मूवी रिव्यू: 'डार्लिंग्स'
इसे अच्छी या बुरी फ़िल्म कहना बेईमानी होगा. ये एक बेहद ज़रूरी मुद्दे पर बनी महत्वपूर्ण फ़िल्म है.

औरतें रोती जाती हैं, मरद मारते जाते हैं
औरतें रोती हैं, मरद और मारते हैं
औरतें ख़ूब ज़ोर से रोती हैं
मरद इतनी जोर से मारते हैं कि वे मर जाती हैं
आपने हेडिंग देखकर ही स्टोरी पर क्लिक किया होगा, तो ये बताना तो गैरज़रूरी है कि इसे पढ़ते हुए अगले कुछ मिनट होने क्या वाला है! पर आप ये ज़रूर सोच रहे होंगे कि यहां 'डार्लिंग्स' के रिव्यू की जगह रमाशंकर यादव 'विद्रोही' की पंक्तियां कहां से आ गईं! कहीं आप ग़लत जगह तो नहीं लैंड कर गए! तो ठहरिए. आप बिल्कुल दुरुस्त जगह पर हैं. दरअसल ये वो लाइंस हैं जो नेटफ्लिक्स पर स्ट्रीम हो रही फ़िल्म 'डार्लिंग्स' के आइडिया को समअप करती हैं.

'डार्लिंग्स' कहानी है बदरू की. उसका पति हमज़ा पीता है और उसे पीटता है. भयंकर क्रूरता से पीटता है. रात को पीटता है. सुबह मनाता है और मार खाई पत्नी पिघल जाती है. अपने पति को गले लगाती है, प्रेम करती है. रात होती है. पति फिर पीटता है. पत्नी पिटती है और पति की सेवा करती है. बदरू की मां उसे समझाती है. पर वो एक के बाद एक तमाम मौके हमज़ा को देती है. और सोने से पहले खाना नहीं, मार खाती है. पर अचानक कुछ ऐसा होता है कि बाज़ी पलटती है. चॉल में साथ रहने वाले ज़ुल्फ़ी और अपनी मां के साथ बदरू कुछ प्लान बनाती है. उस प्लान को अंज़ाम देती है या नहीं, या प्लान बदल जाता है? उनका प्लान उन्हें पुलिस स्टेशन पहुंचा देता है. यहां मार कुटाई एक तरफा नहीं है, दो तरफा है. यही कहानी है.

कुल मिलाकर कहानी सिंपल है, पर ट्रीटमेंट सधा हुआ है. किसी मूवी को कहानी से ज़्यादा उसका ट्रीटमेंट अच्छी फ़िल्म बनाता है. 'डार्लिंग्स' को भी उसके ट्रीटमेंट के लिए याद किया जाएगा. ट्रेजिडी से कॉमेडी कैसे पनपती है, फ़िल्म उसकी बानगी है. घरेलू हिंसा के सीरियस मुद्दे को फ़िल्म सिंसियर ढंग से उठाती है. पर इन सबमें फ़िल्म आपको बोर नहीं करती. कुछ न कुछ घटता रहता है. ऐक्शन ज़ारी रहता है और ऐक्शन ऐसा नहीं है, कि बस है. वो कहानी को आगे बढ़ाता है. किरदारों की परतें खोलता है. उनको फ्लरिश होने का पूरा मौक़ा देता है. हां, कसाई का किरदार शुरुआत में अधपका लगता है. उसकी ज़रूरत नहीं जान पड़ती. पर फ़िल्म ख़त्म होते-होते वो स्टोरी का अहम हिस्सा हो जाता है. ज़ुल्फ़ी के किरदार को लेकर भी ऐसा ही प्रतीत होता है. ये समझ नहीं आता कि उसका परिवार कहां है. उसका काम क्या है? पर इन सबके बावज़ूद ज़ुल्फ़ी कहानी का अहम हिस्सा है. स्क्रीनप्ले एकाध जगह को छोड़कर कहीं पर भी फैलता नहीं है. एक सांचे में चलता है. थ्री ऐक्ट स्ट्रक्चर को फॉलो करता है. पहले माहौल बनाता है. फिर कॉन्फ्लिक्ट पैदा करता है और अंत में उसे रिजॉल्व करता है.

जसमीत के. रीन का डायरेक्शन अच्छा है. उन्होंने एक लीनियर स्टोरी को अच्छे ट्रीटमेंट से उम्दा बना दिया है. वो छोटे-छोटे मोमेंट्स पैदा करती हैं. आपके अंदर किरदारों की क्रूरता भर देती हैं. उनके प्रति सहानुभूति जगाती हैं. फ़िल्म पितृसत्ता के ख़िलाफ़ विद्रोह छेड़ती है. पर कहीं पर भी चिल्लाती नहीं. यही फ़िल्म की ख़ासियत है. एक झटके में बहुत सरलता से ऐसी बातें कह जाती है, जो आपके साथ रह जाती हैं. जैसे जब बदरू की मां पुलिस वाले से कहती है: मरद लोग दारू पीकर जल्लाद क्यों बन जाते हैं? पुलिस वाला जवाब देता है: क्योंकि औरत उसे बनने देती है. विजय मौर्या, परवेज़ शेख़ और जसमीत के डायलॉग्स तेज़ाबी हैं. आपको सन्न छोड़ जाते हैं. तीर की तरह दिल में चुभते हैं. कुछ-कुछ फ्रेम सुंदर और प्रयोगधर्मी हैं. मिरर का बढ़िया ढंग से यूज हुआ है. अभी तक हम स्कूटी या बाइक के शीशे में पिछली सीट पर बैठे व्यक्ति का चेहरा देखते हैं. पर यहां पर ऐसा कैमरा एंगल इस्तेमाल हुआ है, जिसमें दो आदमी एक छोटे से शीशे में बिना एक-दूसरे को ब्लॉक किए दिख रहे हैं. ऐसे ही फ्रेम हैं, जहां आलिया शीशे के सामने सज रही है और मिरर में उनके चार रिफ्लेक्शन नज़र आ रहे हैं. वाइड एंगल लेंस का इस्तेमाल अच्छा है. एक फ्रेम, जिसमें बिल्डिंग से लेकर बाज़ार तक सब दिख रहा है. इसकी सिमेट्री बहुत अच्छी है.

आलिया भट्ट ने बदरू के रोल में एक बार फिर साबित किया है कि वो सिर्फ़ स्टार नहीं हैं, बल्कि एक अच्छी अदाकारा भी हैं. उनका रोना, उनका चिल्लाना, उनका भोलापन सब रियल लगता है. शेफ़ाली शाह ने बदरू की मां के रोल में अभिनय नहीं किया है, बल्कि उस रोल को जिया है. किरदार की कुंठा, उसकी फ्रस्ट्रेशन वो उम्दा तरीके से सामने लाती हैं. रोशन मैथ्यू ने ज़ुल्फ़ी के रोल में बहुत कुछ करने की कोशिश नहीं की है, जो कि एक अच्छी बात है. विजय वर्मा इस फ़िल्म की जान हैं. हमज़ा की क्रूरता उन्होंने ख़ुद में आत्मसात की है. एक समय के बात हमें उनसे नफ़रत हो जाती है. कलाकार के तौर पर ये उनकी सफलता है. राजेश शर्मा कसाई के छोटे से रोल में भी प्रभावित करते हैं.
फ़िल्म की सबसे अच्छी बात है कि ये महिलाओं को पीड़ित दिखाने के लिए पूरी पुरुष जाति को विलेन की तरह पेश नहीं करती. सिर्फ़ उन्हें विलेन बनाती हैं, जो विलेन हैं. माने ये पितृसत्ता के खिलाफ़ आवाज़ बुलंद करती है, पर पुरुषों को शैतान की तरह ट्रीट नहीं करती. माने फ़िल्म में अति किसी चीज़ की नहीं है. इसे अच्छी या बुरी फ़िल्म कहना बेईमानी होगा. ये एक बेहद ज़रूरी मुद्दे पर बनी ज़रूरी फ़िल्म है. नेटफ्लिक्स पर स्ट्रीम हो रही है देख डालिए.
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