एक जाती दोपहर की बात है. इलाहाबाद के लक्ष्मी टॉकीज से पैदल आ रहे थे. चांदपुर सलोरी. हाथ में एक मैगजीन थी. हिंदी की. हंस नाम की. पहले कभी नहीं देखा सुना था. स्टॉल पर उलटा पलटा. कुछ रोचक सा दिखा. तो खरीद ली. उसमें एक कहानी थी. पीली छतरी वाली लड़की. उदय प्रकाश नाम के राइटर की लिखी. उस कहानी में एक कविता थी. कुछ इस तरह. हां तुम मुझसे प्यार करो
जैसे मैं तुमसे करता हूं. बरसों बाद एम.ए. में आया तो पता चला. ये लाइनें शमशेर बहादुर नाम के एक कवि ने लिखीं. उनकी एक लंबी कविता है. टूटी हुई बिखरी हुई. उसी का हिस्सा हैं ये. फिर मैं वो कविता अक्सर पढ़ने लगा. अकेले में. दोस्तों के सामने. प्रेमिका के सामने. फिर जब वह पत्नी बन गई तब भी उसके सामने.
ये एक मेनिफेस्टो की तरह है. या कि एक नशे की तरह. खुद चुना हुआ. जैसे कई बार आपको होंठ काटने में मजा आने लगे. हरारत में सुकून मिलने. प्यास लुभाने लगे. वैसा ही कुछ. बेहद बेसिर पैर का. नितांत अश्लील और अपना सा. एक दिन यूं ही पढ़ने लिखने के सिलसिले के दौरान पता चला. शमशेर ने एकांत के सुरूर में इसे लिख दिया था. कच्चा-पक्का. गद्य-पद्य सा. अगले रोज हिंदी के भीष्म पितामह नामवर सिंह ने इसे पढ़ा. दुरुस्त किया. आलोचक दाई की थपकी पड़ी. और कविता बुक्का फाड़कर हंस पड़ी. अभी याद आ रहा है. एम.ए. के दिनों में ही, एक गुलाबी कागज पर अनुज अजीत से ये कविता लिखवाई थी. कुछ रोज पहले तक तो ये लकड़ी के बक्से में नजर आती थी. रामजाने अभी किस दीमक का पोषण कर रही हो.
मगर कागज बीता है, कविता नहीं. और याद तो बीतने के बाद ही जिंदा होती है. या सिर्फ होती भर है. शमशेर की कविता ऐसी ही हैं. ऐन जिस पल आप उनको पढ़ रहे होते हैं, तब वे बस होती हैं. मगर बाद में, उसका होना कई-कई रूपों, रंगों, ध्वनियों और गंधों के साथ जब तब पसरता रहता है. और ये कविता, टूटी हुई बिखरी हुई. बहुत टूटी बिखरी है. मगर इसके हर टुकड़े में सघनता है. हर कोई अपने आप में एक पूरा अर्थ लिए हुए हैं. छुटपन में सुमन आचार्य जी कहते थे. मानस की हर चौपाई सिद्ध की जा सकती है. रामजाने कितना सच है. मगर इस कविता का हर टुकड़ा एक सिद्ध सच का आईना बना बैठा है. इसी जिंदगी में. फकत. -
सौरभ द्विवेदी ***
टूटी हुई, बिखरी हुई
टूटी हुई बिखरी हुई चाय
की दली हुई पांव के नीचे
पत्तियां
मेरी कविता बाल, झड़े हुए, मैल से रूखे, गिरे हुए,
गर्दन से फिर भी चिपके
... कुछ ऐसी मेरी खाल,
मुझसे अलग-सी, मिट्टी में
मिली-सी दोपहर बाद की धूप-छांह में खड़ी इंतजार की ठेलेगाड़ियां
जैसे मेरी पसलियां...
खाली बोरे सूजों से रफू किये जा रहे हैं...जो
मेरी आंखों का सूनापन हैं ठंड भी एक मुसकराहट लिये हुए है
जो कि मेरी दोस्त है. कबूतरों ने एक गजल गुनगुनायी . . .
मैं समझ न सका, रदीफ-काफिये क्या थे,
इतना खफीफ, इतना हलका, इतना मीठा
उनका दर्द था. आसमान में गंगा की रेत आईने की तरह हिल रही है.
मैं उसी में कीचड़ की तरह सो रहा हूँ
और चमक रहा हूँ कहीं...
न जाने कहाँ. मेरी बांसुरी है एक नाव की पतवार -
जिसके स्वर गीले हो गये हैं,
छप्-छप्-छप् मेरा हृदय कर रहा है...
छप् छप् छप्व वह पैदा हुआ है जो मेरी मृत्यु को संवारने वाला है.
वह दुकान मैंने खोली है जहां 'पॉइजन' का लेबुल लिए हुए
दवाइयां हंसती हैं -
उनके इंजेक्शन की चिकोटियों में बड़ा प्रेम है. वह मुझ पर हंस रही है, जो मेरे होठों पर एक तलुए
के बल खड़ी है
मगर उसके बाल मेरी पीठ के नीचे दबे हुए हैं
और मेरी पीठ को समय के बारीक तारों की तरह
खुरच रहे हैं
उसके एक चुंबन की स्पष्ट परछायीं मुहर बनकर उसके
तलुओं के ठप्पे से मेरे मुंह को कुचल चुकी है
उसका सीना मुझको पीसकर बराबर कर चुका है. मुझको प्यास के पहाड़ों पर लिटा दो जहां मैं
एक झरने की तरह तड़प रहा हूं.
मुझको सूरज की किरणों में जलने दो -
ताकि उसकी आँच और लपट में तुम
फौवारे की तरह नाचो. मुझको जंगली फूलों की तरह ओस से टपकने दो,
ताकि उसकी दबी हुई खुशबू से अपने पलकों की
उनींदी जलन को तुम भिगो सको, मुमकिन है तो.
हां, तुम मुझसे बोलो, जैसे मेरे दरवाजे की शर्माती चूलें
सवाल करती हैं बार-बार... मेरे दिल के
अनगिनती कमरों से. हां, तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मछलियां लहरों से करती हैं
...जिनमें वह फंसने नहीं आतीं,
जैसे हवाएँ मेरे सीने से करती हैं
जिसको वह गहराई तक दबा नहीं पातीं,
तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मैं तुमसे करता हूं. आइनों, रोशनाई में घुल जाओ और आसमान में
मुझे लिखो और मुझे पढ़ो.
आईनो, मुसकराओ और मुझे मार डालो.
आइनों, मैं तुम्हारी जिंदगी हूं. एक फूल उषा की खिलखिलाहट पहनकर
रात का गड़ता हुआ काला कम्बल उतारता हुआ
मुझसे लिपट गया. उसमें कांटें नहीं थे - सिर्फ एक बहुत
काली, बहुत लम्बी जुल्फ थी जो जमीन तक
साया किये हुए थी... जहाँ मेरे पाँव
खो गये थे. वह गुल मोतियों को चबाता हुआ सितारों को
अपनी कनखियों में घुलाता हुआ, मुझ पर
एक जिंदा इत्रपाश बनकर बरस पड़ा - और तब मैंने देखा कि मैं सिर्फ एक सांस हूं जो उसकी
बूंदों में बस गयी है.
जो तुम्हारे सीनों में फांस की तरह खाब में
अटकती होगी, बुरी तरह खटकती होगी. मैं उसके पांवों पर कोई सिजदा न बन सका,
क्योंकि मेरे झुकते न झुकते
उसके पांवों की दिशा मेरी आंखों को लेकर
खो गयी थी. जब तुम मुझे मिले, एक खुला फटा हुआ लिफाफा
तुम्हारे हाथ आया.
बहुत उसे उलटा-पलटा - उसमें कुछ न था -
तुमने उसे फेंक दिया : तभी जाकर मैं नीचे
पड़ा हुआ तुम्हें 'मैं' लगा. तुम उसे
उठाने के लिए झुके भी, पर फिर कुछ सोचकर
मुझे वहीं छोड़ दिया. मैं तुमसे
यों ही मिल लिया था.
मेरी याददाश्त को तुमने गुनाहगार बनाया - और उसका
सूद बहुत बढ़ाकर मुझसे वसूल किया. और तब
मैंने कहा - अगले जनम में. मैं इस
तरह मुसकराया जैसे शाम के पानी में
डूबते पहाड़ गमगीन मुसकराते हैं. मेरी कविता की तुमने खूब दाद दी - मैंने समझा
तुम अपनी ही बातें सुना रहे हो. तुमने मेरी
कविता की खूब दाद दी. तुमने मुझे जिस रंग में लपेटा, मैं लिपटता गया :
और जब लपेट न खुले - तुमने मुझे जला दिया.
मुझे, जलते हुए को भी तुम देखते रहे : और वह
मुझे अच्छा लगता रहा. एक खुशबू जो मेरी पलकों में इशारों की तरह
बस गयी है, जैसे तुम्हारे नाम की नन्हीं-सी
स्पेलिंग हो, छोटी-सी प्यारी-सी, तिरछी स्पेलिंग.
आह, तुम्हारे दांतों से जो दूब के तिनके की नोक
उस पिकनिक में चिपकी रह गयी थी,
आज तक मेरी नींद में गड़ती है. अगर मुझे किसी से ईर्ष्या होती तो मैं
दूसरा जन्म बार-बार हर घंटे लेता जाता
पर मैं तो जैसे इसी शरीर से अमर हूं-
तुम्हारी बरकत! बहुत-से तीर बहुत-सी नावें, बहुत-से पर इधर
उड़ते हुए आये, घूमते हुए गुजर गये
मुझको लिये, सबके सब. तुमने समझा
कि उनमें तुम थे. नहीं, नहीं, नहीं.
उसमें कोई न था. सिर्फ बीती हुई
अनहोनी और होनी की उदास
रंगीनियाँ थीं. फकत. ***
सरपंच सौरभ की आवाज में सुनिए शमशेर की कविता- टूटी हुई, बिखरी हुई
https://www.youtube.com/watch?v=hmC4qa7MQr4&feature=youtu.be