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परमाणु- दी स्टोरी ऑफ पोखरण: फिल्म रिव्यू

कलाम को राष्ट्रपति बनाने वाले धमाके की कहानी.

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फिल्म 'परमाणु' की कहानी भारत के दूसरे परमाणु परीक्षण पर बेस्ड है.
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श्वेतांक
25 मई 2018 (Updated: 25 मई 2018, 01:32 PM IST) कॉमेंट्स
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इंडिया ने अपना पहला न्यूक्लियर टेस्ट 1974 में किया था. और दूसरा उसके 24 साल बाद. यानी 11 मई 1998 को. जॉन अब्राहम की नई फिल्म 'परमाणु- द स्टोरी ऑफ पोखरण' दूसरे वाले टेस्ट की कहानी है. फिल्म में दिखाया जाता है कि एक महीने से भी कम समय में एक पांच लोगों की टीम सफल न्यूक्लियर टेस्ट कर लेती है. ये बात ठीक है कि फिल्म की शुरुआत में हमें जॉन अब्राहम की ही आवाज़ में ये सुनने को मिलता है कि ये फिल्म रियल स्टोरी से इंस्पायर्ड है लेकिन फिक्शनल है. बावजूद इसके इस मिशन में शामिल बाकी लोगों के बारे में बात नही करना फिल्म की कमजोर कड़ी है.
साल 1995. सोवियत संघ टूट चुका है. अमेरिका हज़ार से ज़्यादा न्यूक्लियर टेस्ट कर सुपरपावर बन चुका है. उसके पीछे चीन ने भी 43 टेस्ट कर लिए हैं. दोनों ही देश पाकिस्तान की हरसंभव मदद कर रहे हैं. ये सब देखकर इंडिया इन्सिक्योर हो गया है. इन सब चीज़ों से डील करने के लिए वो न्यूक्लियर पावर बनना चाहता है. 1945 में जापान की हालत देखकर यूएन 1968 में न्यूक्लियर नॉन-प्रोलिफरेशन ट्रीटी (Nuclear Non-Proliferation Treaty) लेकर आया. इस समझौते का मतलब था कि जो देश परमाणु हथियार बना चुके है, उनके अलावा कोई और देश परमाणु हथियार नहीं बनाएंगे. इंडिया ने शुरुआत में ही इस अग्रीमेंट पर साइन करने से मना कर दिया था. इस बात से पहले ही अमेरिका समेत पूरी दुनिया भारत से खफा थे.
अब साल 1995 में चाइना के बाद इंडिया भी न्यूक्लियर टेस्ट प्लान करता है. फिल्म में इसे प्लान करता है अश्वत रैना नाम का एक कैरेक्टर, जो आईएएस है. जिसे जॉन अब्राहम ने निभाया है. इस मिशन में उसे शामिल नहीं किया जाता और सब कुछ गड़बड़ हो जाता है. अश्वत की नौकरी चली जाती है. अब वो मसूरी में बच्चों को सिविल सर्विस की कोचिंग देता है. कट टू तीन साल बाद. सरकार बदल चुकी है. ऑफिशियल बदल चुके हैं. प्रधानमंत्री के प्रिंसिपल सेक्रेटरी पिछले टेस्ट के दौरान हुए-घटे की पूरी डीटेल निकालते हैं और अश्वत को नौकरी दिए बिना इस मिशन का हिस्सा बना लेते हैं. अलग-अलग डिपार्टमेंट से कुछ काबिल अफसर चुने जाते हैं और पांच लोगों की एक टीम तैयार होती है. इस बार मिशन को लीड करने का जिम्मा अश्वत को दिया जाता है. बताया न फिल्म फिक्शनल है!
जॉन अब्राहम ने फिल्म में आईएएस ऑफिसर का रोल किया है, जिसे नौकरी से निकाल दिया जाता है.
जॉन अब्राहम ने फिल्म में आईएएस ऑफिसर का रोल किया है, जिसे नौकरी से निकाल दिया जाता है.

फिल्म के पहले हाफ में अश्वत और उनकी टीम के बनने की कहानी दिखाई जाती है. सेकंड हाफ पूरा उस मिशन को डेडिकेट किया गया है. हो सकता है, ये ऑपरेशन वैसे न हुआ हो जैसे दिखाया गया है, लेकिन फिल्म का ये वाला पार्ट इंट्रेस्टिंग है. और टाइट भी है. लेकिन सवाल ये है कि जब आपके पास इतनी बढ़िया बनी-बनाई कहानी थी, तो उसे फैब्रिकेट करने का क्या मतलब था. खैर, अब तो फिल्म आ ही चुकी है, तो इन बातों का कोई फायदा नहीं है. पहले ये फिल्म अक्षय कुमार के पास गई थी, उन्होंने नहीं की तो जॉन को मिल गई. अब जॉन के फेस पर एक्सप्रेशन नहीं आते, तो नहीं आते. इसमें भी नहीं आए हैं. लेकिन इसके लिए जॉन ने मेहनत की है. जहां वो कर सकते थे. अपनी बॉडी पर. उनके वजन में आपको फर्क नज़र आएगा. जिस एक्टर की खासियत ही उसकी बॉडी हो, हर फिल्म में एक-दो शर्टलेस सीन आते हों, उसके लिए ये अच्छी बात है. ऊपर से जॉन की बॉडी ऐसी है कि पुलिस-आर्मी वाले रोल को सूट कर जाती है. इसके अलावा एक और बात ध्यान खींचती है, वो ये कि जब अश्वत नौकरी में रहते हैं, तो बाल-वाल एकदम स्टाइल में रखते हैं. नौकरी छोड़ते ही उनके बाल बिखर जाते हैं. फिर मिशन के लिए चुने जाते हैं तो हेयरस्टाइल चेंज हो जाता है.
फिल्म में कुछ बहुत मसाला लाइन्स हैं. देश और देशभक्ति पर. जैसे-
'हम अगले तीन दिन तक नहीं सोएंगे, ताकि दुश्मनों की नींद उड़ा सकें'
और
'हमने जो सोचा, वो देश के लिए था. हमने जो किया, वो देश के लिए है. हमने जो पाया, वो देश का होगा'.
जिस समय में इतनी रियलिस्टिक डायलॉग और अप्रोच के साथ फिल्में बन रही हैं, वहां फिल्म का ये हिस्सा खल जाता है. थोड़ा सा. एक बहुत अद्भुत सीन है फिल्म में जब जॉन का कैरेक्टर जमीन से ही देखकर बता देता है कि सैटेलाइट उनके ऊपर है और ये ब्लाइंड स्पॉट नहीं है. वैसे तो ये फिल्म के बहुत सारे सीन्स में हुआ है. लेकिन ये 'कुछ ज़्यादा ही हो गया' वाले में काउंट किया जाना चाहिए.
फिल्म में महिलाएं. बढ़िया मुद्दा. कम से कम इसमें उन्हें ऑब्जेक्टिफाई तो नहीं किया गया है. डायना पेंटी अश्वत की टीम का वैसा ही हिस्सा हैं, जैसे और लोग. बिलकुल न्यूट्रल कैरेक्टर है. लेकिन करने के लिए उन्हें थोड़ा और दिया जाना चाहिए था. एक्टिंग के मामले में दो लोगों की तारीफ होनी चाहिए. एक तो योगेंद्र टिकू और दूसरी अनुजा साठे. योगेंद्र जॉन की टीम का हिस्सा है, तो अनुजा उनकी पत्नी.
फिल्म में किरदारों का नाम महाभारत के पांडवों के नाम पर रखा जाता है.
फिल्म में किरदारों का नाम महाभारत के पांडवों के नाम पर रखा जाता है.

एक सीन में जॉन की पत्नी को पता लगता है कि उनका पति उनसे झूठ बोल रहा है. इसके बाद दोनों की जबरदस्त लड़ाई होती है और अनुजा, जॉन से पूछती हैं - 'तुम्हें थोड़ी सी भी शर्म आती है'. ये पूरा सीन देखने लायक है. सिर्फ उनकी पत्नी के किरदार के लिए. फिल्म का एक और कमजोर पक्ष है. म्यूज़िक. सचिन-जिगर ने दिया है. लेकिन फिल्म में कोई स्पेस नहीं है, जहां गाने घुसेड़े जा सकें. ऊपर से इतना लाउड बैकग्राउंड स्कोर. सेलिब्रेट करने वाले सीन्स में 'शुभ दिन' नाम का एक गाना बजता है. ये कुछ 'अच्छे दिन' से मेल खाता हुआ लगता है.
शुभ दिन आप यहां देख सकते हैं:

'परमाणु' की सबसे अच्छी बात है, फिल्म के आखिर में दिखाए जाने वाले फैक्ट्स और फोटोज़. यहां आपको पता चलता है कि असल में इस मिशन के कर्ता-धर्ता अब्दुल कलाम थे. इसमें आपको पूरी फिल्म का सार मिल जाता है. जॉन अब्राहम की 'परमाणु' आपके दिमाग में विस्फोट जैसा तो कुछ नहीं करती लेकिन कई खामियों के साथ एक बार देखी जा सकने वाली बन बड़ी है. क्योंकि इसमें देशभक्ति की मात्रा थोड़ी कम है.


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