फैज़ के नाम पर कपड़े बेचने वालों, जनता माफ नहीं करेगी
Jabong के नए ऐड में यूज की गई इंकलाबी शायर फैज अहमद फैज की एक लाइन. ख़फा हुए मुरीद. कम्बख़्त मार्केट!
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फोटो - thelallantop

हाय रे! मर गए फ़ैज़ कैपिटलिज्म और बाजारवाद के खिलाफ लिख-लिखकर. लेकिन कम्बख्त मार्केट ने उन्हीं की लाइन को पंचलाइन बना डाला. इसी बात से फैज़ के मुरीद ख़फा हैं. कह रहे हैं कि ये तो फैज की नज्म का ये शॉपिंग-ऑपिंग से क्या लेना देना.मिसाल देखें.



''ऐसा ही साहसिक प्रयोग तब इंडियन ओशन ने किया था. गोरख पांडेय के गीत 'हिल्लेले झकझोर दुनिया' को सौखीन जगत में पेश करते हुए वो कहते थे कि "दिस सॉन्ग वाज़ रिटेन समव्हेयर इन प्री इंडिपेंडेंस एन्ड इट इज़ अ बुंदेलखण्डी सॉन्ग etc" . "ऐंड यू नो एवरीथिंग इज़ हिलिंग इन इट :)" वो कहते थे.''https://www.youtube.com/watch?v=R0S1ySKXrzU
पहले इस नज़्म को पूरा पढ़ लें, समझ लें.
आज बाज़ार में पा-ब-जौला चलोचश्म-ए-नम जान-ए-शोरीदा काफी नहीं तोहमत-ए-इश्क़ पोशीदा काफी नहीं आज बाज़ार में पा-ब-जौला चलोदस्त-अफ्शां चलो, मस्त-ओ-रक़्सां चलो खाक-बर-सर चलो, खूं-ब-दामां चलो राह तकता है सब शहर-ए-जानां चलोहाकिम-ए-शहर भी, मजमा-ए-आम भी तीर-ए-इल्ज़ाम भी, संग-ए-दुश्नाम भी सुबह-ए-नाशाद भी, रोज़-ए-नाकाम भीइनका दमसाज़ अपने सिवा कौन है शहर-ए-जानां मे अब बा-सफा कौन है दस्त-ए-क़ातिल के शायां रहा कौन हैरख्त-ए-दिल बांध लो दिलफिगारों चलो फिर हमीं क़त्ल हो आयें यारों चलोआज बाज़ार में पा-ब-जौला चलो पढ़कर अच्छा सा लगा, लेकिन पहली बार पढ़ी होगी तो कई उर्दू शब्द समझ नहीं आए होंगे. है ना? ये लीजिए
फैज़ की ये नज्म दरअसल प्रतिरोध की बात करती है. वे अपने लोगों को बाजार की ओर मार्च करने को कह रहे हैं. उनके लोग कौन हैं, वे जिनके पांव बेड़ियों में बिंधे हैं और जिनकी आस्तीनों पर ख़ून लगा है. ऐसे लोगों से वह कह रहे हैं कि एक साथ चलो, यार का शहर हमारे इंतज़ार में है. और यही शहर 'हाकिम' यानी शासक का शहर भी है. शायर इस समाज की और इसके ताकतवर आकाओं की लगाई पाबंदियों से तंग आ चुका है. तभी कहता है कि'चश्मे-नम' यानी ये गीली आंखें काफी नहीं हैं. ये चुप्पी, ये सहनशीलता टूटे. इसलिए 'रख़्ते-दिल' बांध लो. चलो लड़ो. भले ही, हम ही फिर से क़त्ल हों.12वीं लाइन में 'उनका' कौन है? वही मज़लूम, मेहनतकश, धार्मिक-राजनीतिक आकाओं का सताया हुआ तबका. तभी वह कहते हैं कि अब उनका 'बासफ़ा' यानी दोस्त कौन है हमारे सिवा. इसलिए हमें ही चलना होगा.
पर ये नज़्म ऐड से कहां जुड़ती है?
फ़ैज़ का मैं बड़ा मुरीद हूं. इतना कि शायर हाशिम रज़ा जलालपुरी के इस शेर से एक नाम हटाकर वहां फैज को रख देता हूं और फिर सुनाता हूं, दिल की धड़कन पे मुहब्बत का फ़साना लिख दो वस्ल के एक ही लम्हे को ज़माना लिख दो लिखना कुछ चाहो अगर नाम के आगे मेरे मीर का, ग़ालिब का, फ़ैज़ का दीवाना लिख दो तो अब मैं कहता हूं कि इस ऐड को मैं फैज़ की नज़्म से जोड़कर देख पाता हूं. एक मिनट नाराज़ न हों. पूरी बात सुन लें.ऐड पहनने की चॉइस की बात करता है. 'Be you' की बात करता है. यानी पहनावे की हर पाबंदी हटाकर मनचाहा पहनें. इसीलिए 'पा-ब-जौला' यानी 'पांवों में बेड़ियों' वाली लाइन इस्तेमाल की गई है. बेड़ियां तोड़कर मनचाहा पहनें, ऐसा अर्थ है. यह एक किस्म का प्रतिरोध ही है.लेकिन! लेकिन लेकिन लेकिन. ख़बरदार जो इस पर भावुक होकर कोई मर मिटे. ये विज्ञापन है और ये अंतत: उसी सिस्टम से ताल्लुक रखता है, जिसके खिलाफ फैज़ थे. 'टाटा टी' के 'जागो रे' सीरीज के विज्ञापनों के बाद एक दोस्त मानने लगा था कि ये चाय वाले देश के बारे में बहुत सोचते हैं.यह बुरा इत्तेफाक रहा कि फैज की इस नज़्म की पहली लाइन 'बाज़ार' जाने को उकसाती है. किसी ऐड गुरु ने इसे 'लिटरल' अर्थों मे लिया और इस पर लट्टू होकर ऐड बना लिया. इसीलिए यहां मुझे चकमक चाचा की दलील ही बेस्टम-बेस्ट लगती है. वरना आप जेबॉन्ग की साइट पर जाकर देखें. पहनावों की जो कैटेगरीज उन्होंने बनाई हैं, वे 'Be you' के भाव से उलट हैं. फ़ैज़ की लाइन का ऐड में इस्तेमाल नए दौर की नई 'विडंबना' है. पर पर्सनली मैं इससे आहत नहीं हूं. 'भुनाना' बाज़ार का नेचर है जी. उसकी क्रांतियां ऐसी सीमित दायरों वाली ही होंगी. उससे ज्यादा ख़राब बहुत कुछ इस फील्ड में हो चुका है, हो रहा है. ये वो दुनिया है, जहां कोला ड्रिंक में पेस्टिसाइड के सारे आरोप एक फिल्म स्टार आकर पी जाता है और वो फिर से ठंडे का पर्याय बन जाता है. फ़ैज़ को क्या पता कि इस दौर में 'एंटी इस्टैबलिशमेंट' एक 'कूल' चीज़ हो गई है. जैसे चे गुएवारा की टी-शर्ट्स. लेकिन आखिर में ये सब इस्टैबलिशमेंट को ही मजबूत करता है. यहां इंकलाब की बातें कूल हैं. इंकलाब के नारे पंचलाइन हैं. ये उतना ही बड़ा विरोधाभास है, जैसे लोग 'गे मैरेज' की बात करें या तृप्ति देसाई मंदिर जाने के हक के लिए जमीन-आसमान एक कर दें. ये अंतत: उसी सिस्टम में स्वीकार्यता खोजना है, जो आपका फायदा उठा रहा है. फैज साहब, इस दौर में आपका बासफ़ा कौन बचा है. सुबह-ए-नाशाद यही है. रोज़-ए-नाकाम यही है.