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फिल्म रिव्यू: अन्नाते

सुपरस्टार रजनीकांत की नई फिल्म, जहां हीरो के अलावा किसी और को देखने की कोई तुक है ही नहीं.

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फिल्म रिव्यू: अन्नाथे
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मुबारक
5 नवंबर 2021 (Updated: 5 नवंबर 2021, 01:25 PM IST)
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भारत में कोई बड़ी फिल्म किसी उत्सव से कम नहीं होती. और उसमें भी अगर रजनीकांत की फिल्म हो, तो समझिए कोई प्राइम फेस्टिवल है. इस सत्तर वर्षीय युवा को बड़े परदे पर देखने का क्रेज़ अब सिर्फ साउथ सेंट्रिक बात नहीं रही है. इसका एक मज़बूत सबूत दिल्ली शहर के पंजाबी बहुल इलाके जनकपुरी के एक मल्टीप्लेक्स में फिल्म देखते हुए मिला. जब रजनीकांत की एंट्री हुई, तो सीटियों और तालियों का इतना शोर हुआ कि आगे के कई सारे डायलॉग्स सुनाई ही नहीं दिए. किसी कलाकार से जनता का ये कनेक्शन और सिनेमा घरों में लौटती रौनक देखकर दिल खुश तो बहुत हुआ, लेकिन.... क्या ये ख़ुशी बरकरार रह पाई? क्या रजनीकांत की लेटेस्ट फिल्म 'अन्नाते' इस ग्रैंड वेलकम का सिला दे पाई? यही जानेंगे आज. # भाई-बहन का नॉन-कन्विंसिंग प्यार 'अन्नाते' शुरू होती है न्यूज़ चैनल्स की हेडलाइंस से. जहां बताया जा रहा है कि 'अन्नाते' नाम का एक आदमी कोलकाता के सबसे बड़े डॉन की जान का ग्राहक बना हुआ है. एक तमिल आदमी पूरे शहर में उत्पात मचा रहा है. पूरा अंडरवर्ल्ड अन्नाते को खोज रहा है. लेकिन क्यों? क्यों एक तमिलियन अपने राज्य से इतनी दूर मारा-मारा फिर रहा है? पता चलता है कि डॉन ने अन्नाते की बहन का कोई अहित किया है और इसी से भड़का 'अन्नाते' उसकी सल्तनत को तबाह करने पर तुला हुआ है. इस इंट्रो के बाद कहानी फ्लैशबैक में पहुंच जाती है. सीधे तमिलनाडु के एक गांव में, जहां अन्नाते ने अपनी बहन मीनाक्षी के लिए दुनिया को जन्नत बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रखी. फिल्म बड़ी तसल्ली से भाई-बहन की बॉन्डिंग को और अन्नाते के लार्जर दैन लाइफ किरदार को एस्टैब्लिश करते हुए चलती है. और आप वो सब देखते हैं, जो आज तक इन जनरल सैंकड़ो बार और सिर्फ रजनीकांत को ही करते दर्जनों बार देख चुके हैं. भाई-बहन की बॉन्डिंग पर पहले भी काफी फ़िल्में बनी हैं. साउथ वालों ने तो इस सब्जेक्ट को अलग ही जॉनर बना रखा हुआ है. हिंदी में डब या रीमेक हुईं 'अनाड़ी' या 'डोली सजा के रखना' जैसी फ़िल्में ही याद कर लीजिए. ओवर प्रोटेक्टिव भाई का किरदार साउथ वालों के लिए कोई नई बात नहीं है. 'अन्नाते' उर्फ़ कालैयन भी ऐसा ही एक भाई है. अन्नाते का मतलब ही बड़े भैया है. बहन से प्यार का आलम ये कि शहर में पढ़ने वाली बहन जब घर लौटती है, तो जिस ट्रेन से आती है उसके तमाम पैसेंजर्स का स्वागत का करता है. उसकी शादी गाँव से पांच किलोमीटर के रेडियस में करना चाहता है ताकि जब भी बहन को ज़रूरत हो फटाक से पहुंच सके. और तो और, बहन दिमाग में भाई का नाम सोच लेती है और वो तुरंत उसके पास नमूदार होकर दिखा देता है. इतनी तगड़ी बॉन्डिंग होने के बावजूद जब बहन को असल में भाई के सपोर्ट की ज़रूरत होती है, वो भाई तक अपनी बात नहीं पहुंचा पाती. ये इस कहानी का सबसे कमज़ोर पक्ष है. इंटरवल से जस्ट पहले कहानी में आने वाला ट्विस्ट इतना बचकाना है कि उस पर स्थित आगे की सारी कहानी बेतुकी लगने लगती है. आप खुद से ये सवाल करते हैं कि जब अन्ना-तंगछी यानी भाई-बहन में इतना ही मज़बूत रिश्ता था, तो ये जो परदे पर हो रहा है, ये क्यों हो रहा है? # नकली गांव और गुमशुदा स्क्रिप्ट चाहे फर्स्ट हाफ का गांव हो या सेकंड हाफ का कोलकाता, सब सतही लगता है. फिल्म पूरी तरह रजनीकांत पर आश्रित लगती है. समझती है कि उनकी विशालता के पीछे सारी कमियां छिप जाएंगी. एक लम्बे अरसे बाद रजनीकांत इस फिल्म में वो सब कर रहे थे, जो नाइंटीज़ की अपनी फिल्मों में उन्होंने बहुतायत में किया था. गांव में रहने वाले एक न्यायप्रिय, साहसी, हंसमुख व्यक्ति का किरदार. उनकी 'अरुणाचलम', 'यजमान', 'मुत्थु' जैसी कितनी ही फ़िल्में थीं, जहां उन्होंने ये किरदार कमाल ढंग से किया था और बॉक्स ऑफिस पर पैसों की बाढ़ ला दी थी. 'अन्नाते' में वही किरदार है लेकिन गांव का वो माहौल नदारद है. एक बड़े से पेड़ के नीचे बैठकर भीड़ से बात करने के दो सीन से गांव एस्टैब्लिश नहीं होता, ना ही कोलकाता में तमाम लोग फ़्लूएंट तमिल बोलते हैं. ऐसे कई सारे लूपहोल्स हैं, जिनके चलते फिल्म हर गुज़रते लम्हे अविश्वसनीय लगती चली जाती है. रजनीकांत की तीन साल पहले आई 'काला' भी एक आउट एंड आउट कमर्शियल फिल्म थी, लेकिन वहां 'दी रजनी' के लार्जर दैन लाइफ किरदार को संभालने के लिए स्क्रिप्ट तो थी! एक बिलिवेबल स्टोरी लाइन का सपोर्ट तो था! इसलिए उसमें रजनी का ओवर दी टॉप होना खला नहीं. 'अन्नाते' में स्क्रिप्ट नाम की वस्तु सिरे से गायब है. फिल्म का फर्स्ट हाफ पूरी तरह से सेलिब्रेशन है. रजनीकांत के होने का सेलिब्रेशन. उनकी एंट्री, उनका ह्यूमर, उनके तालीमार डायलॉग्स, उनका एक्शन, उनका करिज़्मा. फिल्म में उनके आसपास के किरदार और परदे के सामने बैठा दर्शक समान मात्रा में इम्प्रेस रहता है. कि क्या ही आदमी है यार! उनका हर सीन - आई रिपीट हर सीन - ऐसा है, जैसे किसी भगवान की लीलाएं, जिन्हें नश्वर मनुष्य बस मुंह खोले देखता चला जाता है. रजनीकांत की इस दुनिया में सब लाउड है. यहां तक कि नॉस्टैल्जिया क्रिएट करने के लिए जबरन फिल्म का हिस्सा बनाई गईं दो कद्दावर अभिनेत्रियों के किरदार भी हास्यास्पद लगते हैं. मीना और खुशबू सुंदर, दोनों ही तमिल सिनेमा का बड़ा नाम रही हैं. दोनों ने ही रजनीकांत के साथ काफी हिट फ़िल्में दी हैं. नाइंटीज़ में तो एक समय ऐसा था, जब रजनी और मीना का पेयर काफी सेलेबल बन गया था. लेकिन 'अन्नाते' में इन दोनों को ही पूरी तरह वेस्ट किया गया है. दिल से बुरा लगता है भाई. हालांकि एक सीन में मीना-रजनी की 'मुत्थु' फिल्म का बेहद पॉपुलर गीत 'तिलाना-तिलाना' बजता है, तो थोड़ा सुखद आश्चर्य तो होता ही है. क्योंकि नास्टैल्जिया का तो कोई रिप्लेसमेंट है नहीं. इसके अलावा सब ख़राब. # कॉकटेल है, वो भी टेस्टी नहीं बेसिकली, 'अन्नाते' रजनीकांत की ही कई पुरानी फिल्मों का कॉकटेल लगती है. शुरू में आपको लगेगा कि आप उनकी 'बाशा' या 'त्यागी' जैसी फिल्म देख रहे हैं, जिसमें एक भला आदमी गुंडा बन जाता है. फिर आपको लगेगा किसी ने 'मुत्थु' चला दी है. फिर फिल्म 'पनक्कारन' का फील देने लगेगी. बाकी एक्शन तो 'शिवाजी' से लेकर 'काला'/'कबाली' तक सबकी याद दिलाएगा. फिल्म में रजनीकांत के अलावा और किसी के लिए करने को कुछ था ही नहीं. कहने को कीर्ति सुरेश का रोल पर्याप्त लंबा था लेकिन स्क्रिप्ट के अनुसार उन्हें ज़ोर-ज़ोर से रोने और आपने भाई को याद करने के अलावा तीसरा कोई काम करना ही नहीं था. नयनतारा का किरदार प्रेज़ेंट तो बड़े जोर-शोर से किया गया लेकिन फिर उन्हें भूल ही गए मेकर्स. एक वकील, जो बाद में बहन की केयर टेकर और कोलकाता में रजनी की ट्रांसलेटर बनकर रह गई. प्रकाश राज का रोल सिर्फ इंटरवल से पहले तक का है, वो अपना काम ईमानदारी से कर जाते हैं. विलेन मनोज पारेकर के रोल में अभिमन्यु सिंह की कास्टिंग ठीक लगती है. वो, वो सब कर जाते हैं जो साउथ की मसाला फिल्मों में विलेन को करना होता है. हीरो को बड़ी-बड़ी धमकियां देना, अपने गुर्गों से अजीब तरीके से बात करना, हीरो की कामयाबी पर तिलिमिलाकर दिखाना और अंत में हीरो से भरपूर मार खाना. ये सब रूटीन काम अभिमन्यु सिंह ने ठीक से कर दिए हैं. एक्चुअली, ऐसी फिल्मों में सब कुछ हीरो के पक्ष में होता है. वो सिर्फ क्लाइमैक्स में ही नहीं, पूरी फिल्म भर हावी रहता है. तमाम चीज़ें उसी के हिसाब से चलती हैं और वो सीन दर सीन तालियां बटोरता चलता है. रजनीकांत इस काम में डबल पीएचडी धारी हैं. ज़ाहिर है उन्होंने सब एफर्टलेसली किया है. इसी वजह से उनके कोर फैन्स को ये फिल्म बहुत पसंद आएगी इसमें कोई शक नहीं. फिल्म ख़त्म होने के बाद परदे के सामने खड़े होकर फोटो खिंचवाते फैन्स देख आया हूँ मैं. सो फैन्स के लिए ये फिल्म महाभोज जैसी ही है. हां अच्छे सिनेमा के नज़रिए से फिल्म संतुष्ट नहीं करती. ख़ास तौर से तब, जब तमिल और मलयालम सिनेमा एक के बाद एक अद्भुत फ़िल्में दे रहा है. इसी साल तमिल सिनेमा ने 'कर्नन', 'कूलंगल' और 'जय-भीम' जैसी कमाल फ़िल्में दी हैं. 'कूलंगल' को तो हमने ऑस्कर भेजने के लिए चुन लिया है. उम्दा फ़िल्में बनाने के इस उपक्रम को 'अन्नाते' कमज़ोर करने का काम करती है. बड़े कलाकारों को ऐसा नहीं होने देना चाहिए. बाकी सब तो जो है सो है. रजनीकांत का जलवा तीस साल पहले जितना था, उतना ही अब भी है. और आगे भी रहेगा इसमें कोई डाउट नहीं है. अगर आप रजनी फैन हैं, तो 'अन्नाते' देख सकते हैं. बल्कि देखेंगे ही. बाकी लोग चाहें तो स्किप कर सकते हैं.

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