फ़िल्म रिव्यू - आइलैंड सिटी: शहर में इंसानों के 'एलियन' बनने की कहानियां
पढ़ें फिल्म रिव्यू.

आईलैंड सिटी.रुचिका ओबेरॉय. विनय पाठक. अमृता सुभाष. तनिष्ठा चैटर्जी.
नेशनल फिल्म डेवेलपमेंट कॉरपोरेशन ऑफ़ इंडिया. वही जिसने हम सभी को जाने भी दो यारों दी थी. वही एनएफ़डीसी लेकर आया है आइलैंड सिटी. नयी-नयी डायरेक्टर हैं रुचिका ओबेरॉय. पहली फिल्म डायरेक्ट की है. 72 वें वेनिस इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में वेनिस डेज़ सेक्शन में स्क्रीन की गयी. वहां उन्हें बेस्ट यंग डायरेक्टर का अवार्ड मिला.
फिल्म आइलैंड सिटी तीन कहानियों का मिक्सचर है. जो मिला-जुला के ये बताती हैं कि एक बड़े शहर में, जहां कितना कुछ चल रहा होता है, जहां हर कोई आ-जा रहा होता है, जहां हर कोई कुछ न कुछ कह रहा होता है, सुन रहा होता है, वहां हर इंसान दूसरे के मुकाबले एलियन बन जाता है. फिल्म बताती है कि कैसे एक शख्स उस पॉइंट तक पहुंच जाता है, या ये कहें कि उसे पहुंचा दिया जाता है, जहां उसकी चीज़ों को झेलने की ताकत ख़त्म हो जाती है. और फिर उसमें एक विस्फ़ोट होता है. किस तरह से शहरों में लोगों को ऑटोमेटिक बनाया जा रहा है. या ऑटोमेटिक बनाये जाने की कोशिश की जा रही है. यहां तक कि उनके इमोशन्स को भी. कुल मिलाकर फिल्म इंसानी फ़ितरत, इंसानों के आस-पास भी उसके एलियन बन जाने, उसके इमोशन्स के साथ होता मशीनी खिलवाड़ और शहर में समय से आगे भागने की कोशिश में पिछड़ते इंसान को दिखाती है.
फिल्म तीन सेक्शंस में बंटी हुई है. तीन कहानियां. एक दूजे से एकदम जुदा. पहली में विनय पाठक एक ऑफिस जाने वाले इंसान का रोल प्ले कर रहे हैं. ऐसा ऑफिस जहां इंसान मशीन बन चुका है. जहां इस बात पर रिसर्च होती है कि कैसे आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के थ्रू मशीन इंसानों को रिप्लेस कर सके. वहां विनय पाठक पर इस बात का दबाव डाल दिया जाता है कि वो खुश रहे और मज़े करे. और ये दबाव इस हद तक डाल दिया जाता है कि वो निर्देशों के ख़िलाफ़ जाने पर मजबूर होकर कुछ और ही बन जाता है. ज़्यादा बताया तो कहोगे कि यार तुम तो कहानी ही बता देते हो.
दूसरे हिस्से में एक परिवार दिखाया गया है जिसका रोटी कमाने वाला इंसान अस्पताल में कोमा में पड़ा हुआ है. और वो परिवार डूबा हुआ है एक टीवी सीरियल में. उस परिवार में सारी खुशियां, सारे दुख इस बात पे डिपेंड करने लगते हैं कि उस सीरियल में क्या चल रहा होता है. टीवी और असल लाइफ के बीच में खींचे गए इस पैरेलल के बीच कहानी घूमती रहती है. और एक समय के लिए आप कन्फ्यूज़ हो जाते हैं कि असल क्या है और टीवी का सीरियल क्या है? इन दोनों के बीच में क्या एक लाइन होनी चाहिए? क्या प्यार करने के लिए ये ज़रूरी है कि किसी भी हालात में साथ दिया ही जाए. और ऐसे कुछ सवाल उठते हैं. कहानियों को कम्पेयर करना ठीक नहीं होगा लेकिन आप इस दूसरे हिस्से से एक अलग तरह का जुड़ाव और प्यार महसूस करेंगे.
तीसरे और आखिरी हिस्से में एक लड़की. जिसकी शादी तय हो चुकी है. वो रास्ते में छेड़ी जाती है, एक नीरस नौकरी करती है, अनचाहे लड़के के साथ शादी करने को मजबूर है, पैसों की कमी तो दिखती ही है. और ऐसे में उसके हिस्से आती है एक खुशी. प्रेम-पत्र के रूप में. जिसे लिखने वाला कोई अनजान ही था. कहानी इसी में एक मोड़ लेती है. यहीं आकर तीनों कहानियां मिलती भी हैं. आगे कुछ भी बताया तो फिर से कहानी बता देने वाली बात हो जाएगी.
आइलैंड सिटी देखी जानी चाहिए. अकेले में. एकदम एकांत में. तब, जब आपके पास जो स्क्रीन पर चल रहा है, उसके बारे में सोचने का भरपूर टाइम हो. ये फिल्म उन फिल्मों में नहीं है जिसे आप यार-दोस्तों के साथ देखने जायें. ये फिल्म खुद के साथ देखने वाली फिल्म है. इस फिल्म के लिए रुचिका ओबेरॉय, एनएफ़डीसी, विनय पाठक, तनिष्ठा चैटर्जी को शुक्रिया कहा जाना चाहिए. अमृता सुभाष को थोड़ा सा एक्स्ट्रा थैंक यू. वो बेहद प्यारी लगी हैं. एक सीन में वो स्कूल के बच्चों को एक कविता गा-गा कर याद करवा रही हैं. उस सीन में स्क्रीन में घुस जाने का मन करता है. हम सबकी अपनी-अपनी एक फेवरिट मैम हुआ करती थीं. उस सीन को देखकर चाहत ये होती है कि आप फिर से बचपन में चले जायें और गाते हुए कवितायें सीखें.
फिल्म देखी जानी चाहिए. अगर कहानियों से प्यार हो. अगर ऐक्टिंग से प्यार हो. अगर कैरेक्टर्स में खुद को ढूंढ लेना अच्छा लगता हो.