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सोनी: मूवी रिव्यू

मूवी ढेर सारे सही और हार्ड हिटिंग सवालों को उठाती है. कुछेक के जवाब भी देती है, मगर सबके नहीं. सारे जवाब संभव भी नहीं.

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सोनी का एक पोस्टर, जो इसकी ऑनलाइन (नेटफ्लिक्स) रिलीज़ के दौरान देखने को मिला.
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19 जनवरी 2019 (Updated: 20 जनवरी 2019, 03:00 AM IST) कॉमेंट्स
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सुनसान सड़क. एक लड़की साइकिल चलाती हुई जा रही है. पीछे एक लड़का पड़ा है. उसे छेड़ता है. लड़की विरोध करती है. लड़का उसे मोलेस्ट करने और उसे मज़ा चखाने के लिए आगे बढ़ता है. लेकिन उल्टा लड़की उसकी जम कर पिटाई कर देती है. लड़की का नाम सोनी है. और इस सीन से होती है इसी नाम की फिल्म, यानी ‘सोनी’ की पावरफुल शुरुआत. और ये ‘पावरफुल’ वाली बात पूरी पौने दो घंटे के लगभग की फिल्म में बदस्तूर बनी रहती है. और बनी रहती है फिल्म की लीड एक्ट्रेस सोनी की एग्रेसिवनेस.




फिल्म की कहानी की बात करें तो ‘सोनी’ दिल्ली की दो पुलिस वालियों को थीम में रखकर बुनी गई कहानी है. अकेली लड़की सोनी और 32 साल की शादीशुदा कल्पना. दो ऐसी पुलिसवालियां जो बाहर वालों से तो मज़बूती से लड़ लेती हैं, लेकिन अपनों से और खुद अपने से कैसे लड़ें? वहां पर स्टैंड लेना, क्रांति करना या लड़ना नहीं चलता. कैलक्यूलेशन चलता है. ढेर सारा कैलक्यूलेशन.
कल्पना उम्मत, एक आई पी एस ऑफिसर है. सोनी एक ऑपरेशन में उसकी सबऑरडीनेट. इस ऑपरेशन में सोनी एक आम लड़की बनकर दिल्ली के सुनसान रास्तों में निकलती है, मनचलों के लिए एक ‘बेट’ या चारा बनकर. पीछे पुलिस की पूरी टीम छुपी रहती है. आप समझ ही गए होंगे कि कल्पना द्वारा लीड की जा रही इस टीम का काम दिल्ली को महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाना है. खासतौर पर रात के अंधेरे में.
सोनी का एक पूर्व प्रेमी है – नवीन. दाढ़ी बढ़ाया हुआ. उलझे बालों वाला. एक पेंटर टाइप फील देने वाला सॉफ्ट स्पोकन और अपनी एंट्री में सोनी के लिए खूब केयरिंग सा दिखता हुआ बंदा. लेकिन जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है हमें इस लड़के और उसके सोनी के साथ बिगड़ चुके रिश्ते का सच पता चलता जाता है या कहें एक सटल हिंट सा मिलता है.
पुलिस डिपार्टमेंट में काम करने वाले ही नहीं कॉल सेंटर में काम करने वाले या कर चुके लोग भी फिल्म की डिटेलिंग के कायल हो जाएंगे. वाई-जेक, बडी कॉलर, कॉल बार्जिंग जैसे टर्म इस फिल्म में नहीं उछाले जाएंगे बेशक. पुलिस डिपार्टमेंट में काम करने वाले ही नहीं कॉल सेंटर में काम करने वाले या कर चुके लोग भी फिल्म की डिटेलिंग के कायल हो जाएंगे. वाई-जेक, बडी कॉलर, कॉल बार्जिंग जैसे टर्म इस फिल्म में नहीं उछाले जाएंगे बेशक.

उधर कल्पना शादीशुदा है. पति भी पुलिस में है और कल्पना से सीनियर है. उसकी सास हर मध्यमवर्गीय सास की तरह इरिटेटिंग है. उसकी भांजी निशु के साथ उसका बड़ा प्यारा रिश्ता है.

मूवी में दोनों लीड करैक्टर्स के रिश्ते की बात करें तो कल्पना और सोनी को हमउम्र न भी दिखाया गया हो तो भी एक ही जनरेशन की होने के बावजूद इनके बीच बड़ा ही ममतामयी सा रिश्ता है. दोनों की रैंक में बहुत बड़ा गैप होने के कारण दोनों सहेलियों जैसा तो नहीं ही बर्ताव करती हैं, लेकिन फिर भी एक लिमिट से आगे बढ़ कर कल्पना का सोनी की केयर करना और सोनी का (केवल) कल्पना पर आंख मूंद कर विश्वास करना, उसे रेस्पेक्ट देना, इस रिश्ते की खूबसूरती को दिखता है. ये सब कुछ फिल्म में कन्विंसगली  दिखाना फिल्ममेकिंग की एक और सफलता कही जाएगी.
होने को अगर फिल्म इन दोनों के करैक्टर डेवलपमेंट या इनकी रोज़ की ज़िंदगी भर को ही दिखाती तो भी पूरी तरह संतुष्ट करती, लेकिन सोनी का गुस्सा और उसकी प्रतिक्रियाएं फिल्म को दिल्ली पुलिस की डॉक्यूमेंट्री से फुल लेंथ फीचर फिल्म में बदल देती है.
सोनी के पोस्टर्स भी देखने में बड़े प्यारे लग रहे हैं. इसलिए एक और देख लीजिए. सोनी के पोस्टर्स भी देखने में बड़े प्यारे लग रहे हैं. इसलिए एक और देख लीजिए.

बेशक आगे क्या होता है ये जानने के लिए फिल्म देखी जानी चाहिए लेकिन इतना ज़रूर है कि फिल्म का अंत कुछ-कुछ ‘न्यूटन’ फिल्म सरीखा रियलस्टिक लेकिन संतुष्ट करता हुआ होता है. ‘नायक’ फिल्म की तरह नहीं जिसमें अंत में पूरे सिस्टम को साफ़ कर दिया जाए.

अजब सा विरोधाभास है कि फिल्म का ट्रीटमेंट और इसकी स्क्रिप्ट इतनी ज़्यादा भारतीय है कि फिल्म इंटरनेशनल इंडी फिल्मों से कंपीट करती हुई लगती है. आपको मूवी देखते हुए लगेगा ही नहीं कि मूवी देख रहे हों. लगेगा कि कैमरा किसी की रियल लाइफ के पीछे-पीछे चल रहा है. कुछ छोटे-मोटे पॉइंट्स और डिटेलिंग्स इस फिल्म को असलियत के और करीब लाती हैं.
जैसे -
# किसी सीन में जब कोई एक करैक्टर बात पूरी ही कर रहा है तब तक दूसरा अपनी बात शुरू कर देता है या फिर कुछ और लोग क्रॉस टॉकिंग करने लगते हैं.
# या घर में सिलेंडर खत्म हो जाता है.
# या वो लॉन्ग शॉट जिसमें बैकग्राउंड में रेडियो में न्यूज़ चल रही है और स्क्रीन में सोनी की बोरिंग ज़िंदगी. ज़िंदगी जिसमें न कुछ ऐसा हो रहा है जो कहानी को आगे बढ़ाए, न दर्शक ही कुछ होने का इंतज़ार कर रहे हैं. बस सीन सेटिस्फाई करता है.
# या रोड में पुलिसवालों द्वारा किए जा रहे एल्कोहल-टेस्ट के दौरान मिलने वाले अलग-अलग तरह के किरदार, और पुलिस का वीडियो रिकॉर्डिंग होने और उसके वायरल हो जाने का डर, जो शायद इस दौर में सबसे बड़े डरों में से एक है.
कल्पना अंत में बदलती तो है लेकिन रेडिकल रूप से नहीं. ठीक उतनी जितना की दर्शक किसी रियलस्टिक मूवी में पचा सकें. कल्पना अंत में बदलती तो है लेकिन रेडिकल रूप से नहीं. ठीक उतनी जितना की दर्शक किसी रियलस्टिक मूवी में पचा सकें.

# या एक कामकाजी बीवी जो घर में भी बीवी है ऑफिस में भी. उसकी और बाकी सारे करैक्टर्स की बॉडी लैंग्वेज़. कि मातहतों के सामने अलग, जूनियर्स के सामने कड़क.

# या हिलते हुए कैमरे और टेढ़े-मेढ़े एंगल्स. लंबे लंबे बिना कट वाले टेक. एक नहीं ढ़ेरों. जिसमें कैमरा किरदारों के पीछे-पीछे चलता है.
# या 'सोनी' का लेयर्ड किरदार जो हमेशा एंग्री यंग विमेन नहीं बने रहता. अपने कई मोमेंट्स में वो हमसे भी ज़्यादा कमज़ोर होता हुआ दिखता है. बेशक वो कमज़ोरी उसके सपाट चेहरे के पीछे छिपी हुई है.
# या बड्डे पार्टी जैसी जगहों में होने वाली बहसें जिसमें ‘बच्चा कब प्लान कर रहे हो’ जैसे सवाल सबसे ज़्यादा मुखर रहते हैं.
# या जैसे पुलिस के अलग-अलग डिपार्टमेंट (जैसे थाना, सर्विलेंस, कॉल सेंटर) की डिटेलिंग और उनको स्क्रीन में बिलकुल रॉ, बिना एक्स्ट्रा लाईट, बिना एक्स्ट्रा ताम-झाम या प्रॉप के लगभग जस-का-तस शो कर देना.
# या कल्पना के 'मेरी दादी थी एक..', जैसे रियल लाइफ उदाहरणों वाले डायलॉग
पता नहीं ये कमाल की कास्टिंग के चलते है या दोनों कलाकारों की मेथड एक्टिंग के चलते या फिर मेकअप के चलते, लेकिन पहले शॉट से ही सोनी शक्ल और एक्सप्रेशन से एग्रेसिव और कल्पना सॉफ्ट लगती है.
यूं इवान आयर डायरेक्टर के रूप में अपना डेब्यू ऐसे करते हैं गोया पहली बॉल में ही छक्का. होने को इससे पहले उन्होंने कुछ कम चर्चित लेकिन क्रिटिकली ऐक्लेमड शॉर्ट मूवीज़ डायरेक्ट की हैं. जैसे 30 मिनट की ‘क्वेस्ट फॉर डिफरेंट आउटकम’ और 12 मिनट की ‘दी परफेक्ट कैंडिडेट’. ‘सोनी’ फिल्म की कहानी भी उन्होंने ही लिखी है, किसलय के साथ मिलकर.
गीतिका विद्या ओहलान और सलोनी बत्रा यानी सोनी और कल्पना का किरदार निभाने वाली लड़कियों का काम भी बेहतरीन है. इतना कन्विंसिंग कि देखिए मैं उन्हें एक्टर्स के बदले लड़कियां कह गया. ऐसी लड़कियां जिनसे आप रोज़ ही दो-चार होते रहते हैं. उनकी एक्टिंग एफर्टलेस है. कई जगह तो आप कहते हो ऐसा कैसे कर लिया होगा. तब, जबकि वो कोई स्टंट या डांस सीन नहीं, सिंपल सा मोनोलोग या लॉन्ग शॉट ही क्यूं न हो.
'सोनी' में दिल्ली को देखकर डर लगता है. और दुखद ये कि इसमें दिखाई गई दिल्ली झूठ नहीं, सच है! 'सोनी' में दिल्ली को देखकर डर लगता है. और दुखद ये कि इसमें दिखाई गई दिल्ली झूठ नहीं, सच है!

डेविड बोलेन का कैमरावर्क भी कमाल का है. अंधरे या कम रोशनी में फिल्माए दिल्ली की सड़कों के लॉन्ग शॉट्स हों या घरों में एक कमरे से दूसरे कमरे चलते हुए किरदार जो कैमरे से अंजान बने रहते हैं.

दिल्ली में, मुंबई सरीखी नाईट लाइफ क्यूं नहीं है, ये इस फिल्म को देखकर पता लगता है. इसमें पता लगता है कि दिल्ली रात में कितनी खतरनाक हो जाती है. फिल्म में जाड़े के दिन दिखाए गए हैं. दिसंबर-जनवरी के दिन, लोहड़ी वाले दिन. आप जब उन्हीं दिनों में इसे देख रहे होते तो और ज़्यादा इन्वॉल्व हो जाते हो.
फिल्म में डायलॉग वन लाइनर्स की तरह सीटी बजवाने के लिए नहीं है, बल्कि ऐसे हैं जैसे हम आप बात कर रहे हों. लेकिन ये बातें भी बहुत दूर तक जाती हैं. जैसे –
शहर में इतनी प्रॉब्लम है, और ये लोग मोरल पुलिसिंग करके टाइम बर्बाद कर रहे हैं.
या -
शर्ट, पेंट और टोपी पहनी हुई लड़की को कोई परेशान नहीं करता.
या -
सिंदूर लगाकर जाया करो!

फिल्म की एक और यूएसपी ये रही कि पूरी फिल्म दो लड़कियों की ज़िंदगी के आस-पास घूमती है, उनके पर्सनल और प्रोफेशनल लाइफ के लगभग हर मुद्दे को दिखाया जाता है, फिर भी आप कहीं ‘फेमिनिज़्म’ के नारे नहीं देख पाते. बस उसका अंडरकरेंट सा है.

कल्पना का लास्ट में सोनी को अमृता प्रीतम की ऑटोबायोग्राफी 'रसीदी टिकट' गिफ्ट करना भी एक सटल सा हिंट है.
दोनों लड़कियां समाज, घर और ऑफिस तक में  फैली पितृसत्तात्मकता को झेलती और पोलाइट तरीके से इग्नोर करती हुई अपने ऑपरेशन पर ही फोकस रखती हैं. कल्पना का ड्राइवर या उसके लगभग सभी मातहत उसे 'सर जी' कह कर सम्बोधित करता हैं.
जहां फिल्म टेक्निकली इतनी स्ट्रॉन्ग है वहीं अगर इसके मैसेज या इसकी सोशल यूटिलिटी की बात की जाए तो वो तो और भी बेहतरीन है. बिना कोई क्रांति की मशाल या झंडा लिए हुए, बिना एक्स्ट्रा लाउड हुए, आप-हम जैसे किरदारों को बुनते हुए मूवी ढेर सारे सही और हार्ड हिटिंग सवालों को उठाती है. कुछेक के जवाब भी देती है, मगर सबके नहीं. सारे जवाब संभव भी नहीं.
कई सीन्स में फिल्म ये भी दिखाती है कि पुलिस में भी हर डिपार्टमेंट और हर सामजिक ढांचे की तरह ही दी गुड, दी बेड और दी अगली, तीनों तरह के लोग और तीनों तरह की चीज़ें होती हैं. यूं जब मूवी किसी किरदार से लेकर एक पूरे डिपार्टमेंट और एक पूरे समाज को अलग-अलग कोणों से देखती है तो हमें फिल्म में ओवरऑल की गई मेहनत साफ दिखती है. लेकिन गौर करने पर. उसे क्रिटिक की तरह देखने पर. वरना तो, जैसा मैंने पहले भी कहा, आप मूवी में पूरी तरह इन्वॉल्व हो जाते हो, खो जाते हो, घुल जाते हो.
होने को ये नेटफ्लिक्स पर तो इस साल 18 जनवरी को रिलीज़ हुई है लेकिन पिछले साल कई बड़े-बड़े फिल्म फेस्टिवल्स में जा चुकी है. जैसे बीएफआई लंडन फिल्म फेस्टिवल, जहां पर ये सदरलैंड अवार्ड के लिए भी नॉमिनेट की गई थी. या फिर मुंबई के मामी फिल्म फेस्टिवल. वैसे ये रिलीज़ भी मूलतः नेटफ्लिक्स पर नहीं बल्कि पिछले वर्ष प्रतिष्ठित वेनिस फिल्म फेस्टिवल के 75वें संस्करण में हुई है. चाइना में इसे PYIFF में रॉबर्टो रोसेलिनी प्राइज़ भी मिल चुका है.
अब जब फिल्म नेटफ्लिक्स पर स्ट्रीम हो रही है, तो पोस्टर्स में उसका भी लोगो लग गया है. अब जब फिल्म नेटफ्लिक्स पर स्ट्रीम हो रही है, तो पोस्टर्स में उसका भी लोगो लग गया है.

अभी तो खैर नया साल शुरू ही हुआ है इसलिए ये कहना ज़ल्दबाज़ी होगा कि ये साल की सबसे बेहतरीन फिल्म है लेकिन ये कहना पूरी तरह सेफ है कि ये फिल्म इस साल की कुछ बेहतरीन फिल्मों में से एक होने की काबिलियत रखती है. वैश्विक स्तर पर.




वीडियो देखें:
रंगीला राजा: मूवी रिव्यू -

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