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ऑल इंडिया रैंकः नूडल सा दिल और प्लेबॉय के पन्ने (फ़िल्म रिव्यू)

अपने टप्पेदार हास्य और गीतों से "मोह मोह के धागे" बुनने वाले Varun Grover बतौर डायरेक्टर लेकर आए हैं अपनी पहली फ़िल्म - All India Rank. विश्व के फिल्मोत्सवों में प्रशंसा पाने के बाद अब ये फ़िल्म नज़दीकी सिनेमाघरों में लगी है. पढ़ें इसका विस्तृत रिव्यू.

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Movie Review of All India Rank directed by Varun Grover
प्रतियोगिता परीक्षाओं और एलीट शिक्षा संस्थानों को लेकर बनी सामाजिक ग्रंथि पर फ़िल्म टिप्पणी करती है. इसके केंद्रीय पात्र युवा लड़के कहते हैं - "हमने तोड़े तीर हज़ारों, हमने मारे वीर हज़ारों. न्यूटन की एक थियरी ख़ातिर, हम भूले मीर हज़ारों." यहां नज़र आ रहे हैं विवेक और सारिका.
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गजेंद्र
28 फ़रवरी 2024 (Updated: 28 फ़रवरी 2024, 18:38 IST)
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   रेटिंग - 4 स्टार   

परम प्रश्न. कैसी है "ऑल इंडिया रैंक"?

वैसी, मानो "3 इडियट्स" जैसी हंसोड़, जीवन के घूमेरदार प्रश्नों के बहुत मुहावरेदार उत्तर देने वाली फ़िल्म किसी रोज़, सई परांजपे की कोमल स्पर्श भरी, कैरी के अचार जैसे रसीले खट्टे हास्य वाली और जीवन से निकले प्राण भरे पात्रों वाली "चश्मे बद्दूर" का हाथ पकड़कर खेल रही हो.  

यह डायरेक्टर वरुण ग्रोवर का अपना ऑथेंटिक सिग्नेचर है. उनका सिनेमा उनकी राइटिंग जैसा ही भीना भीना, पोलिटिकली करेक्ट, परिष्कृत, वैकी और रिच है. ख़ास बात यह है कि उनकी यह फ़िल्म न सिनेमा के किसी स्टाइल में कैद है, न किसी बाऊंड्री में ख़ुद को बंधने देती है, न अपनी अभिव्यक्ति में कुछ भी सेंसर करती है. एक बहुत अच्छी भारतीय फ़िल्म.

इससे पहले रिचर्ड लिंकलेटर की "बॉयहुड" को देखते हुए ऐसा अहसास हुआ था. बालवय और किशोरवय का रियल टाइम चित्रण हो मानो. फ्रेम्स ऐसे जैसे आप छू पाएं. फ्रेम्स में जो मौसम दिख रहा है, उसे महसूस कर पाएं. सांस भरें तो फ्रेम के अंदर से ऑक्सीजन अपने फेफड़ों में भर लें. जीवन से निकले संवाद. हमारी तरह ही मुस्कुराते-रोते लोग. और, सबसे विरली बात यह कि लिंकलेटर ने 12 वर्षों में इसे शूट किया. बच्चे का पात्र कैमरे के फ्रेम्स में ही नहीं, असल में भी बड़ा हो रहा था. इससे ज़रा भिन्न अर्थों में, इतने ही वर्ष संभवतः वरुण ने भी अपनी परियोजना को दिए. दोनों ही फ़िल्मों के पात्र एक बिंदु पर आकर कहते हैं - ये सब अर्थहीन है.

"ऑल इंडिया रैंक" की कहानी नब्बे के दशक के भारत में सेट है. विवेक (बोधिसत्व शर्मा) नाम का लड़का है. किशोरवय. अंतर्मुखी. पिता (शशि भूषण) के सपनों को ढोता हुआ. इसे अभिव्यक्त करता गीत भी आता है - "चॉइस ही नहीं है भाई, चॉइस ही नहीं है भाई. बोलना तो बहुत है पर वॉइस ही नहीं है भाई." पिता चाहता है कि वह कोटा से कोचिंग करके भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) में पढ़े और अपने जीवन (विशेषकर सुख समृद्धि) को अपने वश में कर ले. वह नियंत्रण जो पिता सिगरेट की लत पर न कर पाया और मां (गीता अग्रवाल) मोतीचूर के मीठे लड्डुओं के सेवन पर न कर पाई, चाहे खा-खाकर बेहोश ही क्यों न हो जाए. अपनी यह कहानी विवेक सुना रहा है. साथ में बदलते भारत, नब्बे के दशक के आर्थिक उदारीकरण, उससे समाज में आने वाले परिवर्तनों, उपभोक्तावाद, पॉप कल्चर, किशोरमन की फैंटेसियों, कामेच्छाओं, हताशाओं पर भी टीका करता चल रहा है.    

सबसे अनूठी बात है कि यह एक जेंटल फ़िल्म है. इसका स्पर्श स्त्रैण है. केवल अपनी एडिटर (संयुक्ता काज़ा), डीओपी (अर्चना घांगरेकर), प्रोडक्शन डिज़ायनर (प्राची देशपांडे), विजुअल इफेक्ट्स प्रोड्यसूर (गायत्री धावड़े) और नखों पर रंग लगाने वाले दिग्दर्शक वरुण ग्रोवर की कोर रचनात्मक टीम के कारण ही नहीं. केवल अपने बुद्धिमान, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर, स्वतंत्र स्त्री पात्रों के कारण ही नहीं - जिनमें "दिमाग में बरफ और दिल में आग जलाके रखना" का मूलमंत्र देने वाली कमाल की कशिश भरी आईआईटी कोचिंग की बुंदेला मैम भी हैं (शीबा चड्ढा की अत्यंत सुयोग्य कास्टिंग); विवेक की मां मंजू भी है जो पीसीओ पर बैठती हैं; खचाखच भरे कोचिंग हॉल में सब लड़कों से होशियार पड़ती सारिका (समता सुदीक्षा) है जो प्रश्नबाण छोड़ते कहती है, "अंकल लोगों को लगता है लड़कियां सिर्फ बहन हो सकती है और लड़कों को लगता है कि सिर्फ गर्लफ्रेंड. क्या दोस्ती जैसी कोई चीज़ नहीं होती है?" लेकिन इन सबसे भी ऊपर फ़िल्म की स्त्रैण कोमलता इसलिए अधिक लुभाती है क्योंकि केंद्रीय पात्र लड़का पुरुषोचित सख़्ती का शिकार नहीं है. वह रोता है, फूट फूटकर, स्नानघर के फव्वारे के नीचे. उसे "मर्द को दर्द नहीं होता" वाला अभिमान नहीं है. वह कोमल है. संवेदनशील है. लैंगिक घमंड से परे है. रोता है. निराश होता है. शर्माता है. बेहद शर्माता है. मासूमी से. लड़की कहती है - "मैं तुम्हें पसंद करती हूं" तो उसकी शर्माहट समेटे नहीं सिमटती. अनमोल जेस्चर - कोमल, कच्चा, अनगढ़, अगणनीय. वह बहुत सुंदर पल होता है जब उसकी किशोरवय यौन इच्छाओं को रेप्रज़ेंट करने के लिए 1995 में आई 'रंगीला' के "स्पिरिट ऑफ रंगीला" का बीजीएम बरता जाता है. रॉन्ची, उत्तेजक सा.

नब्बे का नॉस्टेलजिया इस फ़िल्म की अंतर्रात्मा है. इसके एक-एक रन्ध्र में है. 25 पैसे में आने वाली खट्टी मीठी हाजमे की टॉफी - स्वाद. संचार का साधन एसटीडी पीसीओ जिससे विवेक मां को फोन करता है और मां कहती है "चार मिनट होने वाले हैं. और बात करनी है या रख दूं?" गोंद-घी-बादाम के लड्डू जो मांएं भेजा करती थीं बच्चों के साथ, जिसे वे बोर्डिंग या हॉस्टल में साल भर चलाने का प्रण लेते थे. "तहकीकात, ये है तहकीकात" सीरियल की धुन गुनगुनाता आईआईटी का लड़का. दीवार पर चिपके अजय जडेजा से लेकर अज़हरुद्दीन जैसे क्रिकेटर्स के पोस्टर. कमरे में प्लेबॉय मैगज़ीन. ओशो की "संभोग से समाधि तक." विवेक की केपरडिएम की टीशर्टें. फारगो गैस मेन्टल का डब्बा जिसमें लोग अपने सामान रखा करते थे. टेप पर बजता "पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा..." का फ़िल्मी गीत. 26 जनवरी या 15 अगस्त को घर के टेलीविज़न पर आता राजपथ से परेड का लाइव टेलीकास्ट. पापा का पुराना एलएमएल स्कूटर. रात को बार बार लाइट का चले जाना. दोपहर में मैंगो कोला पीते बच्चे. कैसेट प्लेयर से गाने सुनता विवेक. इसी प्रकार, ओपनिंग क्रेडिट्स में चुन चुनकर वे सब चीजें उकेरी गई हैं जो हमारे बचपन, किशोरवय का लालच हैं - टॉफी का रैपर, लॉलीपॉप, कैसेट, टैंपू, नूडल्स, फटफटिया. गीत भी आता है तो उसके रमणीय, उपभोज्य बोल होते हैं -   
"मैं रैपर हूं तू लॉलीपॉप, मैं दूध और तू कॉफी  
मैं कैटवुमन तू रोबोकॉप, मैं कंप्यूटर तू फ्लॉपी
नूडल सा दिल, 
उलझा है तुझपे ही ये, फिसला है 
नूडल सा दिल"

"थ्री ऑफ अस" में अपने संवादों की सुंदर रस-वर्षा में वरुण ग्रोवर ने भिगोया था. एक प्राणप्रिय दृश्य में शैलजा और कादंबरी बात कर रहे हैं. शैलजा मुंबई से कोंकण आई है, अपने ही भीतर खोया कुछ खोजने. यहां उसका बचपन का प्रेम प्रदीप रहता है. प्रदीप की पत्नी कादंबरी से वो बात कर रही है. कहती है - "तुम्हें बहुत अजीब लगा होगा न, मैं अचानक वापस आ गई प्रदीप को मिलने?" इस पर एक विरली ही ईर्ष्या विहीनता की कांति लिए कादंबरी कहती है - "सच बोलूं? अजीब लगा पर बहुत प्यारा अजीब लगा. देखिए न, मैं एक हफ्ते से बालों में मेहंदी लगाने का सोच रही हूं. लेकिन रोज़ न लगाने का कोई न कोई बहाना ढूंढ़ ही लेती हूं. जिस दिन लगाने बैठ जाऊंगी न, कोई बहाना नहीं मिलेगा. आपको देखा तो लगा, आपकी कितनी ज़ोरों की चाह रही होगी न, कि आप बस आ गईं. और आपके सारे बहाने, वहां मुंबई में धरे के धरे रह गए. यह बात मुझे बहुत प्यारी लगी." इन दोनों की ये बातें ठिठका जाती हैं. निर्मल कर जाती हैं. वरुण के इसी अर्थवत्ता वाले संवाद "ऑल इंडिया रैंक" में थोड़ा हास्य का पुट लिए हैं, लेकिन मूलतः अपने चिर-परिचित रचनात्मक शिल्प में गढ़े हैं. जैसे कि विवेक के पिता आर. के. सिंह (शशि भूषण) के संवादों को लें. एक दृश्य में ट्रेन में यात्रियों से बातें करते हुए वो कहते हैं - "आईआईटी का लड़का बरमूडा चप्पल में भी सभ्य दिखता है". यहां सभ्य शब्द कमाल का है. बाद में कोटा में खड़े होकर वो अपने बेटे से कहते हैं - "कोचिंग का हरिद्वार है ये शहर. किसी न किसी मंदिर पर तो छुआ ही देंगे तुम्हे". यानी किसी न किसी कोचिंग में तो डलवा ही देंगे. एक सीन में बच्चा कहता है - "इससे अच्छा है कि मैं यूनिवर्सिटी (लखनऊ) से बीएससी कर लेता" तो पिता कहता है - "सिर्फ गुंडई होती है यूनिवर्सिटी में. चरित्रवान लोग आईआईटी जाते हैं." एक संवाद तो अनुपम है. बेटा कहता है - "हम पढ़ रहे हैं जितना होता है हमसे", तो पिता का उत्तर आता है - "जितना तुमसे होता है उतना नहीं पढ़ना है. जितनी मानवीय क्षमता है, उतना पढ़ना है". एक वरुण ग्रोवर मार्का हास्य और शब्द शिल्प निरंतर उपलब्ध होता है.

सई परांजपे ने ख़ुद को लेखक पहले माना और डायरेक्टर बाद में. उद्घोषणा की कि "मैं एक फर्स्ट क्लास राइटर और सेकेंड क्लास डायरेक्टर हूं". क्या वरुण ग्रोवर के साथ भी ऐसा है?

बतौर निर्देशक अपनी पहली ही फ़िल्म में वो उक्त "सेकेंड क्लास डायरेक्टर" नहीं लगते. उनका अपने क्राफ्ट पर सधा हुआ हाथ दिखता है. वे नब्बे के दशक की तसल्ली, बदलावों, रिश्तों, पिताओं, माओं को विजुअल सक्षमता से जीवित करते हैं. किरदारों के अंतर्मन की हालत, इंटर्नलाइज़्ड ढंग से प्रकट होती है. उनके एक्टर अपने किरदारों की केंचुल में यथोचित घुसे होते हैं. नब्बे के नर्वस, चिंतित, कंट्रोल फ्रीक पापा बने शशि भूषण का अभिनय इतना नेचुरल और इनोवेटिव है कि स्तानिस्लाव्स्की की पुस्तक "ऐन एक्टर प्रिपेयर्स" में संदर्भित ढंग से, वे माचिस से नहीं अपनी कल्पना से आग जलाकर दिखाते हैं. फ़िल्म में दृश्यों को सुंदरता के साथ, सटीकता के साथ, पर्याप्तता के साथ सजाया जाता है. वह अपने विजुअल्स के साथ भी प्रयोग करती है जब वह हाइब्रिड होती है. जब कैमरा फुटेज पर एनिमेशन का चित्रकथात्मक वर्क कहीं कहीं सजाया जाता है. यह ओपनिंग क्रेडिट्स में भी दिखता है और एक अन्य दृश्य में भी जहां विवेक अपने हॉस्टल के बीचों बीच खड़ा है. रात का वक्त है. तनाव बहुत बढ़ गया है. बरसात हो रही है. और उस पर बरस रही हैं एनिमेटेड पेंसिल और रबर जैसी वस्तुएं.  

निर्देशन की पकड़ कैसी है इसे एक दृश्य से गुजरते हुए समझते हैं और समापन करते हैं. पिता आर. के. सिंह अपने बेटे को लखनऊ से कोटा लेकर पहुंचते हैं. ट्रेन से उतरे हैं. अटैची, बैग उठाए वो बाहर आते हैं. एक टैंपू वाला पीछे हो लेता है. कहता है - "30 रुपया". पिता कहता है - "जहन्नुम नहीं जा रहे हैं. 20 रुपये (दूंगा)". और चालक 25 पर मान जाता है. अब टैंपू चलता है. आगे गंतव्य तक पहुंचने से पहले राह का सिर्फ एक फ्रेम दिखता है, जिसमें टैंपू एक फ्लाईओवर से गुजर रहा है. पृष्ठ में एक फैक्ट्री की तीन चिमनियां खड़ी होती हैं, आसमान की दरी झाड़ती हुईं. उनसे धुंआ निकल रहा होता है. पीछे से सायरन की आवाज़ आ रही होती है. मानो कह रही हो कि श्रमिकों काम पर पहुंचो. यहां रूपक होता है कि यह पिता भी अपने बेटे को एक एलीट श्रमिक बनाने के लिए काम पर ले जा रहा है. शिक्षा, जो एक आनंद होनी चाहिए, वह यहां एक विवशता है. रोज़ किताबों की फैक्ट्री में घुसना होगा, रोज़ निकलना होगा. ताकि मोटी सैलरी हो और कथित कम्फर्ट ख़रीदा जा सके. कंट्रोल खरीदा जा सके. आगे भी एक सीन आता है जिसमें विवेक पहली बार कोचिंग के लिए तैयार होकर हॉस्टल से निकल रहा है. पीछे से फिर हल्के में वही फैक्ट्री वाला सायरन बज रहा होता है. अपने रूपक को वरुण डबल चैक करवाते हैं, कि कहीं दर्शक चूक न जाए.

ख़ैर, टैंपू एक हॉस्टल में पहुंचता है. अगले फ्रेम में आर. के. सिंह और विवेक जाली के गेट के बाहर खड़े हैं. भीतर आते हैं. वहां तीन लड़के अधनंगे खड़े हैं. कोई नहाया है, गीले बाल पोंछ रहा है, कोई ब्रश कर रहा है. सिंह पूछते हैं - "विक्की का कमरा (किधर है)?" गीले बाल पोंछने के बाद गमछा दूसरे लड़के की तरफ उछालकर जो लड़का आगे बढ़ता है वो अपने बगल वाला दरवाजा ठोककर अपने कमरे में चला जाता है. दरवाजा खुले उससे पहले दीवार पर हम अनिवार्य रूप से पढ़ लें इतने बड़े अक्षरों में लिखा होता है - F*** IIT. थोड़ा ध्यान से देखेंगे तो इन दोनों दरवाजों पर दो स्टिकर लगे होते हैं - एक लाल गुलाब जैसा कुछ होता है, दूसरा एक ब्लैक पूसी केट का स्टिकर. ये पूसी केट एक सीन में रात को कोटा के फुटपाथ पर भी नज़र आती है. इस स्टिकर के ठीक पास में लिखा होता है - "सब मोह माया है". जैसे कि विचारों और जीवन के एक अलग ही कॉस्मॉस में हम पहुंचते जाते हैं. इसके ठीक ऊपर प्रकार से खुरचकर लिखा है - "तुम पुकार लो". और नूडल से मस्तिष्क में हेमंत कुमार घुस जाते हैं. 1969 में आई "ख़ामोशी" के ब्लैक एंड वाइट विजुअल हूम हूम करने लगते हैं जिनमें वहीदा रहमान "मेघदूत" की प्रति को छाती से लगाए रो रही हैं. बालकनी में कुर्सी लगाए धर्मेंद्र बैठे हैं. रात है. विरह है. अड़चन है. गीत है. बस. और सब लीलाएं समाप्त हैं. विक्की दरवाजा खोलता है. बांका जवान लड़का. मुंह ऐसा फक्क सा, जैसे मौत आई हो. जीवन से विरक्त, सांसों से हीन. आर. के. सिंह कहते हैं - "(मैं) सिंह अंकल ( हूं). पापा का फोन आया होगा न." विक्की कुछ प्रतिक्रिया नहीं देता. दरवाज़ा खुला छोड़कर अंदर चला जाता है और सो जाता है. यहां इस कैनवस का कोई कोना ऐसा नहीं होता, जहां कुछ उड़ेला न हो. दरवाजों पर. दीवारों पर. पीरियोडिक टेबल में कुली नंबर 1 फ़िल्म का नाम लिखा होता है. पंखे की तीनों ताड़ियों पर भी पंक्तियां लिखी होती हैं, संभवतः कोई कविताएं या दर्शन. मन करता है एक एक लेंस लेकर पढ़ जाएं.  
अपने केंद्र में फ़िल्म उस कंट्रोल की बात करती है जिसे हर कोई खोज रहा है. अपने किए के नतीजों पर काबू पाने की कोशिश कर रहा है. कि कोई आईआईटी पास हो जाए तो जीवन परफेक्ट हो जाएगा, "ऑल इंडिया रैंक" आ जाए तो जीवन की सब समस्याओं से मुक्त हो जाएगा. खुशी मिल जाएगी. करोड़ों बच्चों की आज यही महत्वाकांक्षा. लेकिन भला ऐसा कभी होता है? क्या कभी कोई गारंटी होती है? जापानी एनिमे फ़िल्म "किकीज़ डिलीवरी सर्विस" में जादूगरनी किकी बुदबुदाती है कि "शायद मुझे अपनी ख़ुद की प्रेरणा ढूंढ़ने की ज़रूरत है. लेकिन क्या मैं कभी भी यह प्रेरणा पा सकूंगी?" "ऑल इंडिया रैंक" का अंत भी यही खोजता है कि क्या विवेक और उसके पिता, अपनी अपनी प्रेरणा, अपने अपने नियंत्रण खोज पाते हैं? वे, जो उन्हें संतोष और प्रसन्नता प्रदान कर सकें.

अस्तु.

Film: All India Rank । Director: Varun Grover । Cast: Bodhisattva Sharma, Shashi Bhushan, Geeta Agrawal Sharma, Sheeba Chaddha, Samta Sudhiksha । Run Time: 94m । Where to Watch: In theatres now. On OTT later.

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