फिल्म रिव्यू xXx: ये फ़िल्म बनाने वालों को कांति शाह की गुंडा से सीख लेनी चाहिए
इस फिल्म में बहुत बड़ा सरप्राइज है.

आज फ़िल्म देखी गई ट्रिपल एक्स. xXx. विन डीज़ल और दीपिका पादुकोण की ये फ़िल्म xXx सीरीज़ का एक हिस्सा है. बचपन में इसकी पहली किस्त देखी थी. मेरे जीवन की पहली अंग्रेजी पिक्चर. गांव से पढ़ने के लिए शहर में भेजा गया था. वहां, स्कूल की ओर से ये फ़िल्म दिखाने ले गए थे. वापस आया था तो हाथ पांव फूले हुए थे. लग रहा था कि न मालूम क्या देख लिया है. तब तक हम आपके हैं कौन और तिरंगा जैसी फिल्में ही नसीब में होती थीं. मगर ये कुछ नया था. ज़ेंडर केज जब एक बर्फ़ गिराते पहाड़ के आगे आगे दौड़ रहा था तो कलेजा हलक में आने को था. उससे अच्छा कुछ नहीं था. अंग्रेजी फिल्मों का चस्का तब ही से लग गया. तीसरी किस्त देखी. ऐक्शन फ़िल्म थी. मगर रह-रह कर गुंडा फिल्म की याद आ रही थी. पुरानी (तीन चार साल पहले) की बॉलीवुड फ़िल्मों को छोड़ दें तो उसके बाद की सभी ऐक्शन फ़िल्में बनाने वाले डायरेक्टर्स को एक दफ़े बिठा के गुंडा फ़िल्म दिखाई जानी चाहिए. क्योंकि xXx की ये किस्त निहायती घटिया है. इस फ़िल्म को बनाने वालों को गुंडा से यकीनन इतना कुछ सीखने को मिलता कि वो इस फ़िल्म को ऑस्कर में दावेदारी के लिए भेज सकते थे. गुंडा. इमोशन और ऐक्शन का बेजोड़ मिश्रण. ये वो फिल्म थी जिसने देश के सभी इंजीनियरिंग स्टूडेंट्स को एकजुट किया था. वही स्टूडेंट्स जो अब तक सचिन वर्सेज़ द्रविड़, सहवाग वर्सेज़ वार्नर, ज़हीर वर्सेज़ एन्डरसन में पीले पड़े रहते थे. वो जो लड़ते थे कि कमरे में आयशा टाकिया का पोस्टर चस्पा होगा या अमीषा पटेल का. वो स्टूडेंट्स जो एक-एक पेग, एक-एक kash के लिए जूझते रहते थे, उन्हें एकता के सूत्र में पिरोया तो किसने? गुंडा ने. और एक ये कूड़ा है. xXx. खाली डायलॉगबाजी. वो भी अंग्रेजी में. कहीं पर भी लयबद्धता नहीं. कहीं कोई गद्य और पद्य नहीं. "मेरा नाम है बुल्ला. मैं रखता हूं खुल्ला." "मेरा नाम है पोते. जो अपने बाप के नहीं होते." "मुन्नी. मेरी बहन मुन्नी. तू मर गई? लम्बू ने तुझे लम्बा कर दिया? मचिस की तीली से खंबा कर दिया?" जैसे तमाम ऐतिहासिक डायलॉग से लैस फिल्म गुंडा. इन डायलाग के बारे में गुलज़ार वुलज़ार और श्याम बेनेगल से बातें करो तो बगलें झांकने लगें. एक वो डायलॉग और एक दीपिका पादुकोण. छी! फ़िल्म में जब बोलती हैं तो लगता है उल्टी बस होने ही वाली है. कैसे भी बस रोकनी पड़ती है. दीपिका पादुकोण का ये है कि उन्हें फ़िल्म में क्यूं रखा है, इसे अगले साल के आईएएस एग्ज़ाम में पूछा जाना चाहिए. उनके काम में क्या समझ में आया, ये तो इंटरव्यू का क्वेश्चन बनता है. एकदम आखिरी राउंड का. इसमें किसी को कुछ भी समझ में आ जाए तो उसे तुरंत कलेक्टर बना दिया जाना चाहिए. दीपिका पादुकोण फिल्म में वैसी ही लगती हैं जैसे बिरयानी में इलायची. जैसे यज्ञोपवीत संस्कार में अर्थी. जैसे क्रिकेट मैच में सफ़ेद तौलिया. जैसे यूपी इलेक्शन में ओवैसी. जैसे नोटबंदी में मोदी. जैसे इंडियन टीम में युवराज सिंह. जैसे टीवी पर स्वामी ओम. जैसे भाषण देते राहुल गांधी. जैसे चरखा चलाते माननीय मोदी जी. जैसे अमरीका के प्रेसिडेंट की कुर्सी पर ट्रंप. जैसे पंजाब का अगला सीएम कैंडिडेट अरविन्द केजरीवाल. जैसे अमिताभ का बेटा अभिषेक. ठीक वैसी ही लगती हैं दीपिका पादुकोण. और वो जैसे ही बोलना शुरू करती हैं तो लगता है जैसे क्रिकेट मैच के दौरान कोई ग्राउंड में टहलने आ गया हो. उन्हें नहीं होना चाहिए था. और नहीं होना चाहिए था का मतलब एक ही है - उन्हें नहीं होना चाहिए था. उन्हें सीख लेनी चाहिए थी गंगा से. जब चुटिया और बुल्ला मिलकर उसे मोलेस्ट करते हैं और उसके बाद उसकी हत्या कर देते हैं तो उसके चेहरे पर उससे ज़्यादा एक्सप्रेशन थे जो दीपिका की आवाज़ और उसके चेहरे में मिलाकर नहीं थे.यहां ये ज़रूर बता दिया जाए कि इस वक़्त अगर आप सोच रहे हैं कि गुंडा क्या है या फिर आपने इस फ़िल्म के बारे में सुना है फिर भी देखा नहीं है तो समय आ गया है कि आप एक आईने के सामने खड़े हों और खुद को तमाचे मारते जाएं.

https://www.youtube.com/watch?v=MQEFmHsseaUxXx यानी फ़िल्म के नाम पर कलंक. ऐक्शन फ़िल्म के नाम पर चिड़िया का मूत. जिसमें आप डूब कर जान भी नहीं दे सकते. आप इंतज़ार करते रहते हैं कि कब फिल्म खत्म हो. चूंकि आपने iMax में काफ़ी खर्चा करके फिल्म देखी है इसलिए आप पैसे वसूलने के चक्कर में बैठे रहते हैं. लेकिन मन ही मन खुद को कोस रहे होते हैं. इस फिल्म से जुड़े सभी लोगों को खुद को कोसना चाहिए. जी भर के. उन्हें एक टाइम मशीन बनवानी चाहिए और उस वक़्त में वापस जाना चाहिए जहां उन्होंने इस फिल्म पर काम करने को हां कहा था. और फिर उस पल को बदल देना चाहिए. जिससे न मैं ये लिख रहा होता. और न आप इसे पढ़ रहे होते. कितना अच्छा होता न?