फ़िल्म रिव्यू: रंगून
विशाल भारद्वाज की नई फ़िल्म.
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फोटो - thelallantop

फ़िल्म की बेसिक कहानी बहुत कुछ फियरलेस नाडिया से उठाई गई है. या ये कहिए कि जूलिया का पूरा कैरेक्टर असल में फियरलेस नाडिया का नाट्य रूपांतरण है. नाडिया 1913 में इंडिया आईं. दो साल बाद पिता की मौत हो जाने पर पेशावर चली गईं. तब पेशावर हिंदुस्तान में ही था. वहां घुड़सवारी, शिकार, मछली मारना और काफी कुछ सीखा. 1930 में इंडिया टूर पर आईं. फ़िल्म 'देश दीपक' में बार-बार रिक्वेस्ट करने पर एक छोटा रोल किया जो बेहद हिट हुआ. नाडिया हिन्दुस्तानी जनता के बीच फ़ेमस हो गईं और फ़िल्मों का बड़ा चेहरा बन गईं. नाडिया को फ़िल्मों में लाने वाले थे जमशेद वाडिया. 'वाडिया मूवीटोन' के मालिक. बाद में अपने भाई होमी वाडिया के साथ जमशेद वाडिया ने फियरलेस नाडिया को एक स्टार बना दिया.'रंगून' बहुत बड़ा और विशाल भारद्वाज का महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट है. इस फ़िल्म में उन्होंने वर्ल्ड वॉर-2 के वक़्त को दोबारा जिंदा कर दिया है. ये छोटा काम नहीं है. खासकर हमारे यहां जहां पीरियड ड्रामा के नाम पर कुछ भी ठोस उपलब्ध नहीं है. ऐसे में एक वॉर को दिखाना और भी मुश्किल है. इसलिए इस फ़िल्म में बहुत कुछ ऐसा था जिसे साथ में होना था. एकदम सिंक होकर. मगर हर जगह पैचेज़ में कमी दिखती रही.
अपने-अपने रोल में सैफ़ अली खान, शाहिद कपूर और कंगना रनौट एकदम फिट पाए जाते हैं. सैफ़ अली खान बने हैं रुस्तम, शाहिद कपूर नवाब मलिक और कंगना रनौट बनी हैं जूलिया. कंगना बहुत कन्विक्शन के साथ स्क्रीन पर दिखती हैं. अब ऐसा लगता है कि उनके लिए ऐक्टिंग करना खेलने जैसा हो गया है. ऐसा खेल जिसमें वो पारंगत हो गई हैं. सैफ अपनी नवाबियत यहां भी दिखाते हैं. ये शायद उनका कम्फर्ट ज़ोन है. और शाहिद के नाम का पट्टा विशाल भारद्वाज ने लिखवा लिया लगता है.

एक सीक्वेंस जो हालांकि फ़िल्म की कहानी में तो कोई उतनी अहमियत नहीं रखता है लेकिन फ़िल्म बनाने-लिखने वाले के दिमाग में चल रहे प्रोपगैंडा को दिखाता. फ़िल्म में एक जगह पर चर्चिल के वेश में खड़े ऐक्टर को दिखाया गया है जो अपने कुत्ते को आवाज़ लगा रहा है. कुत्ते का नाम है हिटलर. हिटलर अपने हाथों के बल चलता हुआ आता है, चर्चिल के इशारे पर काम करता है और फिर जब उसे सूसू आती है तो ज़मीन पर बने नक़्शे पर वो रूस पर सूसू करने जाता है. चर्चिल उसे रोकता है. वो जापान पर जाता है. वहां भी उसे परमिशन नहीं मिलती है. अंत में चर्चिल उससे आंखें बंद करने को कहता है और धोखे से जर्मनी के ऊपर ही हिटलर से सुस्सू करवा देता है. हिटलर अपनी आंखें खोलता है और जर्मनी को अपनी ही पेशाब में भीगा देख खुद की पिस्तौल से खुद को गोली मार लेता है. सामने बैठे अंग्रेज अफ़सर और उनके लिए लड़ने वाले हिन्दुस्तानी सैनिक तालियां पीट देते हैं.ऐसे सीक्वेंस हमें किस्तों में मिलते रहते हैं लेकिन कुल मिलाके उन्हें आपस में बुनने वाला धागा कहीं कहीं कमज़ोर लगता है. गाने समां बांध देते हैं. इसके लिए सारा क्रेडिट विशाल भारद्वाज को जाता है. फ़िल्म एक एक्सपेरिमेंट के तौर पर ज़्यादा देखी जाए. विशाल भारद्वाज को उनके नाम के तले न दबाया जाए. आसान नहीं है लेकिन एक्सपेक्टेशन ऐसा करवा ही देती हैं. किस्तों में बढ़िया माल देखने की इच्छा हो तो फ़िल्म देखें. थियेटर वाले एसी बहुत तेज चलाने लगे हैं अभी से. इसलिए फ़िल्म देखने जाएं तो स्वेटर-जैकेट जैसा कुछ ज़रूर पहन लें. मेरी तरह शर्ट में चले जाएंगे तो आधा टाइम खुद को समेटने में ही निकल जाएगा. https://www.youtube.com/watch?v=B-tC0wcIu24 Also READ: 'रंगून' को जिस हॉलीवुड क्लासिक जैसा बताया जा रहा है ये रही उसकी कहानीग्राउंड रिपोर्ट मल्हनी : निकम्मे मंत्री के सामने है कई हत्याओं का आरोपी बाहुबलीगांव में सुनीं ताजी डाल की टूटी 3 चौचक भ्रष्ट कथाएं23 औरतों के बलात्कार की वो चीखें, जो भारत को कभी सोने नहीं देंगी..वो ज़माना जब लड़के हीरो बनते थे गाकर समीर के गाने, बिना नाम जानेविशाल भारद्वाज गुस्साए, तो 'सिंघम' ने भी माफी मांगी