फिल्म रिव्यू- बधाई दो
होमोसेक्शुएलिटी के सामाजिक और पारिवारिक स्वीकार्यता के जद्दोजहद की कहानी.
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फिल्म 'बधाई दो' के एक सीन में फैमिली के सामने अच्छा कपल बनने का नाटक करते शार्दुल और सुमन.
'बधाई दो' की कहानी घटती है उत्तराखंड में. शार्दुल ठाकुर नाम का एक पुलिसवाला है. उम्र 32 साल. घरवालों का ताना सुन-सुनकर उसके जीवन का ताना-बाना बिगड़ चुका है. दूसरी तरफ हैं सुमन सिंह. स्कूल में फिज़िकल एजुकेशन टीचर हैं. ये भी शादी का फैमिली प्रेशर झेल रही हैं. शार्दुल और सुमन दोनों ही होमोसेक्शुअल हैं. मगर क्लोज़ेट से बाहर नहीं आए हैं. ऐसे में ये लोग फैमिली की झिक-झिक से बचने के लिए शादी कर लेते हैं. रूममेट्स की तरह रहते हैं. और अपने हिसाब से अपनी पर्सनल लाइफ जी रहे हैं. मगर घरवालों की डिमांड कभी खत्म नहीं होती. शादी के बाद उन्हें इस कपल से बच्चा चाहिए. असली फिल्म तब शुरू होती है, जब उनकी फैमिलीज़ को पता चल जाता है कि शार्दुल और सुमन गे-लेस्बियन हैं. आगे क्या होता है, ये जानने के लिए आपको फिल्म देखनी पड़ेगी. और हमारे हिसाब से आपको ये फिल्म देखनी ही चाहिए.

अपना पुलिसवाला हीरो शार्दुल ठाकुर, जो फुल प्रोटीन शेक पी-पीकर बॉडी बनाए हुए है. क्योंकि वो मिस्टर इंडिया बनना चाहता था.
'बधाई दो' में एक सीन है, जब शार्दुल अपने मन की बात सुमन को बता रहा होता है. ये बहुत दिल तोड़ने वाला सीन है. क्योंकि जब आप एक मिडल क्लास फैमिली से आते हैं और गे हैं, ये चीज़ आप पूरी दुनिया के साथ अपनी फैमिली को भी नहीं बता सकते. क्यों? क्योंकि वो नहीं समझेंगे. यही इस फिल्म का मेन थीम है. होमोसेक्शुअल कैरेक्टर्स के बारे में बहुत सी फिल्में बनी हैं. मगर यहां सेंटर में फैमिली है. छोटे शहर में रहने वाली एक मिडल क्लास फैमिली. उन्हें समझाना है. मगर क्रांति से नहीं शांति से. हमारी सोसाइटी अब भी होमोसेक्शुअल लोगों को नॉर्मल नहीं समझती. उनसे अलग तरीके से बर्ताव किया जाता है. शार्दुल एक सीन में कहता है कि वो पुलिसवाला है. मगर पुलिस से सबसे ज़्यादा डर उसे ही लगता है. क्योंकि वो गे पुलिसवाला है. शार्दुल के शब्दों में कहें, तो-
'जैसे रोबो कॉप होता है न, वैसे ही मैं होमो कॉप हूं.'
आमतौर पर हमारे यहां बनने वाली फिल्मों में किसी भी मसले का बर्ड आई व्यू दिखा दिया जाता है. यानी वो चीज़ दूर से कैसी दिखती है. 'बधाई दो' होमोसेक्शुअल लोगों की उन दिक्कतों पर बात करती है, जो उन्हें अपनी रेगुलर लाइफ में फेस करनी पड़ती है. जैसे उनका अकेलापन. अपनी सेक्शुएलिटी के बारे में किसी से बात न कर पाना. फैमिली का सपोर्ट न होना. तमाम तरह की छोटी मगर मोटी बातें. और ऐसा करने के दौरान ये फिल्म उन किरदारों के प्रति संवेदनशील बनी रहती है. 'लैवेंडर मैरिज' के कॉन्सेप्ट पर फिल्म बनाने का एक फायदा ये भी है कि आप महिला और पुरुष दोनों का पर्सपेक्टिव दिखा सकते हैं. क्योंकि दोनों का स्ट्रगल अलग किस्म का है. हालांकि 'बधाई दो' में उस बारे में ज़्यादा बात नहीं होती. मगर ऑब्वियस चीज़ों को अवॉयड भी नहीं किया जाता.
सुमन सिंह को लैवेंडर मैरिज के लिए कन्विंस करता शार्दुल.
'बधाई दो' में शार्दुल ठाकुर का रोल किया है राजकुमार राव ने. वो सोसाइटी से लड़ने की बजाय उससे छुपकर-बचकर रहना चाहता है. दूसरी तरफ वो पेशे से पुलिसवाला है, जिसे सख्त दिखना है. राजकुमार राव ने बड़े ही ग्रेसफुल और कंट्रोल्ड तरीके से ये कैरेक्टर प्ले किया है. खासकर वो सीन्स, जिनमें उन्हें वल्नरेबल दिखना था. भूमि पेडणेकर ने सुमन सिंह का रोल किया है. सुमन इंडीपेंडेंट मॉडर्न वुमन है. उसकी पर्सनैलिटी में दिखता है कि वो अपनी सेक्शुएलिटी को लेकर कभी शर्मिंदा या अपोलोजेटिक नहीं रही. वो एक नो-नॉनसेंस कैरेक्टर है, जो भूमि पर खूब फबता है.

अपनी पार्टनर रिमझिम के साथ सुमन. फिल्म में रिमझिम का रोल चांग दरम ने किया है.
दरम चांग ने फिल्म में रिमझिम का रोल किया है, जो भूमि की पार्टनर है. ये दरम की पहली फिल्म है. फिल्म में उनका होना अपने आप में एक पॉज़िटिव चेंज है. क्योंकि नॉर्थ इंडियन एक्टर्स हमारी फिल्मों में बेहद कम देखने को मिलते हैं. और जो रोल्स उन्हें दिए जाते हैं, वो बिल्कुल घिसे-पिटे किस्म के होते हैं. ऐसे में दरम एक मेनस्ट्रीम हिंदी फिल्म में पैरलल लीड में नज़र आती हैं. गुलशन देवैया एक छोटे से किरदार में दिखते हैं. वो फिल्म का सबसे प्यारा सरप्राइज़ फैक्टर है. इनके अलावा सीमा पाहवा और शीबा चड्ढा जैसे एक्टर्स भी इस फिल्म का हिस्सा हैं. सीमा कमोबेश वही कर रही हैं, जो वो पहले भी कई फिल्मों में कर चुकी है. कॉमिक एलीमेंट ऐड करना. हालांकि शीबा चड्ढा को शार्दुल की मां के रोल में देखना मज़ेदार लगता है.

शार्दुल की मां और ताई जी, जो शादी के बाद कपल से बच्चे की मांग कर रही हैं. इसके लिए बाकायदा उन्होंने एक प्लान भी बनाया था. ये रोल्स सीमा पाहवा और शीबा चड्ढा ने किए हैं.
'बधाई दो' एक सेंसिबल फिल्म है, जो एक ज़रूरी विषय पर पूरी गंभीरता से बात करती है. फिल्म अपने कॉज़ को लेकर इतनी कमिटेड है कि आखिरी सीन तक होमोसेक्शुएलिटी को नॉर्मलाइज़ करने की कोशिश करती रहती है. हर फिल्म की एक तय समय-सीमा और खाका होता है कि वो क्या दिखाना चाहती है और क्या छोड़ देना चाहती है. ऐसे में 'बधाई दो' पूरी तरह से सामाजिक और पारिवारिक स्वीकार्यता की जद्दोजहद पर फोकस रखती है. ऐसा नहीं है कि ये फिल्म गे या लेस्बियन होने को लेकर हमारा नज़रिया एक झटके में बदल देगी. मगर ये उस विषय के आसपास एक बहस ज़रूर शुरू करेगी. 'बधाई दो' अपने सब्जेक्ट को लेकर एक ईमानदार कोशिश करती है. जिसके लिए इसे फुल मार्क्स मिलने चाहिए.