्रेशर और डायबिटीज़ के साथ-साथ डिस्लिपिडेमिया भी हार्ट अटैक का एक बड़ा रिस्क फैक्टर है. स्टडीज़ में पाया गया है कि जिन लोगों का LDL (लो-डेंसिटी लिपोप्रोटीन) बढ़ा रहता है, उनमें हार्ट अटैक का ख़तरा ज़्यादा होता है. यानी डिस्लिपिडेमिया हार्ट अटैक का कारण नहीं, बल्कि रिस्क बढ़ाने वाला फैक्टर है. अगर शरीर में लिपोप्रोटीन या लिपिड्स का लेवल बढ़ा हुआ है, तो हार्ट अटैक का रिस्क भी बढ़ जाता है. लेकिन, इसका मतलब ये नहीं कि जिसे डिस्लिपिडेमिया है, उसे हार्ट अटैक ज़रूर होगा. ये भी ज़रूरी नहीं है कि जिसे डिस्लिपिडेमिया नहीं है, वो हार्ट अटैक से एकदम सेफ है.

शरीर में लिपिड्स का लेवल हमारी डाइट से जुड़ा होता है. इनका संबंध हमारे जीन्स (जेनेटिक्स) से भी होता है. जेनेटिक वजहों से भारत में डिस्लिपिडेमिया के मामले ज़्यादा देखे जाते हैं. हमारे देश में हार्ट अटैक के बढ़ते मामलों में इसका भी हाथ है. इसलिए लिपिड्स का लेवल सामान्य करना बहुत ज़रूरी है. हाई बीपी और डायबिटीज़ की तरह हमें अपने लिपिड लेवल्स की भी जानकारी होनी चाहिए

कोलेस्ट्रॉल एक तरह का अंब्रेला टर्म है. इसमें लो-डेंसिटी लिपोप्रोटीन, हाई-डेंसिटी लिपोप्रोटीन और वेरी लो-डेंसिटी लिपोप्रोटीन जैसे सभी लिपोप्रोटीन शामिल होते हैं. जब इनके लेवल्स बिगड़ जाते हैं, तो बोलचाल में इसे कोलेस्ट्रॉल बढ़ना कहा जाता है. हाई कोलेस्ट्रॉल लेवल दिल से जुड़ी बीमारियों का एक बड़ा रिस्क फैक्टर है. इसलिए बढ़े हुए कोलेस्ट्रॉल को कंट्रोल करना ज़रूरी है. चाहे वो लाइफस्टाइल बदलकर, खानपान सुधारकर, एक्सरसाइज से या ज़रूरत पड़ने पर दवाइयों से किया जाए.

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कोलेस्ट्रॉल बढ़ने से खून का फ्लो घटने लगता है (फोटो: Freepik)
कोलेस्ट्रॉल को लेकर इतनी लापरवाही क्यों?

जब कोलेस्ट्रॉल हाई होता है, तो उसके लेवल से अंदाज़ा लगा सकते हैं कि दिल की बीमारियों का रिस्क कितना है. दिल की बीमारियों का रिस्क जितना ज़्यादा होगा और जितने लंबे समय तक रहेगा, ख़तरा उतना ही बढ़ता जाएगा. अगर किसी व्यक्ति का कोलेस्ट्रॉल 20 साल की उम्र से बढ़ना शुरू हुआ. तब आने वाले कुछ सालों में उसे दिल की बीमारियों का रिस्क ज़्यादा होगा. खास उस व्यक्ति के मुकाबले, जिसका कोलेस्ट्रॉल 50 साल की उम्र के बाद बढ़ना शुरू होता है. इसलिए हाई कोलेस्ट्रॉल को हल्के में नहीं लेना चाहिए.

दुबले लोगों का कोलेस्ट्रॉल नॉर्मल होता है?

ऐसा नहीं है कि सिर्फ ओबीज़ लोगों को ही डिस्लिपिडेमिया होता है. ये ज़रूर है कि ओबीज़ लोगों को डिस्लिपिडेमिया होने का रिस्क ज़्यादा होता है. लेकिन दुबले लोगों को भी डिस्लिपिडेमिया हो सकता है. अगर किसी दुबले व्यक्ति का लाइफस्टाइल हेल्दी नहीं है. वो आलसी है, सिगरेट-शराब पीता है. उसे हाइपरटेंशन (हाई बीपी) या डायबिटीज़ है. तब दुबले व्यक्ति में भी डिस्लिपिडेमिया देखा जाता है. अगर घर में किसी को डिस्लिपिडेमिया है, तो भी इसके होने का चांस बढ़ सकता है. 

शरीर में किस तरह का फैट जमा है, ये जानना ज़्यादा ज़रूरी है. जैसे विसरल फैट, यानी वो फैट जो पेट के अंदर अंगों के आसपास जमा होता है. विसरल फैट का डिस्लिपिडेमिया से नॉर्मल मोटापे की तुलना में ज़्यादा संबंध है. इसलिए, विसरल फैट का सही अंदाज़ा लगाने के लिए इमेजिंग टेस्ट करवाना चाहिए. 

आमतौर पर कुछ लोगों में रिस्क फैक्टर ज़्यादा होते हैं. जैसे हाई ब्लड प्रेशर, डायबिटीज़ के मरीज़, बहुत ज़्यादा नॉन-वेज या रेड मीट खाने वाले, शराब-सिगरेट पीने वाले. इनमें आमतौर पर डिस्लिपिडेमिया पाया जाता है. इसलिए, ऐसे लोगों को रेगुलर हेल्थ चेकअप करवाना चाहिए.

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किसी को भी हाई कोलेस्ट्रॉल की समस्या हो सकती है (फोटोL Freepik)
हाई कोलेस्ट्रॉल होना ख़तरनाक क्यों?

आजकल लोगों को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है. पहले वो, जिन्हें अपने कोलेस्ट्रॉल की बिल्कुल चिंता नहीं है. हेल्थ चेकअप में उनका कोलेस्ट्रॉल हाई आता है, फिर भी वो परेशान नहीं होते. उन्हें लगता है कि वो फिट हैं, दौड़ लेते हैं इसलिए उन्हें कुछ नहीं होगा. दवाइयों के साइड इफ़ेक्ट का डर लगता है, इसलिए दवा नहीं लेना चाहते. 

दूसरे वो, जो बढ़ा कोलेस्ट्रॉल देखकर घबरा जाते हैं. बातचीत में पता चलता है कि वो अनहेल्दी खाना खाते हैं. रात 1–2 बजे ऑनलाइन फूड डिलीवरी से ऑयली खाना मंगाते हैं. देर रात तक सोशल मीडिया पर एक्टिव रहते हैं. बिल्कुल एक्सरसाइज़ नहीं करते. लेकिन, जैसे ही हाई कोलेस्ट्रॉल पता चलता है, डॉक्टर से तुरंत दवाई मांगते हैं. 

यानी एक तरफ वो लोग हैं जिन्हें हाई कोलेस्ट्रॉल की चिंता नहीं है और न ही दवाइयां लेना चाहते हैं. दूसरी तरफ वो लोग हैं, जो सिर्फ दवा से कोलेस्ट्रॉल ठीक करना चाहते हैं, लेकिन लाइफस्टाइल नहीं बदलते. 

हमारे शरीर में कोलेस्ट्रॉल बनाने का काम लिवर करता है. खून में कोलेस्ट्रॉल के लेवल से अंदाज़ा लगता है कि ऊतक (टिशूज़) कितना कोलेस्ट्रॉल बना रहे हैं जो कोलेस्ट्रॉल लिवर बनाता है और जो खून में मौजूद है, वो सीधे जाकर धमनियों (आर्टरीज़) में जमा नहीं होता. हमारी धमनियां खुद अपना कोलेस्ट्रॉल बनाती हैं, जिससे ब्लॉकेज होता है. जिनका लिवर ज़्यादा कोलेस्ट्रॉल बनाता है, उनके खून में भी ज़्यादा कोलेस्ट्रॉल होता है. ऐसे लोगों की धमनियां ज़्यादा कोलेस्ट्रॉल बना सकती हैं. ये सब जेनेटिक फैक्टर्स पर निर्भर करता है, भले ही उनकी डाइट कैसी भी हो.

इसलिए कोलेस्ट्रॉल कंट्रोल करने के लिए तीन ज़रूरी तरीके हैं. हेल्दी डाइट लें, प्रोसेस्ड कार्बोहाइड्रेट और ट्रांस फैट कम से कम खाएं. रोज़ करीब 45 मिनट से 1 घंटा एक्सरसाइज़ करें. अगर दवाइयों की ज़रूरत है, तो वो लें. इसके बाद रेगुलर फॉलोअप लें कि कोलेस्ट्रॉल कंट्रोल में है या नहीं. दवाइयों की डोज़ बढ़ाने या घटाने का फैसला रिपोर्ट देखकर किया जाता है. सिर्फ दवाई लेने और लाइफस्टाइल न सुधारने से कोलेस्ट्रॉल कंट्रोल नहीं होगा. सिर्फ लाइफस्टाइल पर ध्यान देने और दवा न लेने से भी कोलेस्ट्रॉल कंट्रोल नहीं होगा.

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समय-समय पर अपना कोलेस्ट्रॉल ज़रूर चेक कराएं (फोटो: Freepik)
कोलेस्ट्रॉल चेक करवाना क्यों ज़रूरी?

ज़रूरी नहीं कि मेडिकल रिपोर्ट में सबका कोलेस्ट्रॉल बढ़ा हुआ मिले. कई बार जेनेटिक वजहों से कोलेस्ट्रॉल हाई निकलता है. जैसे पॉलीजेनिक हाइपरकोलेस्ट्रोलेमिया और फैमिलियल हाइपरकोलेस्ट्रोलेमिया में. इन कंडीशंस में कई जीन्स मिलकर या एक जीन डायरेक्टली ट्रांसमिट होकर कोलेस्ट्रॉल बढ़ाते हैं. ऐसे में कोलेस्ट्रॉल पूरे परिवार में हाई पाया जाता है. अगर आपका कोलेस्ट्रॉल हाई है तो अपने पैरेंट्स, भाई-बहन और बच्चों का भी कोलेस्ट्रॉल चेक करवाएं. ऐसे लोगों में कोलेस्ट्रॉल लेवल बहुत ज़्यादा निकलता है. जैसे ट्राइग्लिसराइड्स 300 mg/dL या उससे ज़्यादा. टोटल कोलेस्ट्रॉल 250 mg/dL से ऊपर. ऐसे हाई-लेवल वाले लोग लगभग 10% होते हैं. बाकियों का कोलेस्ट्रॉल मिडिल रेंज में रहता है. लेकिन मिडिल रेंज भी पूरी तरह नॉर्मल नहीं होता. कई लोग सोचते हैं कि 200 mg/dL से नीचे मतलब नॉर्मल है, ऐसा नहीं है. कोलेस्ट्रॉल जितना कम हो, उतना बेहतर है. 

कोलेस्ट्रॉल से होने वाला रिस्क दो चीज़ों पर निर्भर करता है. खून में कितना कोलेस्ट्रॉल है और वो कितने साल तक हाई रहा. नॉर्मल कोलेस्ट्रॉल जैसा कोई फिक्स्ड नंबर नहीं है. जो LDL या कोलेस्ट्रॉल खून में घूम रहा है, उसे लिवर ने एक्स्ट्रा बनाकर बाहर भेजा है. शरीर को इसकी ज़्यादा ज़रूरत नहीं होती. इसलिए, कोलेस्ट्रॉल का लेवल जितना कम हो, उतना बेहतर. ज़्यादातर लोगों का कोलेस्ट्रॉल रिपोर्ट में नॉर्मल रेंज में आएगा. लेकिन अगर बीमारी के हिसाब से देखें तो कोलेस्ट्रॉल जितना कम हो, उतना अच्छा है. अगर वो 'लो' से ऊपर है, तो मतलब रिस्क अभी भी है. इसलिए, कोलेस्ट्रॉल को समझना और रेगुलर चेकअप करवाना ज़रूरी है.

कोलेस्ट्रॉल सुधारने के लिए अपनी डाइट सुधारें. ज़रूरत पड़े तो दवाओं का इस्तेमाल करें, क्योंकि डाइट से कोलेस्ट्रॉल कुछ हद तक ही कम किया जा सकता है.

दिल के मरीज़ों का कोलेस्ट्रॉल कितना होना चाहिए?

भारतीयों में वैसे भी कोलेस्ट्रॉल का लेवल ज़्यादा होता है. भारत को डिस्लिपिडेमिया कैपिटल ऑफ द वर्ल्ड भी कहा जाता है. भारतीयों में ट्राइग्लिसराइड और LDL (बैड कोलेस्ट्रॉल) दोनों ज़्यादा होते हैं. अगर किसी व्यक्ति का LDL 100 mg/dL से ऊपर है, तो ये रिस्क माना जाता है. अगर ट्राइग्लिसराइड 354 mg/dL से ऊपर है, तो ये हाई-रिस्क है. ऐसे लोगों को लाइफस्टाइल बदलने और ज़रूरत पड़ने पर दवा शुरू करने की सलाह दी जाती है. सामान्य व्यक्ति का LDL 100 mg/dL से कम होना चाहिए. अगर किसी मरीज़ को हार्ट अटैक हुआ है, स्टेंट लगा है, या बाईपास हुआ है तो वो हाई-रिस्क कैटेगरी में आता है. हाई-रिस्क मरीज़ों में LDL बहुत कम लेवल पर होना चाहिए. जिन मरीज़ों में स्टेंट नहीं लगा है, लेकिन दिल की बीमारी है, उनमें LDL 70 mg/dL से कम होना चाहिए. जिनको स्टेंट लग चुका है, बाईपास हुआ है या कई स्टेंट लग चुके हैं या जिनके परिवार में दिल की बीमारियों की हिस्ट्री है. साथ में डायबिटीज, हाइपरटेंशन या अन्य हाई-रिस्क बीमारियां भी हैं. उनमें LDL 40–45 mg/dL से भी कम होना चाहिए. 

इसके लिए लाइफस्टाइल में बदलाव करने को कहा जाता है. सिर्फ दवाइयों के सहारे कोलेस्ट्रॉल को पूरी तरह कम नहीं किया जा सकता. इसलिए, लाइफस्टाइल सुधारना बहुत ज़रूरी है. इसके लिए रोज़ एक्सरसाइज़ करें. पैक्ड, प्रोसेस्ड और फ्राइड फूड कम करें. रेड मीट और ज़्यादा नॉनवेज खाने से बचें. सिगरेट और शराब पीना बिल्कुल बंद कर दें. अपनी दवाइयां रेगुलरली लेते रहें. स्ट्रेस कम लें. रोज़ 6 से 8 घंटे की अच्छी नींद लें. स्ट्रेस कम करने के लिए योग कर सकते हैं. अगर स्ट्रेस ज़्यादा है तो साइकोलॉजिस्ट की मदद लें. ज़रूरत पड़ने पर डॉक्टर स्ट्रेस मैनेजमेंट की दवा भी दे सकते हैं.

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ऐसी चीज़ें खाएं जो आपके दिल के लिए अच्छी हैं (फोटो: Freepik)
डिस्लिपिडेमिया में कैसी हो डाइट?

खाना जितना कम प्रोसेस्ड होगा, उतना ही ज़्यादा हेल्दी होगा. ऐसा नहीं है कि आप कुछ खाएं और आपके खून में कोलेस्ट्रॉल लेवल बढ़ जाए. हम जो खाना खाते हैं, वो छोटे-छोटे टुकड़ों में टूटकर खून में एब्ज़ॉर्व होता है. हमारा लिवर कार्बोहाइड्रेट और फैट को प्रोसेस करके कोलेस्ट्रॉल बनाता है. इसलिए, ऐसा नहीं है कि कुछ खाने से कोलस्ट्रॉल बढ़ जाता है. कोई भी डाइट ऐसी नहीं है जिससे कोलेस्ट्रॉल तुरंत बढ़ जाए. ये ज़रूर है कि खाने में कार्बोहाइड्रेट और सैचुरेटेड फैट कम रखें. खासकर प्रोसेस्ड कार्बोहाइड्रेट जैसे चीनी, मैदा, गुड़, मिठाई, आइसक्रीम और व्हाइट ब्रेड. बटर, मेयोनीज़ और चीज़ वगैरह कम खाएं. अगर ये सारी चीज़ें डाइट में कम होंगी, तो कोलेस्ट्रॉल कंट्रोल में आसानी होगी. लेकिन, सिर्फ डाइट से कोलेस्ट्रॉल लेवल कम नहीं किया जा सकता. साथ में एक्सरसाइज़ करना भी ज़रूरी है. 

एक्सरसाइज़ से इंसुलिन सेंसिटिविटी बेहतर होती है. इससे शरीर कार्बोहाइड्रेट को फैट में नहीं बदलता और आप फिट और हेल्दी रहते हैं. हेल्दी डाइट और एक्सरसाइज़ से ही कोलेस्ट्रॉल कंट्रोल किया जा सकता है. दवाइयों का अपना अलग रोल है. जिन लोगों में दिल की बीमारियों का रिस्क है या कोलेस्ट्रॉल बहुत ज़्यादा है, वो दवाइयां भी लें. नियमित, संतुलित और नियंत्रित आदतें कोलेस्ट्रॉल और दिल की बीमारियों से बचाती हैं. इसमें शामिल हैं आहार और व्यवहार. इसके बाद है विहार यानी एक्सरसाइज़. आपको बहुत ज़्यादा एक्सरसाइज़ करने की ज़रूरत नहीं है. बस रोज़ थोड़ी देर हल्की एक्सरसाइज़ करना भी काफी है. फिर है विचार और आचार. ये पांचों चीजें मिलकर शरीर और दिमाग को हेल्दी रखती हैं और कोलेस्ट्रॉल भी कम करती हैं.

कोलेस्ट्रॉल की दवाएं बीच में क्यों रोक देते हैं मरीज़?

आजकल कोलेस्ट्रॉल कम करने की बहुत अच्छी दवाएं मौजूद हैं. इन दवाओं से कोलेस्ट्रॉल जल्दी कम हो जाता है. इंजेक्शन से दी जाने वाली कुछ दवाओं से हफ्तेभर में ही कोलेस्ट्रॉल कम हो जाता है. जो ओरल दवाएं हैं जैसे स्टैटिन्स, इनसे 3 हफ्तों में कोलेस्ट्रॉल कम हो जाता है. जब रिपोर्ट में लेवल कम दिखता है, तो कई मरीज सोचते हैं अब कोलेस्ट्रॉल ठीक हो गया, दवा बंद कर देनी चाहिए. इसी सोच की वजह से लोग दवा बीच में ही छोड़ देते हैं. उन्हें ये नहीं पता होता कि ये एक मेटाबॉलिक प्रॉब्लम है यानी मेटाबॉलिज़्म से जुड़ी हुई. दवा बंद करते ही कोलेस्ट्रॉल फिर अपने पुराने लेवल पर वापिस आ जाएगा. जैसे हर व्यक्ति का एक बेसल ब्लड प्रेशर होता है, वैसे ही हर किसी का एक बेसल कोलेस्ट्रॉल लेवल भी होता है. दवा बंद करेंगे तो कुछ ही समय में लेवल वापस वहीं पहुंच जाएगा.

कुछ लोग दवा इसलिए छोड़ते हैं क्योंकि वो बिना दवा के इलाज करना चाहते हैं. बिना दवा के आप सिर्फ 15% के करीब कोलेस्ट्रॉल कम कर सकते हैं, उससे ज्यादा नहीं. बाकी कोलेस्ट्रॉल दवाओं से ही कम हो सकता है. इन दवाओं के भी कोई खास साइड इफेक्ट्स नहीं होते. केवल 2–5% लोगों की मांसपेशियों में हल्का दर्द या दूसरे छोटे साइड इफेक्ट महसूस हो सकते हैं. ऐसे मामलों में दवा बदलना या विकल्प देखना ठीक है. लेकिन अगर कोई दिक्कत नहीं है, तो दवा बंद नहीं करनी चाहिए. दवा बंद करने का मुख्य कारण यही है कि दवा बहुत असरदार है. हाई कोलेस्ट्रॉल के कोई लक्षण भी नहीं होते, इसलिए मरीज सोच लेते हैं कि जब लक्षण नहीं हैं, तो दवा क्यों लें. कोलेस्ट्रॉल का लेवल कम देखकर दवा रोकना एक बहुत बड़ी गलती है. कोलेस्ट्रॉल को रेगुलर मेंटेन करने के लिए दवा लगातार चलती रहनी चाहिए.

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कोलेस्ट्रॉल की दवा बीच में न रोकें (फोटो: Freepik)
स्टैटिन दवा बीच में रोकने के नुकसान?

कोलेस्ट्रॉल का कोई डायरेक्ट लक्षण नहीं होता. कोलेस्ट्रॉल धमनियों में जमकर ब्लॉकेज पैदा करता है. अगर ये दिल की नसों में जमे तो हार्ट अटैक हो सकता है. दिमाग की नसों में जमे तो स्ट्रोक हो सकता है. हाथ–पैर की नसों में जमे तो वहां कालापन आ सकता है. चलते वक्त या काम करते हुए हाथ-पैरों में दर्द हो सकता है. ये जिस अंग में जमा होता है, उस अंग से जुड़े लक्षण दिखते हैं. जब आप कोलेस्ट्रॉल का इलाज लेते हैं, तो दवाएं अनस्टेबल प्लाक को स्टेबल बनाती हैं. एक्सरसाइज़ और लाइफस्टाइल में बदलाव से भी धमनियों में जमा अनस्टेबल प्लाक स्टेबल होता है. इससे प्लाक को फटने से रोका भी जा सकता है. अचानक हार्ट अटैक या स्ट्रोक का ख़तरा भी कम होता है. 

जब मरीज़ दवाएं बीच में रोक देते हैं, तो कोलेस्ट्रॉल फिर से बढ़ने लगता है. ये ख़तरनाक है क्योंकि LDL का ऊपर–नीचे होना, प्लाक को फिर से अनस्टेबल कर सकता है. जैसे अगर किसी का LDL 50-60 mg/dL है, तो दवा बंद करने के बाद वो 70–80 mg/dL पहुंच सकता है. ऐसा होने पर पहले से स्टेबल प्लाक फिर अनस्टेबल होकर फट सकता है. इससे अचानक हार्ट अटैक या स्ट्रोक पड़ सकता है. मरीज़ को समझाना बहुत ज़रूरी है कि अगर स्टेंट लगने के बाद कोलेस्ट्रॉल लेवल नॉर्मल हो जाए, तब भी दवा बंद न करें क्योंकि, शरीर की बाकी नसों में छोटे-छोटे प्लाक्स रह जाते हैं. कोलेस्ट्रॉल की दवा प्लाक्स को स्टेबल रखती है ताकि दोबारा हार्ट अटैक या दिल से जुड़ी कोई दूसरी दिक्कत न हो. 

दवा का प्लियोट्रॉपिक इफेक्ट भी होता है यानी ये सिर्फ LDL कम नहीं करती, कई और फायदे भी पहुंचाती है. मरीज़ की काउंसलिंग करना बहुत ज़रूरी है कि जब कोलेस्ट्रॉल लेवल नॉर्मल हो जाए. तब डॉक्टर की सलाह लेकर डोज़ धीरे-धीरे एडजस्ट करें. एंजियोप्लास्टी या बाईपास के बाद शुरुआत में हाई डोज दी जाती है. बाद में डॉक्टर LDL का लेवल देखकर डोज़ कम करते हैं. लेकिन, अगर कम डोज़ से LDL फिर बढ़े, तो डोज़ दोबारा बढ़ानी पड़ती है. वरना कोलेस्ट्रॉल फिर हाई हो जाएगा. प्लाक्स अनस्टेबल होंगे और हार्ट अटैक या स्ट्रोक भी हो सकता है.

डिस्लिपिडेमिया के साथ डायबिटीज़, हाई बीपी कितना ख़तरनाक?

जितने ज़्यादा रिस्क फैक्टर्स किसी व्यक्ति के शरीर में होते हैं, बीमारी का रिस्क उतना ही बढ़ जाता है. हाई ब्लड प्रेशर अपने आप में दिल की बीमारियों का एक बड़ा रिस्क फैक्टर है. डायबिटीज़ भी अपने आप में एक अलग रिस्क फैक्टर है. डिस्लिपिडेमिया भी खुद में एक बड़ा रिस्क फैक्टर है. अगर ये तीनों एक साथ हों, तो उस व्यक्ति का ओवरऑल रिस्क और बढ़ जाता है. ज़रूरी नहीं कि रिस्क तीन गुना हो जाए क्योंकि ये रिस्क फैक्टर्स हैं, सीधे कारण नहीं. कई लोगों ये तीनों होते हैं, फिर भी एंजियोप्लास्टी की रिपोर्ट नॉर्मल आती है, लेकिन ये अपवाद है. यानी ऐसा नहीं है कि ये रिस्क फैक्टर्स होने से रिस्क सीधा तीन गुना हो जाता है, लेकिन रिस्क बढ़ता ज़रूर है. ये समझना ज़्यादा ज़रूरी है कि अगर ये तीनों साथ हों तो क्या करें?

डाइट, लाइफस्टाइल, एक्सरसाइज़ और दवाइयों को और ज़्यादा सख्ती से फॉलो करना चाहिए. ये तीनों बीमारियां अक्सर अनुवांशिक भी होती हैं, इसलिए परिवारों में चलती हैं. इसलिए घर में हेल्दी खान-पान का माहौल होना ज़रूरी है. बच्चों को शुरू से आदत डालें कि रोज़ सलाद, फल और स्प्राउट्स खाना हेल्दी है, ये टेस्टी भी होते हैं. उन्हें जंक फूड जैसे बर्गर और पिज़्ज़ा इनाम की तरह न दें. इसकी जगह इनाम के तौर पर सलाद, फल और प्रोटीन से भरपूर चीज़ें खिलाएं. ऐसा करके परिवार में चलने वाले इन रिस्क फैक्टर्स को काफी हद तक कंट्रोल किया जा सकता है. 

एक मेडिकल टर्म है मेटाबॉलिक सिंड्रोम या सिंड्रोम X. इसमें डायबिटीज़, हाई बीपी, डिस्लिपिडेमिया के साथ ओबेसिटी भी शामिल है. ये बीमारियां साथ में चलती हैं और दिल की बीमारियों को गंभीर बना देती हैं, खासकर युवाओं में. इसलिए, जिन्हें तीनों रिस्क फैक्टर एक साथ हैं, उनकी अप्रोच इस तरह की होनी चाहिए.

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कोलेस्ट्रॉल के मरीज़ों के लिए एक्सरसाइज़ करना बहुत ज़रूरी है (फोटो: Freepik)
लाइफस्टाइल में किस तरह के बदलाव ज़रूरी?

कोलेस्ट्रॉल सिर्फ जानवरों से मिलने वाले प्रोडक्ट्स में होता है. पौधों से मिलने वाली चीज़ों में कोलेस्ट्रॉल नहीं होता. कोलेस्ट्रॉल सीधा खून में नहीं बढ़ता. ये लिवर में प्रोसेस होता है और फिर खून में आता है. इसलिए पहले डाइट से कोलेस्ट्रॉल कंट्रोल करें. इसके लिए नॉन-वेजिटेरियन फूड्स कम खाएं. तली हुई, खासकर दोबारा फ्राई हुई चीज़ें नहीं खानी चाहिए. इससे फैट धमनियों में जमा हो सकता है. इसे ऑक्सीडाइज़्ड फैट या ऑक्सीडाइज़्ड LDL भी कहते हैं.

साथ ही, रोज़ एक्सरसाइज़ करना भी ज़रूरी है. इससे ट्राइग्लिसराइड्स और ब्लड शुगर दोनों कम होते हैं. फ्री शुगर यानी एडेड शुगर नहीं लेनी चाहिए. चीनी, आलू, चावल और मीठी चीज़ें शरीर में जाकर ट्राइग्लिसराइड्स में बदलती हैं. LDL और कोलेस्ट्रॉल के अलावा, ट्राइग्लिसराइड्स भी दिल के लिए नुकसानदेह हैं. इसलिए शुगर न खाएं. प्रोसेस्ड फूड और नमक भी कम लें. ताज़े फल और सब्ज़ियां ज़्यादा खाएं. इनसे मिलने वाला फाइबर कोलेस्ट्रॉल और लिपिड्स को कम करने में मदद करता है. स्मोकिंग और तंबाकू से दूर रहें. डायबिटीज़ और ब्लड प्रेशर को कंट्रोल में रखें. ऐसा करके कोलेस्ट्रॉल को कंट्रोल कर सकते हैं.

कोलेस्ट्रॉल कंट्रोल में रखने की टिप्स

- रोज़ आधा-एक घंटा मॉडरेट एक्सरसाइज़ करें.

- जैसे टहलना, बीच-बीच में तेज़ कदमों से भी चलें.

- योग भी करें.

- सही खानपान बहुत ज़रूरी है.

- प्रोसेस्ड फूड, पैकेज्ड स्नैक्स और चिप्स वगैरह कम खाएं.

- नॉन-वेज भी कम खाएं, इससे लिपिड लेवल कंट्रोल में रहता है.

- डाइट में हरी पत्तेदार सब्ज़ियां और ताज़े फल शामिल करें.

- रोज़ 6 से 8 घंटे की अच्छी नींद लें ताकि स्ट्रेस कम हो.

- स्ट्रेस घटाने के लिए योग कर सकते हैं या किसी काउंसलर की मदद ले सकते हैं.

- अगर हाइपोथायरॉयडिज़्म, डायबिटीज़, हाइपरटेंशन जैसा कोई रिस्क फैक्टर है, तो उसका इलाज कराएं.

- ऐसा करके कोलेस्ट्रॉल और दिल की बीमारियों का रिस्क कम कर सकते हैं.

(यहां बताई गई बातें, इलाज के तरीके और खुराक की जो सलाह दी जाती है, वो विशेषज्ञों के अनुभव पर आधारित है. किसी भी सलाह को अमल में लाने से पहले अपने डॉक्टर से ज़रूर पूछें. दी लल्लनटॉप आपको अपने आप दवाइयां लेने की सलाह नहीं देता.)

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