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मूवी रिव्यू - रक्षा बंधन

‘रक्षा बंधन’ उस सोच पर चोट करना चाहती है जिसके मुताबिक दहेज देने में भाई या पिता गर्व महसूस करता है. ऐसा मानता है कि बहन या बेटी के लिए कुछ कर रहा हूं.

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अक्षय कुमार की फिल्म 'हिट एंड मिस' का मामला है. कैसे, जानने के लिए पूरा रिव्यू पढिए.
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11 अगस्त 2022 (Updated: 11 अगस्त 2022, 11:48 IST)
Updated: 11 अगस्त 2022 11:48 IST
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अक्षय कुमार. वो एक्टर जिनके लिए कहा जाता है कि साल में चार फिल्में करते हैं. उनकी पिछली दो फिल्में ‘बच्चन पांडे’ और ‘सम्राट पृथ्वीराज’ नहीं चली. फिर जब पता चला कि उनकी अगली रिलीज़ आनंद एल राय की फिल्म ‘रक्षा बंधन’ होगी, तब कहा गया कि वो फिर से फीलिंग्स वाले सिनेमा की ओर लौट रहे हैं. ‘रक्षा बंधन’ अब रिलीज़ हो चुकी है. इमोशन, कहानी, एक्टिंग आदि जैसे पॉइंट्स पर फिल्म कितनी मज़बूत है, आज के रिव्यू में उसी पर बात करेंगे. 

फिल्म की कहानी सेट है चांदनी चौक में. ये चांदनी चौक करण जौहर के यूनिवर्स से नहीं आता, जहां की सड़कें खाली रहती हों. इसी चांदनी चौक में एक चाट की दुकान है. इसका मालिक है केदारनाथ, जिसे सब लाला भी बुलाते हैं. लाला की दुकान की खासियत हैं गोलगप्पे. लेकिन उनसे भी पहले आपकी नज़र पड़ती है उसकी दुकान की टैगलाइन पर– चाट खाइए, बेटा पाइए. गोलगप्पे को देखकर जितना जी ललचाया था, वो यह पढ़कर घिना जाता है. खैर, लाला का काम वगैरह सब सही चल रहा है. उनके जीवन में कहीं समस्या है तो ये कि घर में चार बहनें रखी हैं. रहती नहीं हैं, रखी हैं. उन चारों की किसी भी तरह शादी करवानी है. लाला उनकी शादी करवा पाता है या नहीं, उस दौरान खुद में कुछ बदलाव महसूस करता है या नहीं. यही पूरी फिल्म की मोटा-माटी कहानी है. 

raksha bandhan movie
फिल्म सिर्फ बहनों की शादी के इर्द-गिर्द बनी रहती है. 

जब ‘रक्षा बंधन’ का ट्रेलर आया था तब जनता कन्फ्यूज़्ड थी. ट्रेलर को देखकर लग रहा था कि फिल्म इमोशन के लेवल पर खरी उतरेगी. फिर उसमें ऐसे डायलॉग सुने कि चार महीने में बेटी को निपटा दूंगा. यानी उसकी शादी करवा दूंगा. कहानी का हीरो अपनी बहनों के लिए दहेज इकट्ठा करने में जुटा हुआ है. ऐसे में लगा कि बेटियां पराया धन होती हैं वाला घिसा-पिटा नैरेटिव क्यों धकेल रहे हैं. इन सब बातों के बीच एक बात पर भरोसा था, फिल्म के लेखक कनिका ढिल्लों और हिमांशु शर्मा पर. ये दोनों सेंसिबल लोग हैं. बेटियां बोझ हैं वाली कहानी तो नहीं ही दिखाएंगे. हिमांशु और कनिका ने लाला और उसके आसपास के किरदारों के ज़रिए प्रॉब्लमैटिक या दकियानूसी चीज़ों को एक्स्ट्रीम पर ले जाने की कोशिश की. 

जैसे पहले सीन में ही लाला अपनी सांवली बहन को ताना मारता है कि अंधेरे में डरा देगी किसी को. एक बहन का वजन ज़्यादा है तो उसके कपड़ों पर कमेंट करता है. ऐसे लोग और ऐसी बातें हमारे चारों तरफ होती हैं. मसला ये है कि ऐसे किरदारों से आप डील कैसे करते हैं. लाला बुरा आदमी नहीं. बस उसके सिर पर भूत सवार है, कि कैसे भी अपनी बहनों की शादी करनी है. शायद ऐसा ही जुनून फिल्म पर भी सवार था. चारों बहनों और उनकी दुनिया को सिर्फ शादी के इर्द-गिर्द समेट कर रख देना. यही वजह है कि हमें कभी पता नहीं चलता कि उनकी हॉबी क्या थी. वो अपने करियर में क्या बनना चाहती थीं. उनके घर में सिर्फ और सिर्फ शादी की ही चर्चा सुनाई पड़ती है. 

raksha bandhan
चारों बहनों के रोल में सादिया खातीब, सहजमीन कौर, दीपिका खन्ना और स्मृति श्रीकांत. 

आनंद एल राय की फिल्मों के किरदार पूर्ण नहीं होते. न ही टिपिकल हीरोनुमा होते हैं. वो अपनी खामियां अपने साथ लेकर चलते हैं. अक्षय कुमार का किरदार लाला भी ऐसा ही है. अपनी बहनों का हर मुमकिन तरीके से ध्यान रखने की कोशिश करेगा. कम-से-कम जैसा उसे सोसाइटी ने सिखाया है. बस शादी वाले पक्ष पर उसे कुछ सुनाई-दिखाई नहीं पड़ता. फिल्म उसकी खामियों को उजागर रूप से नहीं दिखाना चाहती, जितना वो उसके बलिदानों पर बात करती है. औरतों के लिए वोकल होने वाली ‘रक्षा बंधन’ अपनी सुई उस विचारधारा पर लाकर खड़ी कर देती है जहां किसी आदमी से अपनी बहनों के लिए बलिदान देना अपेक्षित हो. अपनी खुशियों को उनके लिए अग्नि करना अपेक्षित हो.      

‘रक्षा बंधन’ के प्रमोशन के दौरान ये बात आई थी कि ये अक्षय कुमार के करियर की सबसे छोटी फिल्म है. मेरे विचार में किसी और फिल्म को इस उपाधि का गौरव बख्शा जा सकता था. एक घंटे 50 मिनट की लेंथ के चक्कर में फिल्म बहुत जगह भागती है. उसे थोड़ा डटना चाहिए था, अपने किरदारों और अपनी ऑडियंस, दोनों के लिए. इसी रफ्तार की वजह से ‘रक्षा बंधन’ के पास याद रखे जाने के रूप में सिर्फ कुछ पल रह जाते हैं. फिल्म के कुछ इमोशनल सीन अपना काम करते हैं. लेकिन ये बस कुछ बनकर रह जाते हैं. बाकी बची फिल्म इन हिस्सों के साथ इंसाफ नहीं कर पाती. 

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फिल्म के ज़्यादातर इमोशनल सीन अक्षय कुमार के किरदार के हिस्से आए. 

काफी समय बाद अक्षय को फिज़िकल कॉमेडी करते देखा. प्रियदर्शन की फिल्में देखी होंगी तो बताने की ज़रूरत नहीं कि उनकी कॉमेडी टाइमिंग कैसी है. यहां भी आपको वो दिखेगा. उनके हिस्से कुछ अच्छे इमोशनल सीन्स आए, जहां वो अपना काम कर देते हैं. उनकी बहनों का रोल निभाया है सादिया खतीब, सहजमीन कौर, दीपिका खन्ना और स्मृति श्रीकांत ने. दुर्भाग्यवश, उनके किरदारों को फिल्म में ठीक से नहीं यूज़ किया गया. ये एक बड़ी शिकायत है. कुछ ऐसा ही भूमि पेडणेकर के साथ भी है, जिन्होंने फिल्म में सपना नाम का किरदार निभाया. बेसिकली, सपना केदारनाथ की लव इंट्रेस्ट है. फिल्म की लेंथ बढ़ाकर इन किरदारों के आगे-पीछे की कहानी और ढंग से दिखाई जा सकती थी. 

‘रक्षा बंधन’ उस सोच पर चोट करना चाहती है जिसके मुताबिक दहेज देने में भाई या पिता गर्व महसूस करता है. ऐसा मानता है कि बहन या बेटी के लिए कुछ कर रहा हूं. एक हद तक अपनी कोशिश में कामयाब भी होती है. लेकिन सिर्फ एक हद तक, क्योंकि एक पॉइंट के बाद फिल्म की लिखाई अपनी मैसेजिंग में कंफ्यूज़ होती दिखती है. एक ट्रैक से दूसरे ट्रैक पर झट से चली जाती है. ऐसा शायद फिल्म की सीमित लेंथ की वजह से किया गया हो. 

वीडियो: मूवी रिव्यू - अटैक

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