Authors Page

राजविक्रम
Sub Editor
अच्छा-ख़ासा साइंस पढ़ रहे थे. वही पढ़ते. मगर दिमाग़ की गुदगुदी और धड़कता दिल क्या न करवा दे! जिज्ञासा की प्यास शांत करने का सबसे मारक ज़रिया लगा पत्रकारिता, तो चले आए. प्रयोगधर्मिता नहीं जानते थे, न चाहते थे. आज भी एक सांस में बोल नहीं पाते. मगर करना था. रोज़ कुछ नया. उसी जुगत में जुटे हुए हैं. अगर डेस्क के एडिटर से मोहलत पा जाएं, तो 'साइंसकारी' और 'तारीख़' जैसे जागरुकता-विथ-जॉय वाले शोज़ लिखते हैं. बढ़िया फ़िल्में और किताबें चाटते हैं, और रोज़ एक ही सवाल से दो-चार होना - 'क्या मैं असल में पहाड़ों के पीछे वाले घर में रहना चाहता हूँ?' राज का नायक प्रेम में अपनी प्रेमिका की नाक पोंछता है और जब उन्हें इस सवाल का जवाब मिल जाएगा, तो वह चले जाएँगे.. अपनी प्रेमिका की बहती नाक को छोड़कर.. शून्य में... एक बुद्ध पेंग्विन की तरह.