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निवेश का बढ़िया विकल्प हैं बॉन्ड्स, कम रिस्क, जमा रकम की गारंटी

बॉन्ड्स में निवेश करके आप अपना ओवरऑल रिस्क घटा सकते हैं और एक तय रिटर्न कमा सकते हैं.

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Retail investors can buy bonds directly from RBI retail direct website.
RBI रिटेल डायरेक्ट वेबसाइट पर जाकर रिटेल निवेशक सीधे बॉन्ड्स खरीद सकते हैं.
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उपासना
11 जुलाई 2023 (Updated: 11 जुलाई 2023, 03:18 PM IST) कॉमेंट्स
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लोगों के पास निवेश करने के लिए बहुतेरे ऑप्शन मौजूद हैं. इनमें एफडी, शेयर मार्केट और म्यूचुअल फंड सबसे ज्यादा पॉपुलर हैं. लेकिन इसके अलावा एक और विकल्प है जिसमें निवेश करके आप अपना ओवरऑल रिस्क घटा सकते हैं और एक तय रिटर्न कमा सकते हैं. हम बात कर रहे हैं बॉन्ड्स की. इनमें मिलने वाला रिटर्न एफडी से ज्यादा होता है. इसलिए यह फिक्स कमाई करने का बेहतर उपाय हो सकता है.

क्या होता है बॉन्ड?

केंद्र और राज्य सरकार से लेकर कंपनियों, यहां तक की बैंकों को अपने कामों के लिए अच्छे खासे पैसों की जरूरत होती है. ये पैसे कई तरीकों से जुटाए जा सकते हैं. कंपनी की हिस्सेदारी कुछ बाहरी लोगों को बेचकर, बैंक से उधार लेकर वगैरह-वगैरह. ऐसे कई तरीकों में से एक है आम जनता से उधार लेना. कंपनियां लोगों से उधार लेकर पैसा जुटाने के बदले अपने डिबेंचर या बॉन्ड जारी करती हैं.

डिबेंचर और बॉन्ड क़रीब-क़रीब एक ही चीज़ हैं. बॉन्ड्स अक्सर गारंटी के साथ आते हैं. यानी इन्हें जारी करने वाली कंपनी डूबती है तो जमा की गई गारंटी को बेचकर पैसे की वसूली हो जाती है. वहीं डिबेंचर बिना किसी गारंटी के भी जारी किए जा सकते हैं. इसलिए ये ज्यादा रिस्की भी माने जाते हैं. इन्हें इश्यू करने वाली कंपनी निवेशकों से पैसे उधार लेती है जिसके बदले उन्हें बॉन्ड या डिबेंचर जारी करती है. ये उधार एक तय समय के लिए लिया जाता है. तय समय पूरा होने के बाद निवेशकों को मूलधन वापस किया जाता है. उधार लेने वाली तारीख से लेकर उसे चुकाने की तारीख तक कंपनी हर साल मूलधन पर ब्याज भी देती है. इसे कूपन रेट भी कहते हैं

इसे ऐसे समझ सकते हैं जैसे बैंक हमें जरूरत पड़ने पर लोन देता है और उधार देने के बदले कुछ ब्याज भी वसूलता है. बॉन्ड भी इसी तरह काम करते हैं. दोनों में मुख्यतः दो चीजों का फर्क होता है. एक, यहां लोन बैंक नहीं, बल्कि आम लोग देते हैं. दूसरा, मूलधन हर महीने की कटने की बजाय बॉन्ड की अवधि पूरी होने के बाद एक बार में मिल जाता है. अगर आप ज्यादा रिस्क नहीं लेना चाहते तो भी बॉन्ड्स में निवेश फायदेमंद हो सकता है. भारत में सात तरीकों से बॉन्ड्स में निवेश कर सकते हैं.

सरकारी बॉन्ड (G-Sec)

केंद्र या राज्य सरकारों की तरफ से बॉन्ड्स जारी होते हैं. आमतौर पर किसी सरकारी प्रोजेक्ट की फंडिंग के लिए सरकारें ये बॉन्ड जारी करती हैं. इन्हें गवर्नमेंट सिक्योरिटीज या G-sec भी कहते हैं. अमूमन ये बॉन्ड 5 से 40 सालों के लिए आते हैं. इस तरह के बॉन्ड्स को सबसे सुरक्षित डेट इंस्ट्रूमेंट माना जाता है. इनमें पैसे लगाकर 6-6 महीने पर ब्याज मिलता है और मूलधन अवधि पूरी होने पर एक बार में एकमुश्त.

कॉरपोरेट बॉन्ड

सरकारों की तरह कंपनियां भी अपने प्रोजेक्ट्स पूरे करने के लिए उधार लेती हैं. कॉरपोरेट बॉन्ड एक साल से 30 साल तक के लिए आ सकते हैं. एक से तीन साल वाले बॉन्ड शॉर्ट टर्म कहलाते हैं. 4 से 10 साल वाले बॉन्ड मिड टर्म और 10 से ऊपर वाले बॉन्ड लॉन्ग टर्म बॉन्ड कहलाते हैं.

जीरो-कूपन

जीरो कूपन बॉन्ड में कॉरपोरेट या अन्य बॉन्ड्स की तरह ब्याज नहीं मिलता है. सिर्फ मूलधन मिलता है. फिर आप कहेंगे कि इसमें फायदा क्या हुआ. दरअसल ये बॉन्ड अपने ओरिजनल दाम के मुकाबले सस्ते दाम पर दिए जाते हैं. ओरिजनल प्राइस को फेस वैल्यू कहा जाता है. मिसाल के तौर पर कोई कंपनी एक लाख रुपये का जीरो कूपन बॉन्ड 5 साल के लिए 20 हजार रुपये की छूट पर जारी कर रही है. यानी निवेशक इस बॉन्ड को खरीदने के लिए 80 हजार खर्च करेगा. 5 साल के बाद कंपनी निवेशक को बॉन्ड को ओरिजिनल प्राइस यानी एक लाख रुपये देगी. इस तरह उसे 20 हजार रुपये का फायदा होगा.

कन्वर्टिबल्स

कन्वर्टिबल बॉन्ड्स को शेयरों में भी बदला जा सकता है. निवेशक चाहे तो आवेदन देकर कन्वर्टिबल को कंपनी के शेयरों में बदलवा सकता है. इस तरह कन्वर्जन कराने के बाद वह कंपनी में हिस्सेदार बन जाता है. उसे वो सभी फायदे मिलते हैं जो आमतौर पर शेयरहोल्डर को मिलते हैं. ये बॉन्ड डेढ़ से दो साल की अवधि के साथ आते हैं. बॉन्ड को आखिरी समय तक बॉन्ड रखना है या उसे शेयरों में बदलना है इसका फैसला पूरी तरह निवेशक के हाथ में होता है.

इंफ्लेशन-लिंक्ड बॉन्ड

इन बॉन्ड्स को भारत सरकार जारी करती है. इसका मूलधन और ब्याज दोनों ही महंगाई की दर के हिसाब से घटते-बढ़ते रहते हैं. जब वार्षिक मुद्रास्फीति की दर शून्य प्रतिशत की दर से भी नीचे गिर जाए (अपस्फीति) तब भी सरकार बॉन्ड्स पर डेढ़ पर्सेंट का ब्याज तय कर देती है. अपस्फीति में चीजों के दाम बेतहाशा सस्ते हो जाते हैं. यह स्थिति तब बनती है जब डिमांड के मुकाबले सामानों का काफी अधिक उत्पादन हो जाए और खपत बेहद मामूली हो. इन बॉन्ड्स में निवेश करने से एक सबसे बड़ा फायदा ये होता है कि आपका पैसा महंगाई के हिसाब से बढ़ता है.

सॉवरेन गोल्ड बॉन्ड

सॉवरेन गोल्ड बॉन्ड उन लोगों के लिए सही विकल्प है जो गोल्ड में निवेश करना चाहते हैं लेकिन घर में सोना रखने से डरते हैं. इन बॉन्ड को रिजर्व बैंक सरकार की तरफ से जारी करता है. ये बॉन्ड 8 सालों के लिए आता है. हर साल 6-6 महीने पर ब्याज मिलता है. मैच्योरिटी पूरी होने पर निवेशक को उस समय गोल्ड की असल प्राइस के हिसाब से फायदा होता है.

रिजर्व बैंक का बॉन्ड

कंपनियों की तरह रिजर्व बैंक को भी पैसे की जरूरत पड़ती है और ये बॉन्ड जारी करता है. RBI के बॉन्ड में निवेश की अधिकतम सीमा नहीं है. लेकिन कम से कम एक हजार रुपये लगाने होंगे. इन बॉन्ड्स के लिए ब्याज दर हर 6 महीने पर तय होती है. ब्याज का पेमेंट भी 6 महीने पर होता है. इन ब्याज से मिलने वाले ब्याज पर आयकर की स्लैब की दर से टैक्स लगता है.

कैसे करें निवेश?

बॉन्ड्स में मुख्यतः तीन-चार तरीकों से निवेश कर सकते हैंः डायरेक्ट इनवेस्टमेंट, म्यूचुअल फंड, RBI रिटेल डायरेक्ट की वेबसाइट से और ऑनलाइन बॉन्ड प्लैटफॉर्म्स. 

डायरेक्ट इनवेस्टमेंट

डायरेक्ट इनवेस्टमेंट के लिए आपको ट्रेडिंग और डीमैट अकाउंट चाहिए होगा. उसके बाद स्टॉक एक्सचेंज पर रजिस्टर कराना होगा. बॉन्ड्स भी शेयरों की तरह शेयर बाजार में लिस्ट होते हैं. इसलिए रजिस्ट्रेशन के बाद शेयरों की तरह ही बॉन्ड्स को खरीद बेच सकते हैं. ब्रोकर के पास से भी बॉन्ड्स को खरीद सकते हैं. अगर कोई बॉन्ड पहली बार लॉन्च हो रहा है तो उसके लिए आपको बोली लगानी होगी. बड़े निवेशकों को अलॉटमेंट होने के बाद रिटेल निवेशक यानी छोटे निवेशकों को बॉन्ड्स का अलॉटमेंट होता है. 

म्यूचुअल फंड

अगर आपके पास रोज-रोज दाम को घटते बढ़ते देखने का समय नहीं है तो आप उन म्यूचुअल फंड्स में पैसे लगा सकते हैं जो बॉन्ड्स में पैसे लगाते हैं. म्यूचुअल फंड के जरिए आप सरकारी और कंपनियों दोनों को खरीद सकते हैं. हालांकि, म्यूचुअल फंड कंपनियां आपका पैसा मैनेज करने के लिए कुछ फीस भी लेती हैं. इसलिए आपका ओवरऑल रिटर्न पहले से कम रहता है. म्यूचुअल फंड में निवेश करने के अपने फायदे भी हैं. आपका पैसा प्रोफेशनल मैनेज करते हैं. वो ऐसे जरियों में पैसा लगाते हैं जिनमें ज्यादा रिटर्न दिखता है. इसलिए अगर कुछ फीस देकर ज्यादा रिटर्न मिल रहा है तो इस विकल्प को भी ट्राई किया जा सकता है.

RBI रिटेल डायरेक्ट

कुछ समय पहले तक बॉन्ड्स में निवेश करने के मुख्यतः दो ही तरीके उपलब्ध थे. लेकिन हाल ही में RBI ने बॉन्ड्स की खरीदारी के लिए एक वेबसाइट लॉन्च की है, जहां निवेशक प्रत्यक्ष तरीके से खरीदारी कर सकते हैं. इसके लिए RBI रिटेल डायरेक्ट पोर्टल पर जाना होगा. जरूरी जानकारी देकर रजिस्ट्रेशन प्रक्रिया पूरी करें. रजिस्ट्रेशन के बाद आपको सभी बॉन्ड्स दिख जाएंगे. जो बॉन्ड आपकी जरूरतों से मेल खाते हों उनमें निवेश कर सकते हैं. पोर्टल पर एप्लिकेशन और अलॉटमेंट की स्थिति चेक कर सकते हैं. बॉन्ड इशू होने के बाद शेयरों की तरह रोज बॉन्ड्स के दाम पर नजर रखनी होगी.

ऑनलाइन बॉन्ड प्लेटफॉर्म्स (OBP)

सेबी ने हाल ही में ऑनलाइन बॉन्ड प्लेटफॉर्म्स के लिए भी नियम बना दिए हैं. शेयर एक्सचेंज की तरह OBP सभी तरह के बॉन्ड्स में निवेश का मौका देती हैं. OBP भले ही सेबी के नियमों के अंदर आ चुके हैं, फिर भी निवेशकों को सतर्कता के साथ निवेश करना चाहिए. बॉन्ड्स में निवेश से पहले ये जरूरी टर्म भी समझ लीजिए.

फेस वैल्यू
किसी भी बॉन्ड की एक शुरुआती तय कीमत होती है. इसे फेस वैल्यू कहा जाता है. बॉन्ड की कीमत कई बार फेस वैल्यू से अधिक नजर आती है. ऐसे में कहा जाता है कि बॉन्ड प्रीमियम पर ट्रेड कर रहा है. अगर फेस वैल्यू के मुकाबले अगर बॉन्ड की कीमत कम है तो कहा जाता है कि बॉन्ड डिस्काउंट पर ट्रेड कर रहा है.

कूपन वैल्यू
बॉन्ड जारीकर्ता निवेशकों को उनके मूलधन पर फेस वैल्यू के आधार पर ब्याज देता है. इसे कूपन वैल्यू कहते हैं.

यील्ड टू मैच्योरिटी 

मान लेते हैं बॉन्ड को 8 साल के लिए जारी किया गया है. अगर निवेशक बॉन्ड को पूरे 8 साल तक रख लेता है तो ब्याज और असल भुगतान को मिलाकर बनी कुल रकम उसकी यील्ड टू मैच्योरिटी कहलाएगी.

टर्म टू मैच्योरिटी

बॉन्ड को मैच्योर होने में कितना समय बचा है, वही उसकी टर्म टू मैच्योरिटी कहलाती है. मान लेते हैं कि 2018 में एक बॉन्ड आया 10 साल के लिए. यानी यह 2028 में मैच्योर होगा. ऐसे में 2023 में इस बॉन्ड की टर्म टू मैच्योरिटी 5 साल होगी.

पेमेंट का तरीका क्या है?

- अगर बॉन्ड जारी करने वाला डिफॉल्ट करता है तो किसे सबसे पहले पैसा मिलेगा, इसकी जानकारी जरूर देख लें. 
- अगर ऑनलाइन तरीके से निवेश कर रहे हैं तो हर बॉन्ड के आगे इसकी जानकारी मिल जाएगी. जैसे किसी कंपनी के बॉन्ड के आगे सीनियॉरिटी लिखा है. इसका मतलब ये कि दिवालिया होने की स्थिति में उस कंपनी के पास जो भी पैसा आएगा वह सबसे पहले इसी बॉन्ड के धारकों को दिया जाएगा. उसके बाद अन्य डेट स्कीम के निवेशकों को दिया जाएगा. 
- टियर 2 सबऑर्डिनेट बॉन्ड्स और AT1 बॉन्ड इस कतार में सबसे आखिर में होते हैं.

सलाह

अगर ये लेख पढ़कर आपको लग रहा है कि बॉन्ड्स तो एफडी का बढ़िया विकल्प हैं तो आप गलत हैं. जानकार कहते हैं कि कोई भी इनवेस्टमेंट ऑप्शन दूसरे का विकल्प नहीं हो सकता है. हर इंस्ट्रूमेंट के अपने फायदे और नुकसान हैं. इसलिए बॉन्ड को एफडी का रिप्लेसमेंट ना समझें. एफडी भले कम रिटर्न देता है, लेकिन इसके अपने फायदे हैं. बेहतर यही रहता है कि अपने फंड को सभी तरह के इंस्ट्रूमेंट में बांट दें. इस तरह अगर कोई असेट बहुत खराब परफॉर्म कर रहा है और कोई असेट बहुत खराब तो आपका ओवरऑल रिटर्न औसत होकर बहुत खराब होने की बजाय ठीक ठाक तो ही जाता है.

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