विकास की इतनी बड़ी कीमत, सिर की जुएं तक चली गईं
लाल रंग की कंघी भी खो गई. मेडिकर शैंपू का ऐड बंद हो गया. सिर्फ रूसी और टूटते सफेद बालों का सियापा बचा है.
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फोटो - thelallantop
"कउन दहिजरा घुसा रहा हमारे कमरे में. सब बैल की तरह मड़नी माड़ गया है. एक चीज दर पर नहीं मिलती. जिसको ढूंढने जाओ उसके अलावा सब मिलता है. भोर से उठके इंतजार कर रहे हैं कि सुरुज बाबा निकलें. अब वो निकल आएं तो कंघी नहीं मिल रही. अंजनी... ओ अंजनी. तईं ढूंढ तो जूं वाली कंघी."बड़े बेटे को गुहार लगाती. कुढ़ती गरियाती चंपा चाची आधे घंटे की मेहनत के बाद वो लाल वाली, पतले गझिन दांतों वाली कंघी खोज लाती हैं. बाहर देखा तो आरती नदारद. बाहर बइठी सड़क पर ट्रक जाता हुआ देख रही है. दिए दो तमाचे और वापस झोंटा पकड़कर ला पटका. उसके बाद एक एक कर जूं गिराती जाती. और हर जूं के साथ एक कंटाप आरती की खोपड़ी पर. ऐसे ही याद आया ये सीन कि ऐसा कुछ बहुत दिन से देखा नहीं. वो लाल रंग की कंघी भी खो गई. मेडिकर शैंपू का ऐड भी आना बंद हो गया. सिर्फ रूसी और टूटते, सफेद होते बालों का सियापा बचा है. क्या हुआ. जुएं विलुप्त हो गईं क्या? अगर सचमुच ऐसा है तो कुदरत के लिए सबसे बड़ा झटका है. हमारी पीढ़ी खुशकिस्मत थी जो डायनासोर का विलुप्त होना नहीं देखा. बदकिस्मती कि जुएं को खत्म होते देख लिया. और जुओं के जाने से नुकसान कितना बड़ा हुआ है इसका सिर्फ अंदाजा लगाया जा सकता है. क्योंकि हमने अपनी आंखों से देखा है. चंपा चाची का पड़ोसियों से रिश्ता इन्हीं जुओं की वजह से था. वो जब भी आरती को पीटती तो गुप्ता अंकल की बिटिया पूजा को कोसती रहती थीं. कि उस 'पुजिया' के साथ न बैठा करो किलास में. उसी की खोपड़ी में ये गोशाला बनी है जहां से ले लेकर आती हो. दोबारा उसके साथ दिखी तो टांगें तोड़ दूंगी. असल में सामाजिक समरसता को गहरा धक्का लगा है जुओं के गुम होने से. डाक्टराइन बुवा अपने इकलौते लड़के के साथ अपने मायके यानी हमारे पड़ोस में आ गई थी रहने. फूफा का कपार फोड़ दिया था काहे कि वो दारू पीकर मारते थे. हमारा मोहल्ला भी उनसे बहुत दबता था इसीलिए. कि कब बुवा का मूड खराब हो और किसी को थूर दें. उनको कलावती ने अपने घर से कई बार जूं मार साबुन उठाते देखा था. और घिसकर वापस रखते भी. साबुन के साइज तो देखकर उनका शक यकीन में बदल जाता था. लेकिन कभी वो चूं न कर सकीं. जूं का मसला था. और डाक्टराइन बुवा विपक्षी पार्टी. पंगा लेना जान से खेलना था. बुवा के लड़के के बाल सिल्की हो रहे थे कलावती के साबुन की बदौलत.
गांव में बाइक वाइक मांगने का चलन बाद में आया है. इसकी नींव उसी नुकीले दांते वाले लाल कंघी से पड़ी थी. जो भी मांग के ले जाता था. इस वादे के साथ कि साफ करके दे जाएगा. लौटकर दे जाता तो झौवा भर ओझरी भरी रहती थी उसमें.वो सब चला गया. जुओं का जमाना लद गया. अब गांव देहात में ही चाहे थोड़ी बहुत बची हों. वो भी अगली पीढ़ी तक खत्म हो जाएंगी. हमारी नस्लें कभी नहीं जान पाएगी कि ऐसा कोई विकराल जीव होता था जो इंसान के सिर में पलता था. उसकी 6- 8 टांगें होतीं थीं और तेज स्पीड से भागता था. उनके शिकार के वक्त गिनती की जाती थी. और अंगूठे के दो नाखूनों के बीच में दाबकर मारने से 'पट्ट' की आवाज आती थी.