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जोरम: नीली साड़ी में लिपटी अंतरात्मा (फ़िल्म रिव्यू)

कद्दावर अभिनेता Manoj Bajpayee 'भोंसले' जैसी इंटेस ड्रामा वाले अपने डायरेक्टर Devashish Makhija के साथ फिर लौटे हैं एक नई फीचर लेकर. Zeeshan Ayyub और Smita Tambe के अभिनय से सजी ये फ़िल्म कैसी है, पढ़ें इस Joram Movie Review में.

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Manoj Bajpayee in a scene of Joram directed by Devashish Makhija
इस फ़िल्म में मनोज बाजपेयी ने ऐसी भूमिका की है जिसे अक्सर शीर्ष अभिनेता तज देते हैं.
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8 दिसंबर 2023 (Updated: 8 दिसंबर 2023, 24:19 IST)
Updated: 8 दिसंबर 2023 24:19 IST
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हर फ़िल्म को देखने का तरीका अलग होता है. एक टाइगर 3’ हो सकती है, दूसरी एनिमल हो सकती है, तीसरी जोरम जैसी हो सकती है. चौथी-पांचवीं तरह की भी हो सकती है.

जोरम नहीं चाहती कि आप उसे एंटरटेनमेंट के परंपरागत उपकरणों से देखें. इसे देखते हुए साउंड वेव्ज़ की तरह हमारी रक्त धारा नाच नहीं रही होती. ब्लैक ह्यूमर के छींटों को छोड़ दें तो बमुश्किल एक भी सीन ऐसा है जो हंसाना चाहेगा. कोई डायलॉग ऐसा नहीं जो सीटी बजवाना चाहेगा. कोई मीठी गोलियां नहीं, कोई मिलावट नहीं. एक आवश्यक फ़िल्म है. गंभीर. प्योरिटेरियन. एक कहानी सुनाती है. मजा लेने की कोशिश न करें, देगी भी नहीं. बस संवेदना जगाकर देखें और शायद कहीं पहुंच जाएंगे.

कहानी शुरू होती है वानो और दसरु से. दो आदिवासी. झारखंड में कहीं. एक अनुपम, चैन और शांति से भरी दोपहर. दसरु सामने मिट्टी में बैठा है. जीवनसंगिनी सामने झूला झूल रही है. दोनों हंस रहे हैं. प्रेम है. गीत गा रहे हैं – लादो मोहे, लादोपलास फूल. पलास फूल.” पलास - गीतगोविंदम् में कामदेव का नख भी, और जंगल की आग भी. अगले ही क्षण वो फ्रेम खाली है. कोई था जो अब नहीं है. जैसे कि जीवन इंटरस्टेलर का ब्लैक होल है और उसने सब suck कर लिया है. उन लोगों की खुशी वाले पलों को भी. ये पल एक बड़े जीवन सत्य वाले मूमेंट में भी ठिठका जाता है. कि एक पल जो हंसी-बोल हैं, दूसरे क्षण हैं, वे गायब हो जाने वाले हैं, कभी न लौटकर आने वाले. जैसा ब्लेड रनर (1982) में रुटगर हाउवर का विलक्षण पात्र कहता भी है - All those moments will be lost in time, like tears in rain.

इस सुंदर, सुरम्य, बेफिक्र, प्रकृति की ओट वाली दोपहर से - जो भूमि में बहुत गहरे से ऊपर आकर निकलते जल जितनी ही नर्म और गर्म है - हम सीधा पहुंचते हैं शहर में जहां, कोई पीठ पर सीमेंट का कट्टा ढोते हुए एक कंक्रीट की बनती इमारत की तरफ बढ़ रहा है. साथ में उसकी संगिनी है. वह भी पीला कंस्ट्रक्शन हैल्मेट और ऑरेंज सेफ्टी जैकेट पहने मज़दूरी कर रही है. जैकेट के नीचे बच्चा है, कंधे पर टंगा (जोरम, तीन महीने की बच्ची). लेकिन वे यहां कैसे पहुंच गए? सवाल उठता है.

फ़िल्म पार्शली एक थ्रिलर में तब्दील होती है जब शाम को बिल्डिंग के अपने टेंपरेरी शेल्टर में दसरु (मनोज बाजपेयी) पहुंचता है. अंदर पत्नी वानो (तनिष्ठा चटर्जी) उल्टी लटकी है, ख़ून से सनी. वो समझ नहीं पाता, तभी कोई हमला कर देता है. दो लोग. एक उसे मार रहा है, दूसरा वीडियो बना रहा है. वो वीडियो बनाता ही रहता है. जब दसरु उसका पीछा करता है तब भी. बिल्डिंग से नीचे तक, बाइक पर बैठते हुए और दूर चले जाने तक वीडियो बनाता रहता है. अजीब लगता है. इस एक्ट की विचित्रता वह पहला पल होती है जो इतना ज्यादा कोंधती है. अनोखा सिनेमा मूमेंट.

दसरु किस परम कष्ट में है इसे यूं समझ लें कि कोई है जो उसके अतीत से जुड़ा है और उसे मारना चाहता है. दूसरी ओर शहर का पथरीला स्वभाव है जो प्रेम नहीं करता. तीसरी तरफ बच्चा है, जिसकी सुरक्षा और भविष्य से बड़ा उसके लिए कुछ नहीं. चौथी तरफ स्टेट है और उसके निर्देशों पर पीछा कर रही पुलिस है.

जब पुलिस अधिकारी रत्नाकर बगुल (जीशान अयूब) की एंट्री होती है तो हमें रिलीफ मिलता है कि चलो दूसरी तरफ एक considerate इंसान तो आया. कहानी में एक जान भी आती है. कहानी हमारे लिए कठोर से सरल होती है - कि ये पात्र दसरु को समझेगा. उसकी किसी न किसी प्रकार की सहायता तो करेगा.

फिल्म में विधायक फूलो कर्मा (स्मिता तांबे द्विवेदी) का पात्र भी है. जो संभवतः इस सरनेम वाले एक कांग्रेसी नेता से इंस्पायर्ड है जिनकी झीरम घाटी ने नक्सलियों ने हत्या कर दी थी. ऑपरेशन ग्रीन हंट का उल्लेख भी है, जो फिर असल घटना का संकेत है, 2009 में पांच राज्यों के लाल गलियारे में इसे शुरू किया गया था.

फ़िल्म बागी / दलम / rebellion शब्दों का इस्तेमाल करती है, जिन्हें सरकार का शत्रु कहा जाता है. तिग्मांशु धूलिया की फ़िल्म याद आती है जिसमें पान सिंह तोमर, पत्रकार से कहता है – बीहड़ में बागी मिलते हैं, डकैत होते हैं पार्लियामेंट में. उसके लिए बागी होना गर्व की बात है, ‘जोरम की दुनिया में ये गर्व नहीं है, अलग ही फीलिंग है.

डायरेक्टर देवाशीष मखीजा की इस फ़िल्म में बड़ी चतुराई से एक फ्रेम गढ़ा गया है, जिसमें दसरु का पूर्व-माओवादी पात्र अपनी तीन माह की बच्ची को पानी पिला रहा है. बैठा होता है एक शिलालेख के नीचे. उस शिलालेख का शीर्षक होता है – भारत का संविधान. और उसका रंग होता है हरा, जो कि माओवादियों की ड्रेस का रंग है और प्रकृति का भी. दसरु ने जो साड़ी अपने कंधे-कमर से बांधी हुई है बच्ची को कैरी करने के लिए, उसका रंग है नीला, जैसा अंबेडरवादियों का होता है.

फ़िल्मकार उन सारे सिंबल्स तक जाता है जो आदिवासियों के मूल हैबिटेट के संरक्षण बनाम उन्हें जबरन आधुनिक जीवनशैली, भौतिकता में खींचने की इस डिबेट में हमेशा आते हैं.

  1.  एक विशाल डबल फ्लाईओवर, जिसके नीचे बगुल खोजबीन करता है. दसरु भी वहां जाता है.
  2.  एक बड़ी अंडर-कंस्ट्रक्शन बिल्डिंग, जिनके सीमेंट वाले दड़बों में मुर्गे-मजदूर रहते हैं.
  3.  चलती हुई लालमाटी एक्सप्रेस ट्रेन, जिसमें एक दुरुह एक्शन-सस्पेंस भरा चेस सीक्वेंस होता है दसरु और पुलिस के बीच.
  4.  जंगल के पास बिजली की लाइनों का विशाल टावर, जो किसी दानव सा लगता है.
  5.  जंगल के बीचों बीच एक विराट बांध, जिससे रिसकर बहती नदी में से मछली पकड़कर वह अपनी नन्ही बेटी की भूख शांत करता है.
  6.  लोहे की विशाल मशीनें जो लोहे के पहाड़ खा रही है.

उनकी human gaze अपने आसपास की विडंबनाओं और विद्रूपताओं तक जाती है. एक दृश्य है जहां स्टेट के लोग आदिवासियों तक "प्रगति" और "विकास" लाना चाहते हैं. वे डराते हैं कि ज़मीन देनी होगी. दसरु कहता है - "2000 साल से रहते हैं हम लोग यहां." सामने से जवाब आता है - "टाइटल डीड है? वोटर आईडी है? आधार कार्ड?" सुनकर आप हिल जाते हैं, सिर काम करना बंद कर देता है.

बगुल और झारखंड में एक रिमोट पुलिस थाने के पुलिसवालों के बीच का संवाद भी इसी शृंखला में है.

जेल में कुछ आदिवासी युवक बंद होते हैं -

बगुल: ये तो माइनर लग रहे हैं!

पुलिसवाला 1: माइनर ही तो हैं सर.

बगुल: (महिला कैदीगृह की पट्टी देखते हुए) तो यहां क्यों बंद किया हुआ है?

पुलिसवाला 1: हथियार लेकर घूम रहे थे (उनके छोटे जंगली जानवर मारने वाले हथियार दिखाता है).

बगुल: आदिवासी हैं?

पुलिसवाला 1: जी सर, ये आदिवासी हैं.

बगुल: तो आदिवासी तो धनुष बाण लेकर घूमते ही हैं.

पुलिसवाला 2: Armed unlawful assembly. ऊपर से ऑर्डर आता है, का करें.

पुलिसवाला 3: 144 लागू है न सर.

बगुल: कब से?

पुलिसवाला 2: जब बोलो तब से. आप आइए न सर.

सीन का अंत.

एक सीन में बगुल पीछा करता है दसरु का जंगल की तरफ. बाकी पुलिसवाले रात में किए धुत्त नशे से कमजोर होते हैं, गिरते पड़ते हैं. दसरु हाथ नहीं आता. बगुल वापस लौटता है एंनकाउंटर वाले मार्केट की तरफ, जहां गिरे पड़े पुलिसवालों को संभाला जा रहा है. बगुल रोने को है. पीड़ा है उसे - शायद बीती तीन चार रातों दिनों से लगातार ड्यूटी किए जाने की; घर न जा पाने की; मुंबई से जंगल के बर्बर क्लाइमेट में भेज दिए जाने की; ह्यूमन राइट्स के मुंबई की तुलना में यहां और भी गिरे हुए स्तर की. तभी उसकी नजर जाती है एक बोर्ड पर जो लैंपपोस्ट पर टंगा है. लिखा है - Public notice. Pragati Steel. Welcome to Progress. This land proposed for iron ore mining project. और एक झलक भर दिखाकर फ़िल्म बगुल और हमारी नज़रें वहां से हटा ले जाती है. फ़िल्मकार पूरी वस्तुस्थिति को इतने संकेतों में बताने की कोशिश करता है कि जिस दर्शक को नहीं पता है उसके लिए स्टार्टिंग पॉइंट हो और जिन्हें पता है उन्हें इसकी मैसेजिंग या पॉलिटिक्स थोपी हुई, घुसाई हुई न लगे.

एक अनूठा सीन है जहां पुराने परिचित सेमसन (अमरेंद्र शर्मा) और दसरु के बीच संवाद है. नाव पर जा रहे हैं. सेमसन शायद दसरु को गलत ले जा रहा है, उसे मरवाने. दसरु घिसकर चाकू जैसी बनाई एक लकड़ी उसके गले पर लगा देता है. सेमसन माफी मांगता है. ये संवाद शायद इस फ़िल्म का ह्रदय है. पूरी बातचीत का मूल है.

सेमसन: माफ कर दे, दसरु. मैं क्या करूं. कोई चारा नहीं. मेरे भी तीन बच्चे हैं, परिवार है.

दसरु: परिवार तो मेरा था.

सेमसन: (चीखता है) तो गांव छोड़कर क्यों भागे?

दसरु: (और भी ज़ोर से चीखता है) गांव छोड़कर नहीं भागा, बंदूक छोड़कर भागा. नहीं चलानी थी गोली. नहीं मारना था किसी को.

सेमसन: मैं क्या करूं. बोल, क्या करूं. अगर पुलिस की मदद नहीं करता हूं तो सिंपेथाइजर (Maoist sympathiser) बोलकर जेल में ठूस देते हैं. और माओवादियों की मदद नहीं करें तो सरकारी कुत्ता बोलकर उल्टा लटका देते हैं. दोनों तरफ से तो हम मर रहे हैं. मेरे पास तो कोई चारा ही नहीं है. लेकिन तुम्हारे पास है.

एक दूसरा संवाद, उतना ही महत्वपूर्ण जो बगुल और एक दूसरे आदिवासी कॉन्सटेबल मुचाकी (जैकी भवसार, उल्लेखनीय काम) के बीच होता है. जब बगुल पूछता है कि तुम मुझे सारी बातें क्यों बता रहे हो और मुझे सीनियर्स के आदेश के उलट मेरी मदद क्यों करोगे, तो वह कहता है - "कोई ऐसा आदिवासी पैदा ही नहीं हुआ जिसे बंदूक उठाने का शौक हो. कौन जाने क्या मजबूरी थी दसरु की. मजबूरी तो मेरी भी थी. मैंने अपनी मर्जी से तो पुलिस की वर्दी नहीं पहनी है. नहीं तो मैं भी उसकी तरह इस वर्दी में न होता. कौन सी वर्दी जायज है और कौन सी नाजायज यही तय करते करते सौ साल बीत जाएंगे!" उसका संदर्भ पुलिस और माओवादियों की वर्दियों से होता है. फिल्म के मंथन से बाहर आया बेहद मजबूत विचार.

इस फ़िल्म की कहानी, बैकड्रॉप, सब ऐसे हैं कि लगभग इन्हीं सामग्रियों से 'ब्लड डायमंड' भी बनाई गई थी और अब जोरम बनाई गई है. दो पूर्णतः भिन्न तरह के सिनेमा. एक कमर्शियल. दूसरा - वस्तुपरक और जागृत. चैतन्य तम्हाणे की 'कोर्ट' जैसा. 

विशुद्ध स्टोरीटेलिंग के लिहाज से दो बातों ने मुझे बहुत आनंद दिया.

एक – जहां दसरु भाग रहा है और बगुल को उसे पकड़ने का जिम्मा मिला है. शुरू से आखिर तक दोनों पास पास रहते हैं. एक बड़ा थ्रिलिंग पल वह होता है जब झारखंड में दसरु एक ट्रैक्टर ट्रॉली में बैठा होता है और बगुल एक शोले जैसी साइडकार बुलेट में आ रहा होता है और दोनों एक-दूजे के पास से छूकर गुजर जाते हैं और उन्हें पता भी नहीं चलता.

दूसरी बात ये किस्क्रीनप्ले आदिवासियों की करुण कहानी दिखलाने पर नहीं टिका है, बल्कि इसके मूल में एक मां के बदले की कहानी है. और जिस एक्टर ने यह रोल किया है, उन्होंने भीषण तरह से किया है. स्मिता तांबे द्विवेदी का एक्टर-टू-कैरेक्टर ट्रांसफॉर्मेशन 2023 के बेस्ट में रखा जा सकता है. एक प्रेम से भरी, केयरिंग, सीधी, सरल आम गृहिणी मां कैसे एक कठोर, रुक्ष, तपती, घातक महिला में तब्दील हो जाती है, ये फिल्म का मोती है. स्मिता को पहचान पाना भी मुश्किल है. उनकी कठोरता को मैं देयर विल बी ब्लड और अपोकलिप्स नाओ के कठोर किरदारों के लाइन में ही कहीं पीछे खड़ा पाता हूं.

एक दो फुल फ्रेम्स को छोड़कर उनके पात्र को क्लोज़ अप और मीडियम क्लोज़ अप शॉट्स से दिखाया जाता है. दो शॉट्स में तो सिर्फ उनका धड़ दिखता है. एक जगह वे चूल्हे से खाना उतारती हैं लेकिन परोसती नहीं. खाली थाली में उनकी वीरान अंगुली बैठी रहती है. यहां सिर्फ गर्दन के नीचे का शॉट है. ऐसा दसरु, बगुल और कॉन्सटेबल मुचाकी के पात्रों के साथ विशेषकर है. ये शॉट्स किरदारों की पॉलिटिक्स और विचारधारा से ज्यादा ध्यान उनके इंसान होने और उनके भावों पर लाते हैं. दर्शक के लिए फिर इनका कहा कोई स्पेक्टेकल या तमाशा नहीं रह जाता. ध्यान देकर बात सुननी ही पड़ती है. साथ में धीमा, मिस्टीरियस, मितव्ययी और कहानी के मूड को विचित्रता, दुविधाबोध देता बैकग्राउंड स्कोर चलता है. एक बैगपाइपर जैसी धुन स्मृत हो आती है.  

मनोज बाजपेयी फिल्म के शुरू और अंत के दृश्यों में अपने क्राफ्ट में चमक रहे होते हैं. सिनेमा में जितने आदिवासी, जनजातीय पात्र निभाए गए हैं उनमें दसरु की भी एक अलग हस्ती है. जैसे कि आक्रोश में लहानिया भीखू. इस पात्र का एक कमाल दृश्य है कि जब चारों तरफ विक्षिप्तता है, दिमाग में अंधकार छाया है, सर पर पुलिस खड़ी है, उन पलों में भी वह रेल के शौचालय में अपनी नन्ही बच्ची के साथ खेल रहा होता है, प्यार से बातें कर रहा होता है. अनुपम.

फ़िल्म का अंत, यानी बस लास्ट के कुछ सेकेंड का विजुअल भी मुझे अमेज़िंग लगा, जहां दसरु का किरदार वहीं पहुंच जाता है जो उसका मूल हैबिटेट है. और यह अंत ही है जो इस कहानी में सुख भी देता है. कि जहां उसे कहीं से राहत नहीं है, कहीं से बचाव नहीं है, वहां चलो हमारी कहानी में तो ऐसा है कि वह अब तक सुरक्षित है.

बिना किसी पार्टी/पक्ष को डार्क विलेन बनाए जोरम सुनिश्चित करती है कि हम पूरी निरपेक्षता से इस कहानी, इसके पात्रों, परिस्थितियों और इसके नैरेटिव को देखें.

महान फ़िल्मकार बेला टार ने एक बार उंगली दिखाते हुए कहा था - please don't touch it. The Human dignity. कि मानव गरिमा को मत छूना.

देवाशीष मखीजा भी इसी डिग्निटी, मानव गरिमा को केंद्र में रखने का प्रयास करते हैं. और इस दौरान हम दर्शक उनके लिए क्या होते हैं? दसरु (मनोज बाजपेयी) का पात्र तीन महीने की जिस बच्ची को लेकर पूरी फ़िल्म में भागा-भागा फिर रहा होता है. हम वही शिशु होते हैं. लटके लटके सब देख रहे होते हैं.

अस्तु!

Film: Joram । Director: Devashish Makhija । Cast: Manoj Bajpayee, Smita Tambe, Mohammed Zeeshan Ayyub, Jacky Bhavsar, Megha Mathur, Amrendra Sharma, Tanishtha Chaterjee । Run time: 1hr 58m 

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