वासेपुर निवासी प्रातः स्मरणीय और फैजल की गोली से स्वर्ग पहुंचे श्री रामाधीर सिंह के शब्दों में कहूं तो, जब तक हिंदुस्तान में सनीमा है, लोग चू*या बनते रहेंगे. तो उनके हिसाब से तो ये लोगों को चू*यम सल्फेट बनाने का जरिया है.
मगर मेरे ख्याल से बॉलीवुड घर के पीछे वाला वो बगीचा है, जिसका एक सिरा नदी पर, दूसरा पुराने किले के खंडहर पर, तीसरा शहर को जाती सड़क पर और चौथा खेत में खुलता है. इसमें बीहड़ जंगल हैं, भड़भड़ियां हैं, पानी के कुछ सोते हैं. कीचड़ में लोरते जानवर हैं. ताश खेलते सुस्ताते लोग हैं. कुछ पुरानी मैगजीन हैं, जिनके पन्ने पीले पड़ चुके हैं. इनमें अधूरी कहानियां हैं. जिनका एक सिरा हम रात को सोते वक्त हर बार अलग ढंग से पूरा करते हैं.
बॉलीवुड लाल रंग का वो डिब्बा है, जो सबके अपने चौराहों पर वीरान सा टंगा है. हम हर बार एक पोस्टकार्ड लिखते हैं. उसमें कुछ ख्वाहिशें पोत देते हैं. और फिर चुपके से इसे डब्बे में डाल आते हैं.
हम किसी को नहीं बताते कि जब गोविंदा ने करिश्मा को बांहों में भरा था, तब वो वो नहीं था, हम बक्सर के लल्लन थे. हम नहीं बताते कि जब मलिक यानी अजय देवगन अपनी कंपनी के जरिए मुंबई पर राज करने लगता है, तब उसकी आंखों की वो सांवली चमक उसकी नहीं उरई के सिब्बू की होती है. करोल बाग का आर्यन किसी को नहीं बताता कि उसने अपनी सिमरन को कितनी बार डिलाइट सिनेमा को सरसों के खेत में तब्दील कर बांहों में उतारा है. मेंडोलियन नहीं सीखा पर सीटी बजाना सीख लिया है.
बॉलीवुड हमारी जेब में रखा वो कंचा है, जो हमें ही सबसे सुंदर दिखता है.
बॉलीवुड किस्सों का एक कुंआ है, जिसमें हम कभी पत्थर फेंकते हैं तो कभी पत्ती, मगर पंप चलाते ही भक भक कर पानी निकलने लगता है.