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आप 'तमाशा' फिल्म देखकर निराश हुए थे, तो मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूं

फिल्म को दो साल हो गए हैं और तब से किसी फ़िल्म ने इतना और ऐसे 'निराश' नहीं किया.

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दर्पण
28 नवंबर 2017 (Updated: 28 नवंबर 2017, 03:57 PM IST) कॉमेंट्स
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‘तमाशा’ की सबसे मुख्य चीज़ ये है कि आप निश्चित तौर पर नहीं बता सकते – ‘कहानी क्या है?’ हां,बस यही कहा या पूछा जा सकता है – ‘उसे कहने का अंदाज़ क्या है?’ और कहानी कहने का अंदाज़ इतना पारंपरिक है कि पैराडॉक्सियल तरह से ‘तमाशा’ रजत-पटल की कुछ सबसे ग़ैर-पारंपरिक फ़िल्मों में से एक बन जाती है - पूर्णतया मौलिक.
आप कभी 'फाइट क्लब' को याद करते हैं (जैसे उस वक्त, जब रणबीर का बॉस सहम कर अपनी सीट पर चिपक जाता है), कभी 'अमर अकबर एंथनी' को ('कित्ता मारा तेरे को' वाला सीन) को, कभी ‘जब वी मेट’ (जब दीपिका का फ़ोन खो जाता है और वो गीत यानी करीना कपूर की तरह वाचाल हो जाती है) को, कभी 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' को ('बस कर पगले रुलाएगा क्या' वाला सीन) तो कभी इम्तियाज़ की ही दूसरी फ़िल्म ‘हाईवे’ की सिनेमैटोग्राफी को.
लेकिन अंततः पूरी देख चुकने के बाद आप पर इस मूवी का कोई अलग ही प्रभाव पड़ता है जो किसी भी अन्य से अलहदा है, यूनीक है.


जब वी मेट, रॉकस्टार, लव आज कल जैसी फिल्मों के बाद इम्तियाज अली से अपेक्षाएं बढ़नी ही थीं.
जैसे 'तमाशा' में कही गई है, उस तरह से नॉन-लीनियर (ग़ैर-धाराप्रवाह) कहानी कहना कोई नई बात नहीं और बॉलीवुड में भी चाहे ये विधा नई न हो तो भी यहां की मेन स्ट्रीम मूवीज़ के लिए ये इतनी सहज तो नहीं ही है. बल्कि क्रिस्टोफ़र नोलन की 'मोमेंटो' का जब बॉलीवुड वर्ज़न बना था 'गजनी' नाम से तो उसकी आत्मा - यानी कहानी कहने का ढंग - वही नहीं रखी गई. वो नॉन लीनियर से लीनियर हो गई. एक सिरे से शुरू होकर दूसरे सिरे पर ख़तम – सपाट!


'गजनी' 'मोमेंटो' को तरह नॉन लीनियर नहीं थी.
मतलब ये कि या तो भारतीय मेन-स्ट्रीम दर्शक इतने मेच्योर नहीं है या फ़िर भारतीय निर्देशक उन्हें इतना मेच्योर नहीं समझते कि कहानी कहने (स्क्रिप्ट) के ढंगों पर प्रयोग करना तो छोड़िए कहानियों के भी वही 'रोहित शेट्टी' वर्ज़न बार-बार आते और सुपर-हिट होते रहते हैं.
मुझे याद है कि फ़िल्म ख़त्म होने के बाद जब मित्र ने पूछा, 'कैसी लगी मूवी?' तो मैंने उत्तर दिया, 'पता नहीं.' पता नहीं – क्यूंकि मुझे नहीं पता कि आजकल बॉलीवुड मूवीज़ का क्या फॉर्मेट चल रहा है, क्यूंकि बहुत दिन हुए थे तब कोई मूवी देखे, क्यूंकि उस वक्त भी समझ आ गया था कि नशा धीरे-धीरे चढ़ता है और क्यूंकि – सच में पता नहीं था, न आज तक पता चला.
फिर उसने बताया, 'नहीं ये आजकल के किसी फॉर्मेट से कहीं नहीं मिलती.'
लगा मुझे भी यही था. और यकीन मानिए कि यदि आप 'तमाशा' नाम की 'बॉलीवुड हिंदी मूवी' देखने की सोच रहे हैं तो ये आपको निराश करेगी. बेहद निराश.
- पता नहीं क्या कर रहे थे दोनों (दीपिका और रणबीर) - पता नहीं कहानी क्या थी - पता नहीं डायरेक्टर क्या बताना चाह रहा था - गाने भी अजीब से थे - पीयूष मिश्रा को भी वेस्ट कर दिया
और ये चार-पांच (बट नॉट लिमिटेड टू) चीज़ें हैं भी सही. मग़र मेरे लिए ये सारे सत्य 'सकारात्मक' ज़्यादा हैं.
मेरी ओर से उठा तेरी ओर को कदम, पहला. मिलेंगे हम!
पता नहीं दोनों एक साथ क्या कर रहे थे?
और अकेले-अकेले भी क्या कर रहे थे? नदी में बुलबुले बनाते, एक दूसरे से लड़ते, एक दूसरे को नकारते, शर्त लगाते, कथित गंदी बातें करते, जब मर्ज़ी आए एक दूसरे को किस करते...
...मगर क्या ये सबसे क्यूट बात नहीं?
वैसे ये रणबीर कपूर की मूवी है जिसमें दीपिका ने कमाल एक्टिंग की है.
रणबीर कपूर की क्यूं, दीपिका की क्यूं नहीं? वो इस तरह कि दीपिका आपको अकेले कहीं नहीं दिखेंगी. या तो वो रणबीर के साथ ही किसी सीन को शेयर कर रही होंगी या रणबीर अकेले ही होंगे किसी सीन में या दीपिका रणबीर को याद कर-कर के हीर की तरह ‘कई साल सैड’ हो रही होंगी. तो अंततः ये स्क्रिप्ट के हिसाब से रणबीर की मूवी है.
मग़र दीपिका की एक्टिंग तीन चार जगह रणबीर को सर-पास कर जाती है. वो भी तब जबकि रणबीर ने आज तक की सबसे बेहतरीन एक्टिंग की है.
अगर तुम साथ हो: इरशाद कामिल
मुझे 'ऐसी एक्टिंग कैसे इतनी आसानी से की जा सकती है' का अहसास इससे पहले तीन अभिनेत्रियों ने कराया. 'जब वी मेट' में वो सीन जब करीना कहती है, 'तभी ये सब हो रहा है मेरे साथ... तभी...', मधुबाला जब 'अच्छा जी मैं हारी' गीत में पूर्णतया फैमिनाइन होकर देवानंद को चिढ़ाती हैं और 'कभी ख़ुशी कभी ग़म' में ऋतिक को पहली बार इतने साल बाद देखने के बाद नेपथ्य की आवाज़ सुनकर काजोल दो बार 'आई' कहती हैं.
एक कॉन्सेप्ट होता है इम्प्रोवाइज़ेशन, जिसमें डायरेक्टर आपको कैसे और क्या करना है ये नहीं बताता. बस बता दिया जाता है कि अगला सीन क्या है. बाकी एक्टर खुद अपने निर्देशक होते हैं. ऐसा ही लगा दीपिका को कहीं-कहीं देखकर.
पता नहीं कहानी क्या थी?
यकीनन मैं भी शुरुआत में ही एक गीत से पहले, उसके बाद और उसके दौरान ये समझने की कोशिश कर रहा था कि पता नहीं कहानी क्या है. फ़िर मुझे इम्तियाज़ की ‘हाइवे’ याद आई. उसके अंत के कुछ सीन. जो कहानी को कहीं नहीं ले जा रहे थे. और तब अहसास हुआ कि कहानियां तो ‘सरस सलिल’ में भी पांच रुपए में आ जाती थीं, यादों के इडियट बॉक्स में भी आती हैं. तो, निर्देशक के तौर पर मेच्योर हो जाने के बाद अब इम्तियाज़ केवल कहानी तो कहना नहीं चाहेंगे - बिंगो!
इम्तियाज़ और विशाल भारद्वाज में एक समानता है स्त्री को स्त्री की तरह समझना. मग़र असमानता ये कि विशाल जहां स्त्री-साइको के अंदर तक घुसे हैं वहीं इम्तियाज़ फिलॉस्फी में. इसलिए जहां दोनों ही स्त्री को बेहतर (अच्छे के सेन्स में नहीं रियल्टी के क़रीब) चित्रित कर पाते हैं और विशाल पिंक-वर्ल्ड के डार्क शेड्स लेकर आते हैं, वहीं इम्तियाज़ की स्त्री 'हैप्पी गो लक्की' होती है.
तुझे तो प्यार हो गया है पगली!
विशाल की स्त्री से पुरुष रिलेट कर पाते हैं कि, 'हां स्त्रियां ऐसी ही होती हैं.' वहीं इम्तियाज़ की स्त्री से ख़ुद स्त्रियां रिलेट कर पाती हैं, 'अरे ऐसी ही तो हूं मैं.' 'जब वी मेट' की करीना सी, 'हाइवे' की आलिया सी या 'लव आज कल' और 'तमाशा' की दीपिका सी.
रणबीर और दीपिका की जोड़ी को तब की सबसे आइकॉनिक जोड़ी कहा जाता था और उनकी ऑफ़ स्क्रीन क्या कैमेस्ट्री रही होगी ये सेल्यूलॉयड में आसानी से पता लगता है. खास तौर पर अंतरंग क्षणों में.
गाने भी अज़ीब से थे
यक़ीनन. काशी-काबा, डीपी, ट्विटर, उड़ती चिड़ियां, हल्दी लगावत, कृष्ण, राम, वसुदेव, अकबर, देवानन्द की मूवीज़. या तो गाने अजीब थे या व्यंजनात्मक थे. गोया कोई कविता. स्क्रिप्ट और डायलॉग भी तो कई जगह कविता हो जाते थे. ‘सांप के मेटाफ़र से बचपन को बताना’ पिछले कुछ दिनों में सुनी, देखी या पढ़ी गई सबसे बेहतरीन कविता कहूंगा मैं. युवा गीतकारों में कुछ सबसे अच्छे गीतकारों में इरशाद कामिल का नाम आता है - सवेरे सा, पुराना भी, नया भी है - सफ़रनामा. बाकी रहमान तो खैर लिजेंड हैं हीं. कुछ फिल्मों में 'प्रीतम' को लेने के बाद, बाद की फिल्मों में इम्तियाज़ ने ए आर रहमान को लेना शुरू कर दिया था, और रिज़ल्ट हमेशा कमाल रहा फिर वो चाहे 'रॉकस्टार' हो या 'तमाशा'.
पापा, मैं एक कहानी सुनाऊं:
पीयूष मिश्रा को वेस्ट किया है 
लेकिन बड़े कलात्मक ढंग से. और ज़्यादा नहीं कहूंगा. क्यूंकि उनका गेटअप, उनका ग्लास पकड़ना, बूढ़ी और उसके बाद और बूढ़ी मुद्रा ‘वॉच इट टू बिलीव इट’ वाली श्रेणी में आते हैं. माने 'देख के ही मज़ा आएगा'. उनके कैरेक्टर और कमोबेश मूवी के लिए भी एक बड़ा क्लीशे याद आ रहा था, 'पूरी महाभारत ख़तम हो गई और पूछते हो सीता किसका बाप था?'


पीयूष मिश्रा पहले बूढ़े बनते हैं, फिर और बूढ़े बनते हैं.
अंततः - कहानी कहने के ढंग को हॉलीवुड बड़े लम्बे समय से सेलिब्रेट करते आया है. बेडटाइम स्टोरीज़, फेयरी टेल्स, दंत कथाएं, माइथोलॉजिकल स्टोरीज़. टेक्नोलॉजी और डिज़्नी, पिक्सर जैसे बड़े बैनर्स ने सिंड्रेला, ब्यूटी एंड दी बीस्ट, अरेबियन नाइट्स और पाइरेट्स जैसे किरदारों और कहानियों को न केवल जिलाए रक्खा बल्कि उसे वैश्विक भी कर दिया.


फिल्म 'ब्यूटी एंड दी बीस्ट' के गीत की झलक - 'Tale as old as time, song as old as rhyme.'



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