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हीरानी की फिल्म 'संजू' का ट्रेलर बार-बार देखने वाले भी ये बातें नहीं पकड़ पाए

रणबीर कपूर स्टारर इस फिल्म में ये सब देखने के लिए तैयार रहिए.

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फिल्म 'संजू' के ट्रेलर में अपने रंगीन दिनों में संजय दत्त का किरदार. और जेल में लेट्रीन से बाहर आता मल.
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गजेंद्र
31 मई 2018 (Updated: 31 मई 2018, 06:29 AM IST) कॉमेंट्स
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संजय दत्त बायोपिक का ट्रेलर देखा. अच्छा लगा ये नहीं कह सकता. क्यों? रंग हर फ्रेम में बेज़ां चटख़ हैं. ये इसलिए रखे जाते हैं ताकि जो बुनियादी दर्शक हैं, उनके मुंह में चम्मच लेकर कहानी/फिल्म उड़ेली जा सके. ताकि दर्शकों को दिमाग न लगाना पड़े. यही फॉर्मूला साउथ की अवगुणों से भरी सब कमर्शियल फिल्मों में रखा जाता है जो अब लगभग हर हिंदी मूवी चैनल पर कब्ज़ा कर चुकी हैं. 'संजू' में राजकुमार हीरानी वाला हस्ताक्षर नहीं दिखता. हस्ताक्षर यूं कि उनकी हर फिल्म में कुछ innovative/नया था, जो मोटे तौर पर समाज को एक संदेश देकर जाता था. जैसे '3 ईडियट्स' में शिक्षा व्यवस्था पर टिप्पणी थी और ये बात थी कि काबिलियत लाओ, कामयाबी पीछे-पीछे आएगी. 'पीके' में धर्म के ठेकेदारों पर टिप्पणी थी और मानव सभ्यता पर प्यारे तरीके से की गई ज़रूरी टिप्पणियां थीं. 'लगे रहो मुन्नाभाई' में अहिंसा का संदेश था. 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' में इंसानों के आपसी प्यार और समानता की बात थी. 'संजू' में एक इंसान की जर्नी है. कैसे वो बदनामी, नशे की लत, अपनों के मरने का ग़म, जेल, ठोकरें सब झेलता है. लेकिन ये कहानी न चाहते हुए भी किसी आम इंसान की कहानी नहीं लग पा रही है. ये संजय दत्त नाम के एक एक्टर की कहानी है जिन्हें ज़िंदगी के सब संसाधन उपलब्ध रहे हैं और अब, जब वो जेल में जाकर आ गये हैं तो इनकी इज़्जत / brand value को बाजार में फिर से rehabilitate करने के लिए ये कथा कही जा रही है. क्योंकि फिल्म में चाहे उनकी कितनी ही बुराइयों को दिखाया जा रहा हो लेकिन अंततः वे ऐसे हीरो के तौर पर ही स्थापित हो रहे हैं जो फतेह करता है. इस सब में एक न्यूट्रल प्रेरणादायक या सामाजिक संदेश वाली कहानी पीछे छूट जाती है.

sanju movie trailer ranbir

फिल्म का ट्रेलर देखने के बाद अकेली सबसे बड़ी शाबाशी यही दी जा रही है कि रणबीर कपूर ने कितना जबरदस्त अभिनय किया है. बोले तो, वे इतने अधिक संजय दत्त जैसे लग रहे हैं. क्या ये ही एक फिल्म की सबसे बड़ी तारीफ होनी चाहिए? दूसरा, क्या फिल्म में इसके अलावा कोई शाबाशी देने लायक बात है? जहां तक रणबीर के अभिनय की भी बात है तो उस सीन में उनका रिएक्शन कितना कमज़ोर और सतही है जहां पुलिसवाले की एक थप्पड़ के बाद उनका पात्र कहता है - "बताता हूं सर, सब बताता हूं".

ranbir kapoor sanju movie tailer

पूरी फिल्म में संजू मुश्किल मोड़ों पर ठिठुरता, कांपता, रोता दिखाया जाता है. ये करने से दर्शकों की सहानुभूति अपनी तरफ करने में आसानी हो जाती है. फिल्ममेकिंग में ये शॉर्ट कट प्रशंसनीय नहीं. फिल्म melodrama के ज्यों हवाले है, वो सिनेमा के लिए बहुत बुरा है. क्योंकि ये दर्शक को कभी समझदार नहीं होने देता. जैसे एक सीन में सोनम कपूर का किरदार टॉयलट में घुसता है जहां संजू नशे में हैं. यहां सोनम का पात्र जैसे चिल्लाकर पूछता है - "मंगलसूत्र कहां है? Where is the bloody Mangalsutra?" इसे देखना बहुत दुखी करता है. बाद में बहुत अप्राकृतिक तरीके से सीन विकसित होता है, संजू का पात्र अपनी पत्नी को कमोड का ढक्कन मंगलसूत्र की तरह गले में पहना देता है.

sonam kapoor sanju trailer

एक सीन में संजू से पूछा जाता है कि अब तक कितनी औरतों के साथ सोए हो. जवाब में वो जिस स्टाइल से कहता है - कि "प्रॉस्टीट्यूट्स को गिनूं या अलग रखूं? नहीं, उनको अलग रखता हूं. 308 याद है. सेफ्टी के लिए 350 लिख लो." यहां वो विनम्र तो बिलकुल नहीं है. उसमें ग्रेस तो बिलकुल नहीं है. खासकर उन लड़कियों के लिए जिनके साथ वो सोया है. ऐसे में उस सीन को उभारने का क्या प्रयोजन? फिर पूरी फिल्म से पैदा किया जा रहा वो आभास तो बेईमानी भरा हो गया जिसमें संजू को सब अपराधों/गलतियों के बावजूद एक अच्छा इंसान स्थापित किया गया है.

sanju trailer ranbir kapoor anushka sharma

न सिर्फ लड़कियों के साथ सोने वाली बात, फिल्म को बेचने की बद्नीयत भरी कोशिश है बल्कि इसमें एक और सीन है जो बहुत भद्दा है. वो सीन जहां संजू के गुजराती दोस्त के रोल में विकी कौशल कहते हैं - "हमारे गांव में एक कहावत छे. कि - घी छे तो घपाघप छे." मतलब पैसा है तो सेक्स है. ये बहुत derogatory है. 'पीके' में हीरानी समझा रहे थे कि नग्नता को लेकर टैबू बना दिया गया है. वो समझा रहे थे कि इतनी बड़ी गैलेक्सी के इस छोटे से गोले के, छोटे से शहर की, छोटी सी गली में बैठकर हम बोल रहे हैं कि उसकी रक्षा करेंगे जिसने ये ब्रम्हांड बनाया जिसमें धरती से बड़े-बड़े लाखों-करोड़ों गोले हैं. ये बहुत अच्छे दर्शन थे. लेकिन जब हम घपाघप जैसे शब्द यूज़ करते हैं, जब हम बलात्कार जैसी घोर अमानवीय चीज को गंदे तरीके से हंसने के लिए इस्तेमाल करते हैं तो फिर उस अच्छे दर्शन का कोई अर्थ नहीं रह जाता. इस फिल्म को लेकर हीरानी या उनके दूसरे रचनात्मक लोगों ने जो आवरण बनाया है कि संजय दत्त की कहानी ऐसी है कि आपको यकीन नहीं होगा देखते हुए. इस "यकीन नहीं होगा" के पीछे सिर्फ एक अच्छी एंटरटेनिंग स्टोरी सुनाने जितना ही मकसद नहीं है. बल्कि इस फिल्म के ज़रिए उन्हें एक प्रेरक व्यक्तित्व बनाना है. अगर ऐसा नहीं होता तो फिल्म में सुखविंदर सिंह की आवाज़ में 'कर हर मैदान फतेह' जैसा गाना नहीं रखा जाता जो दर्शक को स्वतः नहीं सोचने देता, बल्कि उसका दुरुपयोग करके उसके दिमाग में भरता है कि इस आदमी ने जिंदगी की हर कठिन स्थिति के बाद भी कैसे फतेह की है.

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