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नताशा और देवांगना का 'जेल एक्सपीरिएंस' सफूरा, दिशा, नौदीप और सदफ के अनुभव जैसा क्यों है?

महिला एक्टिविस्ट्स ने बताया जेल के अंदर का अपना अनुभव.

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बाएं से दाएं. नताशा नरवाल और देवांगना कालिता. सफूरा जरगर और दिशा रवि. नताशा, देवांगना और सफूरा पर UAPA लगाया गया जबकि पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा रवि को दिल्ली पुलिस ने टूलकिट मामले में बेंगलुरू से गिरफ्तार किया था. (फोटो: ट्विटर)
साल 2020 में हुए उत्तर पूर्वी दिल्ली दंगों की साजिश रचने के आरोप में एक साल से अधिक समय तक जेल में बंद रहीं एक्टिविस्ट नताशा नरवाल और देवांगना कालिता जमानत पर बाहर आ चुकी हैं. दोनों के ऊपर आतंवादी गतिविधियों को रोकने से जुड़ा एक्ट UAPA लगाया गया था. दिल्ली हाई कोर्ट ने दोनों को 15 जून को जमानत दी थी. साथ ही पुलिस और सरकार के ऊपर कुछ कड़ी टिप्पणियां भी की थीं. मसलन, कोर्ट ने कहा कि ऐसा लगता है कि सरकार ने असहमति को दबाने के अपने उतालवेपन के चलते विरोध प्रदर्शन करने के संवैधानिक अधिकार और आतंकवादी गतिविधियों के बीच का फर्क मिटा दिया है. कोर्ट ने यह भी कहा कि पुलिस ने आरोपियों के खिलाफ दाखिल चार्जशीट में बातों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया है, यहां तक कि जो आरोप लगाए गए हैं उनके लिए चार्जशीट में पर्याप्त सबूत मौजूद नहीं हैं.
दिल्ली हाई कोर्ट के जमानत के आदेश के बाद नताशा और देवांगना को तुरंत रिहा नहीं किया गया. दिल्ली पुलिस ने ये कहकर उनकी रिहाई पर रोक लगाने का प्रयास किया कि उनके एड्रेस और आधार की जानकारी को वैरिफाई करने के लिए करीब हफ्ते भर का समय चाहिए. दूसरी तरफ नताशा और देवांगना की तरफ से दिल्ली हाई कोर्ट के आदेश का पालन कराने के लिए दिल्ली हाई कोर्ट में ही एक और याचिका डाली गई. जिसपर सुनवाई करते हुए दिल्ली हाई कोर्ट ने उनकी तुरंत रिहाई का फैसला ट्रायल कोर्ट पर छोड़ दिया. आखिरकार दो दिन बाद यानी 17 जून को दिल्ली की कड़कड़डूमा कोर्ट ने देवांगना और नताशा को तुरंत रिहा करने का आदेश तिहाड़ जेल को दिया. हमारे समय की भरपाई नहीं हो सकती इस आदेश के बाद 17 जून की शाम को जब नताशा और देवांगना तिहाड़ जेल से बाहर आईं, तो दोनों खिलखिला रही थीं. ऐसा लगा ही नहीं कि वे एक साल से भी अधिक समय तक जेल में रही और उन्हें आतंकवादी कहकर जेल में डाला गया था. जेल से बाहर आते ही दोनों ने अपने जेल के अनुभव साझा किए.
इंडिया टुडे से बात करते हुए नताशा ने बताया-
"जेल में जाकर मुझे पता चला कि कैद में डाल देने की व्यवस्था किस तरह से काम करती है. जेल अपने कैदियों का अमानवीकरण कर देता है. मुझे नहीं पता कि इसका मेरे ऊपर क्या असर हुआ है. जेल लोगों से उनके अधिकार छीन लेता है. पिछले एक साल की कैद में हमने जो खोया है, मुझे नहीं लगता कि उसकी किसी भी तरीके से भरपाई हो सकती है. खासतौर पर मेरे पिता की मौत. इस नुकसान की तो कभी भी भरपाई नहीं हो सकती. मैं गुस्सा हूं और ये गुस्सा केवल मेरी अपनी कैद को लेकर नहीं है. बहुत से लोग हैं, जिनके साथ ठीक वैसा हुआ है, जो हमारे साथ हुआ. वो सब भी इंसान हैं. इस मुश्किल दौर में अपने परिवार से मिलना चाहते हैं. लेकिन जेल में किसी को संपर्क के लिए बुलाना ही बहुत बड़ा संघर्ष है. बहुत से लोगों के पास तो कानूनी सहायता तक उपलब्ध नहीं है."
वहीं देवांगना ने इंडिया टुडे को बताया-
"जेल के अंदर अपने आसपास के लोगों की लाचारी देखना बहुत दुखी करने वाला था. जेल में वही लोग हैं, जिनके पास कानूनी सहायता नहीं है और जो पुलिस को रिश्वत देकर नहीं बच सके. हमने जितना हो सका, उतना किया. उन लोगों के साथ दुख बांटा, जिनका कोई मर गया था. लेकिन रोने की आवाज, वो लोगों का चिल्लाना कि खोल दो, बाहर जाने दो. ये अन्याय है. इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती."
नताशा और देवांगना ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया कि जब दिल्ली पुलिस ने उनकी रिहाई ना होने देने के लिए वैरिफिकेशन का बहाना बनाया और साथ ही साथ दिल्ली हाई कोर्ट के आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका डाल दी, तो लगा कि वे कभी बाहर ही नहीं निकल पाएंगी. यहां तक कि ट्रायल कोर्ट की तरफ से रिहाई का आदेश देने के बाद भी ऐसा लगता रहा कि अभी कोई आकर उन्हें फिर से पकड़ लेगा और जेल में डाल देगा. दोनों ने यह भी बताया कि राजनीतिक कैदी होने के कारण दोनों के मामले हाईलाइट हुए. जिसकी वजह से जेल के अंदर उनका खूब सोशल ट्रायल हुआ. लेकिन जिस तरह का समर्थन उन्हें मिला, उसके दम पर वे संघर्ष करती रहीं. नताशा और देवांगना 'पिंजड़ा तोड़' नाम के एक नारीवादी संगठन की कार्यकर्ता हैं. यह संगठन महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक बराबरी की बात करता है. दिसंबर 2019 में जब दिल्ली के शाहीन बाग की महिलाओं ने CAA और NRC के खिलाफ विरोध प्रदर्शन शुरू किया था, तो पिंजड़ा तोड़ ने भी उसमें शिरकत की थी. पिंजड़ा तोड़ की कार्यकर्ता के तौर पर नताशा नरवाल और देवांगना कालिता ने दिल्ली में जगह-जगह विरोध प्रदर्शन आयोजित करवाए थे. इंडिया टुडे से बात करते हुए दोनों ने बताया कि CAA-NRC विरोध प्रदर्शन में एक्टिव भूमिका निभाने के लिए उन्हें कोई भी मलाल नहीं है. यही नहीं, भले ही उस आंदोलन को कुचल दिया गया है, लेकिन उनका संघर्ष जारी रहेगा.
पुलिस और अधिकारियों की खुली सांप्रदायिकता
CAA-NRC विरोधी प्रदर्शनों में महिला कांग्रेस की राष्ट्रीय संयोजक सदफ जफर ने भी हिस्सा लिया था. जिसके बाद कई आरोपों के तहत उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. वे करीब 20 दिन तक जेल में रहीं. अपने जेल के अनुभव के बारे में उन्होंने हमसे बात की. सदफ ने बताया-
"19 दिसंबर 2019 को हम लखनऊ में विरोध प्रदर्शन कर रहे थे. अचानक से वहां हिंसा होने लगी. पुलिस आई. हमें उठा लिया. उन्होंने मुझे बहुत पीटा. पहले गाड़ी में फिर थाने में. मुझे इंटर्नल ब्लीडिंग होने लगी. चौबीस घंटे तक मुझे मैजिस्ट्रेट के समने पेश नहीं किया गया. मेडिकल तक नहीं कराया. घर वालों तक को सूचना नहीं दी गई. जो भी मेरी खोज खबर लेने आया, उसे भी पुलिस ने पीटा. आखिर में फिर ज्यूडिशल कस्टडी में लेकर मुझे जेल में डाल दिया गया. मारपीट करने वाले पुलिसवालों में पुरुष और महिला कर्मचारी दोनों शामिल रहे. पुलिसवाले मुझे गालियां भी दे रहे थे. ये गालियां सांप्रदायिकता से भरी थीं. वो मुझसे कहते कि तुम मुस्लिम लोग खाते यहां का हो और गाते पाकिस्तान का. मुझे ये तो पता था कि पुलिस एक हद तक सांप्रदायिक होती है, लेकिन पुलिस की इस तरह की खुली सांप्रादियकता मैं पहली बार देख और महसूस कर रही थी."

जफर ने रुंधी हुई आवाज में हमें आगे बताया-
"जेल के अंदर भी मैं इसी तरह के सांप्रदायिक अनुभवों से गुजरती रही. डेपुटी जेलर मुझसे कहती कि मैं पत्थर क्यों चला रही थी, मुझे तो बम बांधकर फट जाना था. मुझे आतंकी कहा जाता. मुझे यह सब सुनकर बुरा तो नहीं लगता था, लेकिन अफसोस होता था. अफसोस इस बात का एक शिक्षिका के तौर पर मैंने 15 से 16 साल तक बच्चों को देश के इतिहास और संविधान के बारे में पढ़ाया, उसके बाद भी यह देश ऐसा हो गया, जहां नागरिक अधिकारों के लिए लड़ने वालों को आतंकी कहा जा रहा है. उस समय बहुत ठंड पड़ रही थी. हम दो कंबल बिछाते थे, दो ओढ़ते थे. लेकिन सर्दी तब भी लगती थी. खाना तो ढंग का था ही नहीं. इन तमाम परेशानियों के बाद भी मन में बस इतना ही ख्याल रहता कि जेल को किसी भी तरह से काटना है. क्योंकि इस आंदोलन में बहुत से लोग मारे जा चुके थे. इसके अलावा मुझसे भी उम्रदराज साथी भी जेल में बंद कर दिए गए थे. वो भी लड़ रहे थे. मुझे लोगों का सपोर्ट मिल रहा था. लोगों को मुझसे कुछ आशा थी. ऐसे में मैं हार तो मान ही नहीं सकती थी."

बीस दिन बाद सदफ जफर जेल से जमानत पर रिहा हो गईं. लेकिन वो बताती हैं कि रिहाई के बाद भी सरकार उनके पीछे पड़ी रही. कभी उनके नाम और फोटो के साथ होर्डिंग बीच चौराहे पर लगवा दी, तो कभी घर के बाहर मुनादी कराई कि यहां पत्थरबाज रहती है. जिस अखबार के लिए सदफ लिखती थीं, वहां कह दिया कि इस पत्थरबाज को अपने यहां नौकरी पर मत रखिए. बच्चों को पढ़ाने की उनकी नौकरी भी चली गई.
घरवालों से बात नहीं करने दी
रिहाई के बाद परेशान किए जाने की बात एक और महिला एक्टिविस्ट नौदीप कौर भी कहती हैं. नौदीप कौर एक मजदूर अधिकार कार्यकर्ता हैं. वे मजदूर अधिकार संगठन से जुड़ी हुई हैं. मुख्य तौर पर हरियाणा के औद्योगिक इलाकों में कार्यरत हैं. उन्हें इस साल जनवरी में गिरफ्तार किया गया था. आरोप लगाए गए कि उन्होंने पुलिस पर हमला किया, फैक्ट्रियों के मालिकों को धमकी दी, वसूली की और हत्या की कोशिश भी. नौदीप 45 दिन तक जेल में बंद रहीं. जिसके बाद उन्हें जमानत पर छोड़ा गया. नौदीप ने हमें बताया कि जमानत पर रिहाई के बाद भी उन्हें और उनके करीबी लोगों को धमकाया जा रहा है. करीबी लोगों को जहां फर्जी मुकदमों में फंसाने की धमकी दी जा रही है, वहीं उनके ऊपर दूसरी और संगीन धाराएं लगाने की बात कही जा रही है.
मजदूर अधिकार संगठन कीं नौदीप कौर. पुलिस ने इस साल 12 जनवरी को तब गिरफ्तार किया था, जब वे हरियाणा के कुंडली में मजदूरों के साथ उनके हक की लड़ाई लड़ रही थीं. (फोटो: विशेष इंतजाम)
मजदूर अधिकार संगठन कीं नौदीप कौर. पुलिस ने इस साल 12 जनवरी को तब गिरफ्तार किया था, जब वे हरियाणा के कुंडली में मजदूरों के साथ उनके हक की लड़ाई लड़ रही थीं. (फोटो: विशेष इंतजाम)

दरअसल, नौदीप इस साल की शुरुआत में हरियाणा के कुंडली क्षेत्र में फैक्ट्री मालिकों से मजदूरों को उनका हक देने की मांग कर रही थीं. इस सिलसिले में उन्होंने कुछ विरोध प्रदर्शन किए. कई बार हड़तालों में हिस्सा लिया. इन सबके बीच पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया. नौदीप ने हमें बताया-
"हम मजदूरों के साथ उनके बकाया वेतन के लिए हड़ताल कर रहे थे. कंपनियों ने उन्हें वेतन देने से मना कर दिया था. ऐसे में विरोध प्रदर्शन और हड़ताल का ही रास्ता बचा था. 12 जनवरी को पुलिस ने मुझे हिरासत में ले लिया. मुझे बहुत मारा-पीटा. पुरुष पुलिवालों ने ही. मैं चल भी नहीं पा रही थी. कई दिनों तक जेल में रखने के बाद पुलिस ने 25 जनवरी को पहली बार मेरा मेडिकल कराया. बहुत सर्दी पड़ रही थी. जेल में मुझे केवल एक कंबल दिया गया था, जिसमें रातें काटना बहुत मुश्किल था. दवाइयां भी नहीं मिल रही थीं. खाना सुबह 6 बजे दे दिया जाता. जब तक खाने की नौबत आती, तब तक वो रोटियां सूख जातीं, सब्जी ठंडी हो जाती. सब्जी में या तो पानी होता या फिर कीड़े. जेल की अधिकारी मुझे दुत्कारती थीं. मुझे घरवालों से भी बात नहीं करने दी जाती."

इन परिस्थितियों के बाद भी नौदीप ने अपनी हिम्मत बनाए रखी. दरअसल, नौदीप के गिरफ्तारी के मुद्दे को भी व्यापक स्तर पर उठाया गया था. यहां तक कि अमेरिकी की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस की भतीजी मीना हैरिस ने भी नौदीप की गिरफ्तारी का विरोध किया था. नताशा, देवांगना और सदफ की तरह ही नौदीप ने भी हमें बताया कि उन्हें जिस तरह का समर्थन मिला, उससे जेल के अंदर उन्हें लड़ने की ऊर्जा मिलती रही.
जेल में जान जाने का डर लगता था
25 मार्च 2020 को कोरोना वायरस का प्रसार रोकने के लिए देश में 21 दिन का लॉकडाउन शुरू हुआ था. जिंदगी थम सी गई थी. लोग नई परिस्थितियों में खुद को ढालने का प्रयास कर रहे थे. कुछ दिनों बाद 10 अप्रैल को जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनीवर्सिटी से पीएचडी कर रहीं सफूरा जरगर के घर पुलिस आई. उनसे कहा कि वे अपना सामान पैक कर लें. 10 अप्रैल की रात को पुलिस ने सफूरा को गिरफ्तार कर लिया. आरोप लगाया कि उन्होंने उत्तर पूर्व दिल्ली में हुए दंगें को भड़काने के लिए साजिश रची. गिरफ्तारी के समय सफूरा प्रेगनेंट थीं. नताशा, देवांगना और सदफ जफर की ही तरह वो शुरुआत से ही CAA-NRC विरोधी आंदोलन से जुड़ी थीं. उन्हें भी दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद किया गया. हालांकि, बाद में प्रेगनेंट होने की वजह से मानवीय आधार पर साल जून, 2020 में उन्हें जमानत दे दी गई. उनके ऊपर भी UAPA लगाया गया था. सफूरा के साथ किसी तरह की मारपीट तो नहीं हुई, लेकिन उनका जेल अनुभव ही बाकियों की तरह ही रहा. न्यूज पोर्टल स्क्रॉल से उन्होंने इस संबंध में बात की थी. उन्होंने बताया-
"जेल में मुझे कोरोना के नाम पर एक अलग सेल में 15 दिन तक क्वारंटीन किया गया. जबकि मेरे बाद आए लोग इधर उधर घूमते रहे. 22-22 घंटे तक मुझे सेल में बंद रखा जाता. एक अफवाह फैला दी गई कि मैं कश्मीर से आई आतंकवादी हूं, जिसने दिल्ली दंगों में 53 हिंदुओं की हत्या कर दी. मुझे इस समय अपनी जान की फिक्र होती थी. लेकिन फिर धीरे-धीरे मैंने बाहर निकलना शुरू किया. वो बहुत मुश्किल समय था. किताबें और नमाज पढ़कर ही मैंने उसे काटा. शुरू में तो लगा था कि यह एक बुरा सपना है. जेल जाने के कई दिनों के बाद मुझे अपने वकील से बात करने दी गई. मेरे बगल वाले सेल में एक कैदी ने आत्महत्या कर ली थी. उसे पुलिस ने बहुत पीटा था. उसकी आत्महत्या का मेरे ऊपर बहुत बुरा असर पड़ा. दूसरी तरफ, कोरोना के कारण मुलाकात वाली व्यवस्था भी खत्म कर दी गई थी. इसलिए पति से भी नहीं मिल पाती. सिर्फ प्रोटेस्ट में हिस्सा लेने की इतनी बड़ी सजा दी जाएगी, ऐसा मैंने कभी नहीं सोचा था."

इसी साल 23 फरवरी को दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट ने एक टिप्पणी की. कहा कि किसी भी लोकतांत्रिक देश के नागरिक सरकार के विवेक की निगरानी करने वाले होते हैं. उन्हें केवल इसलिए गिरफ्तार नहीं किया जा सकता क्योंकि वे अपनी सरकार से असहमत हैं. यह टिप्पणी करते हुए पटियाला हाउस कोर्ट ने 22 साल की पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा रवि को जमानत दे दी. दिशा रवि को दिल्ली पुलिस ने 13 फरवरी को बेंगलुरु स्थित उनके घर से गिरफ्तार किया था. उन्हें टूलकिट मामले में गिरफ्तार किया गया था. इस टूलकिट को स्वीडेन की पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग ने शेयर किया था. दिल्ली पुलिस का आरोप है कि इस टूलकिट को दिशा रवि ने एडिट किया और इसका संबंध 26 जनवरी को दिल्ली में हुई हिंसा से है. पुलिस ने कहा कि इस टूलकिट में जैसा-जैसा लिखा था, ठीक उसी तरह से 26 जनवरी को दिल्ली में हिंसा हुई. साथ में पुलिस ने यह भी कहा कि इस टूलकिट को तैयार करने में खालिस्तान का समर्थन करने वाले संगठन का भी हाथ है.

जमानत पर रिहा होने के बाद 13 मार्च को दिशा रवि ने चार पन्नों का एक बयान जारी किया था. जिसमें उन्होंने दूसरी बातों के साथ अपना जेल अनुभव भी साझा किया. उन्होंने कहा-
"जेल में रहने के दौरान मुझे ख्याल आया कि अगर किसी ने मुझसे यह पूछा होता कि पांच साल बाद खुद को कहां देखती हो, तो मैंने जेल नहीं कहा होगा. जेल में रहते हुए मैं लगातार खुद से पूछती रही कि उस एक पल में वहां होना कैसा है? लेकिन मुझे कोई जवाब नहीं मिला. मैंने खुद को यह सोचने के लिए विवश किया कि जेल में रहना तब ही आसान हो पाएगा, जब मैं यह सोचूं कि मेरे साथ वो सब कुछ नहीं हुआ, जो बीते कुछ दिनों में असल में हुआ है. तिहाड़ में मुझे हर दिन, हर घंटे और हर सेकेंड तक का पता था. मैं अपनी सेल में बंद ये सोच रही थी कि धरती पर जीविका के मूल तत्वों के बारे में सोचना कब से अपराध हो गया. कुछ लोगों के लालच की कीमत लाखों लोग क्यों चुका रहे हैं. अगर हम कभी ना खत्म होने वाले इस लालच को रोकने के लिए कदम नहीं उठाते हैं तो इंसानियत भी खत्म हो सकती है.
जेल के अंदर लाचार भारत बसता है फरवरी, 1922 में चौरा-चौरी कांड हुआ था. अंग्रेजों से आजादी की मांग कर रहे कुछ स्वतंत्रता सेनानियों ने गोरखपुर के पास चौरा-चौरी स्थित एक पुलिस स्टेशन में आग लगा दी. 25 लोगों की मौत हो गई. महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया.
इस घटना के 98 साल बीत जाने के बाद यानी फरवरी 2020 में कुछ छात्रों और एक महिला पत्रकार ने पदयात्रा शुरू की. लक्ष्य था CAA-NRC प्रदर्शनों के दौरान हुई हिंसा के बाद देश में जो सांप्रदायिक माहौल बना, दो समुदायों के बीच जो खाई चौड़ी हुई, उसे महात्मा गांधी के सामाजिक सद्भाव के संदेश के साथ पाटा जाए. इसके लिए चौरी-चौरा से राजघाट तक की सत्याग्रह यात्रा शुरू हुई. लेकिन बीच में ही इन सत्याग्रहियों को गिरफ्तार कर लिया गया. बाद में उन्हें जमानत भी मिली. इस बीच गाजीपुर जेल में बंद पत्रकार प्रदीपिका सारस्वत की चिट्ठी सामने आई. जिसमें उन्होंने अपने जेल के अनुभव के बारे में बताया. प्रदीपिका इन सत्याग्रहियों में शामिल अकेली महिला थीं. 15 फरवरी, 2020 को लिखी अपनी चिट्ठी में उन्होंने गाजीपुर जेल को किसी नरक से कम नहीं बताया. उन्होंने लिखा-
"जेल के भीतर दो बैरकों में 40 से अधिक महिलाएं हैं, जबकि एक बैरक मात्र 6 कैदियों के लिए है. ना जाने कितनी महिलाओं के मुकदमे पांच-पांच साल से चल रहे हैं. वे बिना जुर्म साबित हुए ही जेल में कैद हैं. किसी को जमानत मिल गई है. लेकिन उसे कोई ले जाने वाला नहीं. जेल बहुत ही हिंसक और अमानवीय है. ना तो ओढ़ने की व्यवस्था है और ना ही बिछाने की. खुले में नहाना पड़ता है. कोई लॉकर नहीं. महिलाएं गंदे कपड़े पहने रहती हैं. कपड़े टांगने के लिए छोटी-छोटी खूटियां हैं. सुबह का नाश्ता रोज नहीं मिलता. नाश्ते में कभी भीगे चने तो कभी ब्रेड, कभी तो बस चाय."
प्रदीपिका ने अपने पत्र में यह भी लिखा कि जेल में आप एक ऐसे भारत से मिलते हैं, जो बेहद लाचार है. प्रदीपिका की यह बात नताशा, देवांगना, सदफ, नौदीप और सफूरा के अनुभवों के जैसी ही है. इन महिला कार्यरकर्ताओं के अलावा दूसरी महिला कार्यकर्ता भी जेलों में कैद हैं. वे भी राजनीतिक कैदी हैं. जब भी वे बाहर आएंगी, तो शायद अपनी पीड़ा से अधिक जेल में प्रताड़ित हो रहे दूसरे कैदियों की परेशानियों के बारे में ही बताएंगी. हमारे सामने फिर से एक 'लाचार भारत' की तस्वीर पेश करेंगी.