नखलऊ लखनऊ शहर नहीं है. लखनऊ असल में सोहन पपड़ी है. हजारों परते हैं. हर परत महामीठी. बीच-बीच में पिस्ता और बादाम से मुलाक़ात होती रहती है. आंखों देखा हाल सुनाता हूं - अमीनाबाद से चौक जाने के लिए एक नॉर्मल सी सड़क को संकरा बनाने की खातिर पटरी वाले दुकानदार काफी रहते हैं. वो अपना काम पूरी तन्मयता से कर रहे थे. आने जाने वाली गाड़ियों के लिए अब सड़क आधी ही बची थी. टेम्पो, जिसपर हम स्वयं सवार थे और आगे बैठे आधी देह टेम्पो से बाहर निकाले हुए थे, अमीनाबाद से निकल चुका था. हमें तेज़ाब वाली गली पर उतरना था. जिसके मोड़ पर शिव मंदिर का लोहे का पीला द्वार लगा हुआ है.सवारी धकापेल जाम के बीच बस पहुंचने ही वाली थी कि आगे से मामला गंभीर होता हुआ दिखा. एक सुर्ख लाल ऑल्टो सामने से आ रही थी. दे हॉर्न पे हॉर्न. रिक्शे वाले और बाकी सभी उससे परेशान दिख रहे थे. हालत ये पहुंच गयी कि सब कुछ स्थिर हो गया. गाड़ी यूं सड़क के बीचों-बीच लग गयी थी कि कोई न आगे जा पा रहा था न पीछे. गाड़ी चलाने वाली कुछ मोटी मोहतरमा ने हॉर्न पर काफी खर्चा किया था शायद. इसलिए वो बजे जा रहा था. हमारे टेम्पो वाले ने स्थिति का जायज़ा लिया और अदब के साथ एक गाली को उपसर्ग बनाते हुए कहा, "अब तो टेम लगेगा." और इसके उपरांत मसाले का पैकेट फटता दिखा.
लखनऊ के आदमी के पास टेम ही टेम रहिता है. लेकिन जाम में उसको चुल उठती है. जाम से निकलने की. क्या है कि नवाबी गयी नहीं. और भीड़-भड़क्के में हज़रत कुछ परेशां हो उठते हैं. लिहाज़ा हर कोई आयें-बायें गाड़ी हिला-हुलु के निकलना चाह रहा था. एक रिक्शावाला कुछ ज़्यादा ही व्याकुल था. अच्छा, इससे पहले कि कहानी आगे बढ़े, लखनऊ के रिक्शे वालों के बारे में दो शब्द. हज़रात रिक्शे पे बैठे 8 रुपये में 25 मिलने वाली बीड़ी फूंक रहे होते हैं. रिक्शे का पिछवाड़ा उठाया होता है कि कहीं धूप न लग जाए. और उनसे पूछो "खाली हो?" तो कुछ जवाब नहीं देंगे. जवाब मिलता है "भइय्या खाली हो?" पूछने पर. और उस जवाब के पीछे सारा खेल उनके मूड पर होता है. अगर सुबह से 2-3 हबकानी सवारी मिल गई होती हैं तो सर न कहते हुए हिलता है. और यूं इत्मीनान के साथ हिलता है कि जैसे राजा कसमंडा की रियासत में लखपेड़ा की बाग़ इन्हीं के नाम पर लिख दी गयी हो.
उसी एक चुल से भरे रिक्शे वाले ने बीड़ा उठाया जाम से निकलने का. लाल ऑल्टो के ठीक बगल से निकलता उसका रिक्शा और ऑल्टो में बैठी पसीने से तर मोहतरमा को देखते ही बन रहा था. पसीना काफी आ चुका था. ऑल्टो एसी वाली नहीं थी. रिक्शे वाला निकलने ही वाला था कि उसने कार के दूसरी तरफ वाले पहिये पे नज़र जमाई. इस पहिये से जैसे ही नज़र हटी, पहिये ने नयी-नयी ऑल्टो को चूम लिया. रिक्शा चल रहा था और गाड़ी का पेंट उखड़ रहा था. एकदम सीधी लाइन. सचिन तेंदुलकर भी शर्मा जाए. असली स्ट्रेट ड्राइव तो यही थी. हर कोई स्क्रैच देख रहा था. रिक्शा वाला नहीं दिख रहा था. न रिक्शा. लखनऊ में रिक्शों के पंख लगे होते हैं. आप जायेंगे तो पायेंगे कि मैं एक बित्ता भी झूठ नहीं बोल रहा हूं. कार वाली आंटी को भी मालूम चल चुका था कि गड़बड़ हो चुकी है. उन्होंने शीशा नीचे उतारा. सड़क के किनारे पटरी वाले दुकानदार चचा ने अपनी कांख खजुआई. उनसे हंसते नहीं बन रहा था क्यूंकि मुंह में पान की गाढ़ी लार भरी हुई थी. पान तो कबका घुल चुका था. चचा ने सारा तरल बगल में ही भच्च से थूंका. मोहतरमा को देखा और एक शातिर हंसी के साथ कह पड़े, "अरे मैडम! लड़का काम लगा गया. आपकी गाड़ी का सारा हुस्न खराब हो गया." मैंने अपने जीवन में तमाम शेर-ओ-शायरी सुनी है लेकिन आज तक उस एक वाक्य में हुस्न की प्लेसमेंट किसी भी शेर में किसी भी शब्द की प्लेसमेंट को मात दे सकती है. उन पान चबाते चचा का नाम नहीं मालूम लेकिन चचा अमर हो चुके हैं. और यही लखनऊ है. उन्हीं चचा का लखनऊ. जॉली एलएलबी का नहीं.
एक वकील. या ये कहिये एक स्ट्रगलर जो स्ट्रगल कर रहा है एक वकील बनने की. उसे बड़ा आदमी बनना है. बड़ा वकील बनना है. 30 साल मुंशीगिरी का काम करने वाले बाप का बेटा जगदीश मिश्रा उर्फ़ जॉली. पैसाखाऊ है. बेईमान है. बीवी-बच्चे वाला है. मुंहफट है. जो है उससे बेहतर चाहता है. संतोष करने वालों में नहीं है. धोखाधड़ी करता है. आदत है. एक ऐसे ही चक्कर में उसकी फजीहत होती है. नेकी की राह पर चलने की कसम खा लेता है. इसी की कहानी है.
ये कहानी बहुत कुछ जॉली एलएलबी की पहली किस्त से मेल खाती है. ये समझिये कि गुझिया बनाने का एक सांचा है. जिसमें आप मटीरियल कुछ भी भरिये, शेप और साइज़ वही निकलेगा. मटीरियल बदला है. बस. सांचा वही है. पहला वाला. किरदार बदले हैं. कई ऐक्टर्स भी सेम हैं.
लेकिन फिर भी आप बोर नहीं होंगे. आपको मालूम है कि अंत में जीत सत्य की होनी है. जॉली की होनी है. लेकिन कैसे होगी? यही असल मटीरियल है. यही फिल्म है.
फिल्म में चमक-धमक नहीं है. लेकिन हुमा कुरैशी हैं. कतई नहीं लगता कि लखनऊ के एक ऐवरेज वकील की पत्नी हैं. स्टारडम जैसा कुछ लगा रहता है उनके साथ. हुमा गैंग्स ऑफ़ वासेपुर के अपने इंट्रो को ध्यान में रखती या उसे ही यहां भी कैरी कर लेतीं तो बहुत बेहतर रहता. लेकिन शायद फ़ॉक्स स्टार स्टूडियोज़ का लेबल ऐसा नहीं करवा पाया.
लखनऊ की बोली को पकड़ने की काफी कोशिश की गयी है. लेकिन काम चलाऊ ही है. "ओ भाई साइड दियो!" ये लखनऊ में कोई नहीं कहता. दियो-लियो अखरते हैं. मैं शायद ज़्यादा ही महीन बातों को पकड़ रहा हूं क्यूंकि मैं ज़रा लखनऊ से ऑबसेस्ड हूं. लेकिन जो बात है वो बात है गुरु. जगदीश मिश्रा कानपुर का है. लखनऊ कोर्ट में वकालत करने की कोशिश कर रहा है. जगदीश यानी जॉली यानी अरशद वारसी अक्षय कुमार. न कानपुर न लखनऊ. अक्षय कुमार दिल्ली के ज़्यादा मालूम देते हैं. बस पान खाते हैं. और वो गालियां नहीं देते जिनसे दिल्ली वाले सुबह कुल्ला करते हैं.
फ़िल्म में इस बार भी जज बने हैं सौरभ शुक्ला. "गोली मार भेजे में. भेजा शोर करता है" वाले कल्लू मामा अब जज बन गए हैं. एक पैसे का एफ़र्ट नहीं ऐक्टिंग में. सिर्फ क्लास. आप चाहते हैं कि फ़िल्म चलती रहे और सौरभ शुक्ला दिखते रहें. वो बोलते रहें. आप चाहते हैं कि वो झुंझलाएं, गुस्साएं. इसके अलावा जॉली के विरोधी वकील प्रमोद माथुर. यानी अन्नू कपूर. "एस बारे में कोछ नई बोलने का" वाले अन्नू कपूर. बचपन में जिन्हें मेरी आवाज़ सुनो कहते सुना था, आज कोर्टरूम में 20 साबित हो रहे थे. लोग उन्हें सुन रहे थे. वो खुद को सुनवा रहे थे. छोटे छोटे रोल्स में कई ऐसे ऐक्टर्स भी दिखे जो कम ही दिखते हैं. मगर अपने साथ ढेर सारी नॉसटेल्जिया लेकर आते हैं.
कहानी का स्ट्रक्चर वैसा ही है. बस बातें, किस्से वगैरह बदले हैं. बोली कुछ-कुछ बदली है. इंटरवल के बाद एक-दो जगहों को छोड़कर कहानी कहीं भी रूकती नहीं है. आप बोर नहीं होते हैं. ऐसी जगहें नहीं आती हैं जहां आप को उबासी आये. हां, फ़ेसबुक के नोटिफिकेशंस चेक करने का वक़्त मिलता रहता है.
फ़िल्म में ज़्यादा इंट्रेस्टिंग पार्ट कोर्ट की प्रोसीडिंग है. वैसे ही जैसे पहले पार्ट में था. केस मोड़ लेता रहता. आप भी उसी में साथ घूमते रहते हैं. आपको लगता है कि केस क्लियर हो गया और फिर अचानक से मामला पलट जाता है. रोलर कोस्टर राइड है. झेलाऊ नहीं है. ये अच्छी बात है.
इस फ़िल्म का सबसे हाई-पॉइंट है वो सीक्वेंस जिसमें अन्नू कपूर दागी पुलिसवालों का केस लड़ते हुए उनके पक्ष में एक लम्बी स्पीच देते हैं. मोनोलॉग है. आप उन्हें सुनते हैं और सन्न रह जाते हैं. आप उनके साथ खड़े हो जाते हैं. उनके पक्ष में. और अचानक आपको याद आता है कि वो तो उन लोगों के साथ हैं जो ग़लत हैं. आप खुद को वापस खींचते हैं. और यहीं पर अन्नू कपूर, डायरेक्टर और राइटर सुभाष कपूर जीत जाते हैं. अन्नू कपूर किसी ताम्बे के बर्तन के लिए एकदम नींबू जैसे हैं. कितना भी जिद्दी ताम्बा हो, नीम्बू रगड़ते ही चमक उठता है. अन्नू कपूर सीक्वेंस को चमका देते हैं.
कहानी, ऐक्टिंग, डायरेक्शन सब साथ चलता है. अच्छा चलता है. फ़िल्म अक्षय कुमार की "दिमाग को घर पर रख कर जायें" वाली फ़िल्मों की तरह नहीं है. बाकी अतिश्योक्ति में डूबी फ़िल्मों की तरह नहीं है. फ़िल्म में गाने नहीं हैं. ये भी एक रिलीफ़ की बात है. बस लखनऊ की कहानी से गायब लखनऊ की बात हटा दें तो जॉली एलएलबी देखी जानी चाहिए.
https://www.youtube.com/watch?v=q07SQFmL4rM