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जब फुटबॉल स्टार पेले ने सिविल वॉर रुकवा दिया!

फुटबॉल स्टार पेले की कहानी क्या है?

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फुटबॉल स्टार पेले की कहानी क्या है?

1950 में ब्राज़ील को पहली बार फ़ीफ़ा वर्ल्ड कप की मेज़बानी मिली, आर्थिक रूप से बहुत समृद्ध ना होने के बावजूद सरकार ने ज़बरदस्त तैयारी की. रियो डि जनेरो में ऐतिहासिक माराकना स्टेडियम बनवाया गया. ब्राज़ील की टीम ने इसका मान रखा. टीम फ़ाइनल में पहुंची. ब्राज़ील और उरुग्वे के बीच फुटबॉल वर्ल्ड का फाइनल होना था. मैच इसी माराकना स्टेडियम में हो रहा था. मैच शुरू होने से ठीक पहले रियो डि जनेरो के मेयर ने स्टेडियम में एक भाषण दिया. मेयर बोले,

‘मेरे प्यारे ब्राज़ील के लोगों, कुछ ही मिनटों के अंतराल के बाद आप विश्व-विजेता बनने जा रहे हैं. हमने अपना वादा पूरा किया और ये स्टेडियम बनवाया. अब आप अपना कर्तव्य पूरा करिए और हमें वर्ल्ड कप जीत कर दिखाइए.’

लेकिन टीम भरोसे पर खरी नहीं उतर पाई. उरुग्वे ने ब्राज़ील को 2-1 से हरा दिया. उस मैच को रेडियो पर दस साल का एक बच्चा भी सुन रहा था. उसने अपने पिता से कहा,

‘मैं ब्राज़ील को वर्ल्ड कप दिलाऊंगा.’

बच्चा बड़ा हुआ. उसने अपने पिता से किया वादा पूरा किया. उसने ब्राज़ील को तीन बार विश्व विजेता बनाया. उस बच्चे का कद इतना बड़ा हुआ कि उसके सामने बड़े-बड़े स्टार्स की चमक भी फीकी पड़ जाती. एक मैच में जब उसकी रेफरी से बहस हुई तो मैदान से रेफरी को ही बाहर कर दिया गया. वो बच्चा इतना बड़ा खिलाड़ी बना कि उसने कथित तौर पर एक गृह युद्ध रुकवा दिया था.

हम बात कर रहे हैं ब्राज़ील के महान फुटबॉल खिलाड़ी पेले की. पेले जो आज हमारे बीच मौजूद नहीं हैं. उनका 82 साल की उम्र में निधन हो गया है. वे पिछले कुछ समय से किडनी और प्रोस्टेट की बीमारियों जूझ रहे थे.

आइए जानते हैं -

पेले की कहानी क्या है?

उनके नाम और उनसे जुड़े कुछ दिलचस्प किस्से.

साथ ही जानेंगे कि पेले का भारत से क्या कनेक्शन था.

23 अक्टूबर 1940 को फ़ुटबॉलर डोन्डीनियो के घर एक बच्चे का जन्म हुआ. उसका नाम रखा गया ‘एडिसन’. बच्चे का नाम वैज्ञानिक थामस एल्वा एडिसन के नाम पर रखा गया था. ऐसा इसलिए क्योंकि जिस वक़्त बच्चे का जन्म हुआ, ठीक उसी दौरान शहर में बिजली का बल्ब पहुंचा था, बच्चे के माता-पिता बल्ब की रोशनी से इतने अभिभूत हुए कि उन्होंने बल्ब इजाद करने वाले के नाम ही अपने बच्चे का नाम रख दिया.

लेकिन एक गलती हो गई, जन्म प्रमाणपत्र में नाम लिखवाते समय स्पेलिंग से एक ‘आई’ हट गया और नाम लिखा गया. एडसन. इस तरह बच्चे का नाम हो गया एडसन. पूरा नाम एडसन एरेंटस डो नासिमेंटो. ब्राज़ील में इसी तरह से लंबे चौड़े नाम रखे जाने का चलन था. साथ में उनका उप नाम डिको भी रखा गया.

एडसन की परवरिश गरीबी में हुई. अपने फुटबॉलर पिता को देखते बड़े हुए एडसन ने भी मन ही मन फुटबॉल खेलने का सपना बुन लिया था. उनके पिता भी ये भांप गए थे. इसलिए बचपन से ही उन्होंने एडसन की ट्रेनिंग शुरू करवा दी थी. एडसन पहले अपने गली मुहल्लों में फुटबॉल खेला करते थे. गरीबी के चलते उनके पास फुटबॉल नहीं थी, पेले अपनी आत्मकथा 'व्हाई सॉकर मैटर्स' में बताते हैं,

‘मैं आंख बंद करके अभी भी अपनी जिंदगी की पहली फुटबॉल देख सकता हूं, हम उस वक्त मोजों से फुटबॉल बनाते थे. हम पड़ोसियों के घर से मोज़े उधार लिया करते थे. और उसे बांधकर एक बॉल बनाते थे. उस बॉल को अपने पैरों से मारकर दोस्तों के साथ रेस लगाया करते थे. हम हंसी ख़ुशी घंटों घर से बाहर रहा करते थे और देर शाम घर वापस आया करते थे. वापस आकर जब हम उन मोजों को पड़ोसियों को वापस करते तो वो मोज़े कुछ गंदे हो जाया करते थे. हमारे पास असली बॉल नहीं थी. हम गरीबी में जी रहे थे लेकिन हम खुश थे.’

उस समय गरीबी का आलम ये था कि एडसन एक्स्ट्रा पैसों के लिए चाय की दुकान में काम किया करते थे. लेकिन फुटबॉल खेलना एडसन ने जारी रखा. उनके पिता उन्हें निरंतर ट्रेनिंग दे रहे थे. जब वो स्कूल पहुंचे तो उनका नाम पेले पड़ा. इस नाम के पीछे भी कई कहानियां हैं. पेले के माता-पिता और दोस्त उन्हें उनके उपनाम डिको से बुलाते थे. कुछ समय बाद उनका परिवार साउ पाउलो के बाउरू शहर में रहने आ गया था. वहां उनके कुछ दोस्त बने जिनके साथ वो फुटबॉल प्रैक्टिस किया करते थे.

'व्हाई सॉकर मैटर्स' एडसन बताते हैं,

‘मेरे मामा जॉर्ज के मुताबिक़, बाउरू की स्थानीय फुटबॉल क्लब टीम के एक गोलकीपर का नाम बिले था, ये फुटबॉल का वही क्लब था जिसमें पेले के पिता भी खेला करते थे. बिले अपनी शानदार गोलकीपिंग के चलते लोकप्रिय थे. वहीं बचपन में एडसन को कई मुकाबलों में गोलकीपर बनाया जाता था. जब वो अच्छी गोल कीपिंग करते थे, तो लोग कहने लगे थे कि ये देखो ये दूसरा बिले है. या लोग इस तरह भी कहते थे कि देखो ये ख़ुद को बिले मानने लगा है. देखते-देखते ये ‘बिले’ कब ‘पेले’ में बदल गया है, पता ही नहीं चला. इसका किसी को अंदाज़ा भी नहीं हुआ.’

इस नाम के चलते वो अपने साथियों से लड़ भी लिया करते थे. वे कहते थे कि कम से कम मेरा नाम तो सही ढंग से ले लो.  नाम की कहानी पर अल्पविराम देते हैं और अब पेले की कहानी को आगे बढ़ाते हैं. गली मुहल्लों से पेले की फुटबॉल अब शहर, कस्बों के मैदानों तक पहुंच रही थी. अपनी टीन ऐज में वो शौकिया तौर पर सेटे डे सेटेम्ब्रो, केंटो डू रियो, साओ पॉलीनियो जैसी लोकल टीम्स के लिए खेला करते थे. पेले ने साओ पाउलो राज्य की युवा चैंपियनशिप में भी हिस्सा लिया.

फुटबॉल स्टार पेले (AP Photo)

वे रेडियम नाम की एक इनडोर फुटबॉल टीम के लिए भी खेले. कई चैंपियनशिप में तो उनकी छोटी उम्र की वजह से उनको खिलाने में आना-कानी की जाती थी. लेकिन उनके बेहतरीन प्रदर्शन के बाद सब उनकी तारीफ़ किया करते थे. पेले कहते थे कि इन सभी बातों से उनके अंदर आत्मविश्वास पैदा हो रहा था. इन सब चैंपियनशिप और छोटे मैचों में उनका प्रदर्शन दर्शकों और कोचों का दिल जीत रहा था. वो लोगों की नज़रों में आने लगे थे.

घर वाले पेले को लेकर सेंटोस आ गए. सेंटोस उस समय ब्राज़ील के सबसे मशहूर फ़ुटबॉल क्लब्स में से था. पेले ने ट्रायल दिया. उन्हें तुरंत सेलेक्ट कर लिया गया. 16 साल की उम्र में उन्हें पहला कॉन्ट्रैक्ट मिल चुका था. क्लब में पेले को एक्सपोज़र मिला. इसी की बदौलत दो साल बाद वो ब्राज़ील की वर्ल्ड कप टीम में पहुंच चुके थे. जब 1957 सीज़न शुरू हुआ, तो पेले को स्टार्टिंग XI में जगह दी गई और 16 साल की उम्र में वे लीग में शीर्ष स्कोरर बन गए.

पेले को वर्ल्ड कप में पहला मौका 1958 में मिला. लेकिन देखा जाए तो पेले का पहला अंतरराष्ट्रीय मैच 7 जुलाई 1957 को माराकाना में अर्जेंटीना के खिलाफ था, जहां ब्राजील को 1-2 से हार का सामना करना पड़ा. उस मैच में पेले ने 16 की उम्र में ब्राजील के लिए अपना पहला गोल किया. इसके साथ ही वो अपने देश के लिए सबसे कम उम्र के गोल करने वाले खिलाड़ी बने रहे. इसके बाद फीफा वर्ल्ड कप 1958 की बारी आई जहां पेले ने कमाल कर दिया. 1958 के उस वर्ल्ड कप के ज़रिए ब्राजील पहली बार चैम्पियन बना तो उसमें 17 साल के पेले की अहम भूमिका रही.

पेले ने सेमीफाइनल में फ्रांस के खिलाफ 5-2 की शानदार जीत में हैट्रिक लगाई. फिर स्वीडन के खिलाफ फाइनल मुकाबले में भी उन्होंने दो गोल दागे. कुल मिलाकर पेले ने उस वर्ल्ड कप में छह गोल दागे. जिसके लिए उन्हें बेस्ट यंग प्लेयर का अवॉर्ड मिला था. कॉमेंटेटर्स ने कहना शुरू कर दिया था, ये लड़का फ़ुटबॉल के इतिहास का सबसे महान खिलाड़ी बन सकता है.

ब्राज़ील ने 1962 में लगातार दूसरा वर्ल्ड कप अपने नाम किया. एक बार फिर से पेले सबसे आगे थे. उन्होंने फ़ाइनल में गोल भी किया था. हर तरफ़ पेले का नाम चमक रहा था. क्लब से लेकर इंटरनैशनल टीम तक, उन्हें चुनौती देने वाला कोई नहीं था. ये बादशाहत मैदान के बाहर भी कायम हो रही थी. उनके नाम से हर तरह के प्रोडक्ट्स बिकने लगे थे. पेले को ब्राज़ील का राष्ट्रीय खज़ाना बताया जाने लगा था.

फिर 1966 का वर्ल्ड कप आया. इसमें विपक्षी टीमों ने ब्राज़ील के प्लेयर्स के शरीर को निशाना बनाया. पेले समेत कई बड़े खिलाड़ी मैच के बीच में चोटिल हुए. ब्राज़ील ग्रुप स्टेज में ही टीम से बाहर हो गया. गत-विजेता की ये गत देखकर पेले ने कहा, अब मैं कभी वर्ल्ड कप नहीं खेलूंगा. मैं अपनी टीम को इस हाल में नहीं देख सकता.

हालांकि इसके बावजूद पेले लौटे. 1970 के वर्ल्ड कप में उन्होंने हिस्सा भी लिया. इस बार ब्राज़ील विजेता बना. उस जीत को याद करते हुए पेले ने कहा था,

‘मैं मानता हूं कि जीत का सबसे बड़ा इनाम ट्रॉफ़ी नहीं, बल्कि राहत का अहसास है.’

इस वर्ल्ड कप के महज़ एक साल पहले ऐसी घटना हुई जिसकी चर्चा आज भी होती है. उस समय तक पेले की सेंटोस एफ़सी दुनिया के मशहूर फ़ुटबॉल क्लबों में शामिल हो चुकी थी. इस टीम ने अपना एक फ्रेंडली मैच नाईजीरिया में खेला. तारीख थी 4 फ़रवरी 1969. उस वक्त नाईजीरिया में सिविल वॉर चल रही थी. ब्राज़ील के खिलाड़ी और अधिकारी सुरक्षा को लेकर चिंतित थे.

जब ये बात युद्ध के पक्षों तक पहुंची तो दोनों ही पक्षों ने सीज़फायर का ऐलान कर दिया. ये बात आज भी पेले को याद करते हुए लोगों के जहन में आती है.  पेले अपने जीवन में केवल एक बार ही ब्राज़ील के कप्तान बने. उन्हें कई बार कप्तानी के ऑफ़र मिले लेकिन उन्होंने हमेशा ये ऑफर ठुकरा दिए. क्योंकि उनका रुतबा बहुत बढ़ चुका था, इसी बढ़े रुतबे की वजह से एक बार जब उनकी रेफरी से बहस हो गई तो रेफरी को ही मैदान से बाहर निकाल दिया गया था.

फुटबॉल खेलते पेले (Reuters)

60 के दशक में सेंटोस और कोलंबियन ओलंपिक स्क्वॉड के बीच एक फ्रेंडली मैच चल रहा था. उस समय रेड कार्ड दिखाने वाला नियम नहीं था. पेले पर फाउल करने का आरोप लगा, मैच के दौरान रेफ़री गूइलेरमों वेलासक्वेज़ ने पेले को मैदान से बाहर जाने के लिए कहा. रेफरी ने कहा कि पेले ने उनके साथ बदतमीज़ी की है.  रेफ़री के इस फ़ैसले पर बहुत बड़ा विवाद हो गया और इसका विरोध शुरू हो गया. सेंटोस के खिलाड़ियों ने रेफ़री को घेर लिया. वहां मौजूद दर्शकों ने भी उनका विरोध किया. बाद में रेफरी को ही मैदान से बाहर जाना पड़ा.

किसी भी महान व्यक्तित्व की कहानी सुनाते समय अक्सर उसकी कमज़ोरियां छिपा ली जाती हैं. पेले निस्संदेह तौर पर फ़ुटबॉल के सबसे महान खिलाड़ी हैं. लेकिन क्या वो एक ज़िम्मेदार नागरिक भी थे? ये सवाल उस समय मौजू हो जाता है, जब आप मैदान से इतर के पेले को देखते हैं. जिस समय पेले का कैरियर अपने चरम पर था, उसी दौर में ब्राज़ील में लोकतंत्र की हत्या की जा रही थी.

अप्रैल 1964 में सेना ने चुनी हुई सरकार का तख़्तापलट कर दिया. इस तख़्तापलट के पीछे अमेरिका था. अमेरिका पूरी दुनिया में कम्युनिज्म के विस्तार को रोकने के लिए हरसंभव साज़िश रच रहा था. इसी क्रम में उसने ब्राज़ील में भी सेना को सपोर्ट देकर लोकतांत्रिक सरकार का दम घोंट दिया था. तानाशाही आ चुकी थी.

सैन्य सरकार हंटर लेकर लोगों को हांक रही थी. जिन्होंने विरोध जताया, उन्हें फौरन किनारे लगा दिया गया. 1968 में सरकार इंस्टिट्यूशंस ऐक्ट नंबर फ़ाइव (AI-5) लेकर आई. इसके तहत बिना कारण बताए किसी को भी गिरफ़्तार किया जा सकता था. हज़ारों लोगों को उनके घरों से उठाया गया. उनमें से अधिकांश कभी वापस नहीं लौटे.

इस ऐक्ट पर साइन करने वाले कैबिनेट मंत्री ने बाद में अफसोस जताया. मिलिटरी सरकार के हर कुकृत्य के बारे में पेले को पता था. लेकिन उन्होंने कभी विरोध में एक शब्द नहीं बोला. पेले मानते हैं कि उनके बोलने से कुछ भी नहीं बदलता. लेकिन आलोचकों का कहना है कि पेले डर गए थे. वो किसी के लिए बुरा नहीं बनना चाहते थे. जिस तरह की उनकी लोकप्रियता थी, उनके एक बयान से बहुत फ़र्क़ पड़ सकता था. अफ़सोस, पेले ने खामोशी का रास्ता अख्तियार किया.

इसकी बजाय वो दमनकारी तानाशाहों से लगातार मिलते रहे. उनके साथ डिनर करते रहे, फ़ोटो खिंचवाते रहे, गले मिलते रहे. इसने मिलिटरी गवर्नमेंट को बहुत हद तक वैधता प्रदान की. ब्राज़ील के तानाशाहों ने फ़ुटबॉल का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए बखूबी किया. और, सब जानते हुए भी पेले उनके लिए मोहरा बनते रहे. पेले ने 1971 में अंतरराष्ट्रीय फुटबॉल से संन्यास ले लिया था, ब्राज़ील में तानाशाही 1985 तक चली.

इन 21 सालों में हज़ारों लोगों की हत्या हुई. मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ. बुनियादी अधिकार कुचले गए. हालांकि, पेले का वजूद बरकरार रहा. उनका स्टारडम बना रहा. पेले ने इसकी भारी कीमत चुकाई थी. उन्हें अपनी चेतना गिरवी रखनी पड़ी थी.

पेले का भारत के साथ भी एक किसा जुड़ा हुआ है. जब वो भारत आए थे.

सितंबर, 1977 में अमेरिकन प्रोफ़ेशनल फ़ुटबॉल के प्रमोशन के लिए एक टीम कलकत्ता आई थी, 'न्यू यॉर्क कॉस्मॉस'. अपनी लीग के प्रमोशन के लिए दुनिया भर में जगह-जगह जाती थी. फ़्रेंडली मैच खेलती थी. इस टीम में बहुत सारे देशों के खिलाड़ी थे. पेले भी इन्हीं के साथ आए थे. वो तब 37 साल के थे. रिटायर होने के बाद अमेरिका में लीग फुटबॉल खेल रहे थे.

और न्यू यॉर्क कॉस्मॉस नाम की उनकी ये टीम इस वक्त एशिया टूर करते हुए इंडिया पहुंचा थी. यहां उन्हें भारत के मशहूर फुटबॉल क्लब मोहन बागान के साथ एक फ़्रेंडली मैच खेलना था. मैच से पहले का माहौल ज़बरदस्त था. तब के न्यूज़पेपरों और पत्रकारों के मुताबिक, एयरपोर्ट, होटल और स्टेडियम पर पेले ज़िंदाबाद के नारे थे. पेले का नाम और चेहरा हर जगह था. बैनर, पोस्टर, हेल्थ ड्रिंक्स तक पर. एक बड़े पोस्टर में लिखा था:

‘पेले — वो भी कलकत्ते में.. अकल्पनीय है!’

मशहूर फुटबॉल लेखक और कॉमेंटेटर नोवी कपाड़िया ने अपनी क़िताब 'बेयरफ़ुट टू बूट्स' में लिखा है कि ईडन गार्डन्स में 80 हजार लोगों की खचाखच भीड़ केवल पेले का जादू देखने नहीं आई थी. वो इसलिए भी आए थे क्योंकि उन्हें वो अपना बंदा लगता था. ग़ुरबत में पला एक लड़का, जो फ़ुटबॉल का लेजेंड बन गया. इसके बाद 38 साल बाद सुब्रतो कप के लिए 2015 में एक बार फिर पेले भारत आए थे. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, सौरव गांगुली, और एआर रहमान से मिले थे.

साल 2021 में ही पेले ने कैंसर का इलाज करवाना शुरू कर दिया था. उसके बाद से ही वे कम बाहर निकला करते थे. डॉक्टर्स ने उन्हें आराम करने की सलाह दी हुई थी. लेकिन उनकी हालत बिगड़ती जा रही थी. पिछले दिनों उन्हें साओ पाउलो के अल्बर्ट आइंस्टीन अस्पताल में भर्ती करवाया गया था. फिर 29 दिसंबर को अस्पताल से ख़बर आई कि पेले अब दुनिया में नहीं रहे हैं.

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