फिल्म रिव्यू: हामिद
जब एक कश्मीरी बच्चे की अल्लाह को कॉल लग जाती है.
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हामिद का किरदार तल्हा ने निभाया है.
आज एक बेहद प्यारी फिल्म का रिव्यू. नाम है 'हामिद'.
कहानी
कहानी है हामिद नाम के प्यारे से बच्चे की. वो कश्मीर में रहता है. उसके पिता रहमत नाव बनाने और मरम्मत का काम करते हैं. एक रात घर से निकलते हैं और लौटकर नहीं आते. गुम हो जाते हैं. या कहें कि गुम कर दिए जाते हैं. घाटी में ऐसे लापता आदमियों की बीवियां, आधी बेवाएं कहलाती हैं. कहानी में ये नहीं बताया जाता लेकिन आप देखते हुए समझ जाते हैं.एक साल बीतने के बाद भी रहमत की कोई खबर नहीं है. वो जिंदा है या मर गया कोई नहीं बताने वाला. इंसरजेंसी (विद्रोह) जो चल रही है. घाटी में ऐसे लोगों की सरकारी फाइलें दीमक लगकर खत्म हो जाने की परंपरा है. हामिद और उसकी मां इशरत, रहमत को ढूंढ रहे हैं. एक बार इशरत पुलिस थाने जाती है, तो पुलिसवाला वहां आए गुमशुदा लोगों के परिवारवालों को बोलता है - "सुनिए, साहब आज मीटिंग के लिए बाहर जा रहे हैं. इसलिए वो किसी से नहीं मिलेंगे."
भीड़ में एक बूढ़े की आवाज़ आती है, "ऐसे-कैसे नहीं मिलेंगे? इत्ती दूर से आए हैं हम लोग."
पूरी बात खत्म होने से पहले ही पुलिसवाला कहता - "मिलकर क्या करोगे चचा. उन्हें जो बोलना है, मैं ही बोल देता हूं- देखिए, हम लोग पता लगाने की कोशिश कर रहें हैं. जैसे ही पता चलेगा आपको इत्तिला कर देंगे. यही सुनने के लिए रोज़ आते हो न? सुन लिया? अब जाओ."

रसिका दुग्गल ने फिल्म में अच्छा काम किया है.
इशरत अपने पति की याद में स्वेटर बुनती है कि जब रहमत लौटेंगे तो उन्हें सुर्ख लाल स्वेटर पहनाएगी. लेकिन एक दिन धैर्य टूटने लगता है तो उस स्वेटर को उधेड़ना शुरू करती है.
हामिद भी अपने अब्बू को खोज रहा है. वो उस अल्लाह को ढूंढ रहा है जिसके पास सारी समस्याओं का हल है. वो सिर्फ 7-8 साल का है लेकिन वह कहानी में कभी भी वो बच्चा नहीं दिखता. क्योंकि उसका दिमाग मैच्योर लोगों जैसा है. उसे पत्थरबाजी के बारे में मालूम है. पहाड़ के उस पार के बारे में भी पता है.
घाटी में अलगाववादी उस जैसे बच्चों को अपने पक्ष में करने की कोशिश करते हैं. जैसे 2008 में आई फिल्म 'तहान' में तहान नाम के बच्चे को करने की कोशिश की थी. लेकिन तहान की तरह ‘हामिद’ में भी बच्चे इन झांसों में नहीं आते.
हामिद अल्लाह को खोजते हुए सीआरपीएफ के एक जवान अभय के संपर्क में आता है. तब कहानी और मार्मिक हो जाती है. वो उस जवान को अल्लाह समझकर बात करता है. वो अपने अब्बू को भेजने की मांग करता है. उसकी दुआ कुबूल होती है या नहीं ये फिल्म में आगे पता चलता है.

फिल्म में कई शानदार दृश्य हैं.
फिल्म में एक्टिंग की बात करें तो हामिद का रोल करने वाले तल्हा अरशद रेशी बहुत अच्छे हैं. वो फिल्म की जान हैं. डायरेक्टर ऐजाज़ खान ने उनसे चतुराई से काम निकलवाया है. रहमत का रोल सुमित कौल ने किया है. ये वही हैं जिन्होंने विशाल भारद्वाज की 'हैदर' में सलमान का किरदार किया था. उस फिल्म में वे कॉमेडी कर रहे थे लेकिन यहां उसके उलट हैं. जितनी देर स्क्रीन पर होते हैं, प्रभाव छोड़ते हैं. हामिद की मां इशरत की भूमिका रसिका दुग्गल ने की है. उन्होंने भी अच्छा काम किया है. वो किस्सा, मंटो, मिर्ज़ापुर जैसी फिल्मों व वेब सीरीज में दिखी हैं. ये रसिका के करियर के सबसे अच्छे परफॉर्मेंस में से एक है. सीआरपीएफ जवान अभय का रोल विकास कुमार ने किया है.
अभय और हामिद के बीच के डायलॉग फिल्म में सबसे दिलचस्प हैं. रविंद्र रंधावा और सुमित सक्सेना ने ये संवाद लिखे हैं. फिल्म की सिनेमेटोग्राफी भी अच्छी कही जा सकती है.
फिल्म देखने के बाद से अब तक उसका एक गाना जुबान पर चढ़ा हुआ है. जब रहमत अपने बेटे हामिद को स्कूल छोड़ने जाते हैं तब दोनों इसे गुनगुनाया करते हैं-
तुम हो कौन और मैं हूं कौन
रहता वो हम तुम में मौन
रूहों के वो जोड़े तार
वही सिखाए दिल को प्यार
वो ही देता धूप में साया...
ये हिंदी तर्जुमा है. कश्मीरी ज़बान में इसे सुनना और भी बेहतर होता है.
अब्बू रहमत के साथ हामिद.
फिल्म 'हैदर' के शुरू में एक डायलॉग है. जब डॉक्टर हिलाल मीर से उनकी पत्नी गज़ाला पूछती हैं- ‘किस तरफ हैं आप?’ और डॉक्टर का जवाब आता है, ‘ज़िंदगी की.’ फिल्म ‘हामिद’ भी जिंदगी मांगती है. पॉपुलर सिनेमा से कश्मीरी लोगों के असल मसले तकरीबन गायब हैं. ऐसे में ‘हामिद’ का आना सुखद है.
जिन्हें कश्मीर में जरा भी दिलचस्पी है उन्हें ये फिल्म जरूर देखनी चाहिए. बहुत संवेदनशील और मासूम फिल्म है. रियलस्टिक तो है ही. कश्मीर से जुड़े किस पूर्वाग्रह को लेकर न जाएं तो ज्यादा बेहतर होगा. चूंकि फिल्म को गिने चुने स्क्रीन ही मिले थे, ऐसे में अगर ये रिव्यू पढ़ने तक फिल्म थियेटर से उतर गई हो तो किसी ऑनलाइन प्लेटफॉर्म या टीवी पर उसके आने की प्रतीक्षा कर सकते हैं.
वीडियो- फिल्म रिव्यू: मेरे प्यारे प्राइम मिनिस्टर