नीना गुप्ता ने बताया, श्याम बेनेगल ने अपनी फिल्मों में उन्हें कभी बड़ा रोल क्यों नहीं दिया
नीना के मुताबिक फिल्ममेकर्स हमेशा 'बिकाऊ चेहरों' को लेना चाहते हैं.

नीना गुप्ता. बॉलीवुड की सबसे मुखर एक्टर्स में से एक. भारतीय सिनेमा में बसी पैट्रियार्की के खिलाफ खुलकर बोलती रहती हैं. 'रुढ़िवादी मानकों' को तोड़ना उन्हें पसंद है. अब नीना ने दिग्गज फिल्म डायरेक्टर श्याम बेनेगल को लेकर बड़ा खुलासा किया है. नीना का आरोप है कि बेनेगल ने अपनी फिल्मों में उन्हें कोई बड़ा रोल नहीं दिया. 64 साल की नीना ने एक इंटरव्यू में कहा कि 1980 और 90 के दशक में चाहे वो कमर्शियल सिनेमा हो या पैरेलल सिनेमा, उनके लिए 'मेन रोल' मिलना मुश्किल था.
नीना गुप्ता ने श्याम बेनेगल की तीन फिल्मों में काम किया था. मंडी (1983), त्रिकाल (1985) और सूरज का सातवां घोड़ा (1992). मंडी में शबाना आज़मी और स्मिता पाटिल लीड रोल में थीं. नीना गुप्ता ने समाचार एजेंसी पीटीआई से इंटरव्यू में कहा कि फिल्ममेकर हमेशा "बिकाऊ चेहरे" को कास्ट करना चाहते थे. नीना के मुताबिक लीड रोल शबाना आजमी और स्मिता पाटिल को मिलती थीं.
नीना ने बताया कि कमर्शियल सिनेमा के प्रोड्यूसर और डायरेक्टर से मिलने का कोई चांस ही नहीं था. उन्होंने कहा,
"फिर बचता था पैरेलल सिनेमा. यहां भी मेन रोल शबाना और स्मिता को मिलता था और अगर छोटी फिल्म हुई तो दीप्ति नवल को. हमारे लिए इन फिल्मों में भी कोई मौका नहीं था. श्याम बेनेगल ने अपनी फिल्मों में मुझे कभी बड़ा रोल नहीं दिया. मैंने उनकी फिल्मों में हमेशा छोटे किरदारों में रही हूं. इसी तरह की स्थिति कमर्शियल सिनेमा में थी. यह एक बिजनेस है, इसलिए वे बिकाऊ चेहरों को लेना चाहते हैं."
नीना किस तरह का रोल नहीं करना चाहती हैं, इस पर उन्होंने कहा कि वो घिसे-पिटे रोल कभी नहीं चाहतीं, खासकर मां का रोल. नीना के मुताबिक, यह अच्छा है कि लोग महिलाओं को अलग-अलग भूमिकाओं में देख रहे हैं. उन्होंने कहा कि अब 60 की उम्र में लीड रोल मिलना उनके लिए बड़ी बात है.
श्याम बेनेगल को भारतीय पैरेलल सिनेमा के दिग्गज डायरेक्टरों में एक माना जाता है. पैरेलल सिनेमा यानी वैकल्पिक सिनेमा. थोड़ा और आसान करें तो मेनस्ट्रीम कमर्शियल सिनेमा के उलट जो फिल्में बनती थीं. इन फिल्मों में हीरो या हीरोइन के बदले समाज के असल मुद्दों को प्राथमिकता दी जाती थी. गरीबी, वर्ग संघर्ष, सामंती व्यवस्था, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, घरेलू हिंसा, महिलाओं की स्वतंत्रता जैसे मुद्दे केंद्र में होते थे.
पैरेलल सिनेमा का कोई एक खास दौर नहीं है. हालांकि 1970 और 80 के दशक में ऐसी फिल्मों की बाढ़ सी आई. श्याम बेनेगल के अलावा, सत्यजीत रे, मृणाल सेन, गोविंद निहलानी जैसे डायरेक्टर्स ने इस तरह की खूब फिल्में बनाईं. बाद के सालों में भी ये सिलसिला चला. लेकिन धीरे-धीरे ये कम होता चला गया.
नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (NSD) से एक्टिंग का कोर्स करने वाली नीना गुप्ता ने कई बेहतरीन फिल्मों में काम किया. कुंदन शाह की लेजेंडरी सटायर फिल्म 'जाने भी दो यारों' से लेकर गोविंद निहलानी की 'दृष्टि' में भी काम कर चुकी हैं. इसके बावजूद उन्हें "बड़े एक्टर" के रूप में पहचान नहीं मिली. बाद में नीना ने कई सीरियल में काम किया और फिल्मों से दूरी बना ली. फिर लंबे अरसे बाद 2018 में 'बधाई हो' से उन्होंने वापसी की. इसके बाद वो लगातार फिल्मों और वेब सीरीज में काम कर रही हैं. ‘पंचायत’ और ‘मसाबा मसाबा’ वेब सीरीज में उनके काम को खूब पसंद किया गया.
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