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रत्ना पाठक शाह ने बताया- डायरेक्टर्स शबाना आज़मी और स्मिता पाटिल को ज़बरदस्ती रुलाते थे

"70-80s की फ़िल्मों में या तो महिलाएं रोती रहती थीं या गुस्से में रहती थीं."

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(फोटो - सोशल मीडिया)

रत्ना पाठक शाह. वेटरन ऐक्ट्रेस हैं और अपनी आज़ाद-बयानी के लिए अक्सर चर्चा में रहती हैं. फिर से चर्चा में हैं. हाल में दिए एक इंटरव्यू की वजह से. एंटरटेनमेंट वेबसाइट पिंकविला के इंटरव्यू में रत्ना ने कई चीज़ों पर बात की. ऐक्ट्रेस के तौर पर अपनी पांच दशकों की यात्रा, बीते सालों में अपने क्राफ़्ट का डेवलपमेंट, देश में ऐक्टिंग ट्रेनर्स की कमी, इंडस्ट्री की चमक-धमक, महिलाओं के संघर्ष और एक रूढ़िवादी समाज में उन्हें क्या मौक़े मिलते हैं जैसे तमाम विषयों पर उनसे बात की.

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रत्ना ने 70 और 80 के दशक की फिल्मों में महिला किरदारों पर भी बात की. उस समय जिस तरह की कहानियां बन रही थीं और उसमें महिला किरदारों को जिस तरह लिखा जाता था, उसे कॉल-आउट करते हुए रत्ना ने कहा,

"मैं ऐसी ऐक्टर नहीं हूं जो केवल रोए, उदास दिखे या गुस्से में दिखे. क्योंकि उन दिनों फ़िल्मों में महिलाएं यही करती थीं. 70-80 के दशक की सभी फिल्मों को उठाकर देख लीजिए. यहां तक ​​कि आर्ट फ़िल्मों को भी. बेचारी स्मिता पाटिल और शबाना आजमी को कैसा काम दिया गया? या तो वे रोती रहती थीं या हर समय गुस्से में रहती थीं.

उस समय के लेखक स्टीरियो-टिपिकल सोच रखते थे. उनके हिसाब से महिलाओं को ख़ुश रहने का कोई अधिकार नहीं था."

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रत्ना ने 1983 में श्याम बेनेगल की 'मंडी' के साथ डेब्यू किया. फिर 'मिर्च मसाला', 'जाने तू या जाने ना', 'गोलमाल 3', 'कपूर एंड संस' और 'लिपस्टिक अंडर माय बुर्का' जैसी कई बेजोड़ फ़िल्मों में काम किया. अपने करियर आर्क पर रत्ना ने कहा,

"कॉमेडी ने मेरी जान बचाई. कॉमेडी ने मुझे एहसास दिलाया कि ऐक्टिंग रोने और चिल्लाने से कहीं ज़यादा है. कॉमेडी के लिए स्किल, कड़ी मेहनत और समय की ज़रूरत होती है. इसकी अपनी ट्रेनिंग है."

उन्होंने ये भी बताया कि 1970 के दशक में सेलिब्रिटी कल्चर कितना ज़हरीला था और कैसे स्टार पावर का आगे बाक़ी सब चीज़ें छिप जाती थीं.

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"जब मैं 70 के दशक में बड़ी हो रही थी, तो स्टार्स बहुत ख़राब होते थे. माफ़ कीजिए, लेकिन वो इसी तरह का व्यवहार करते थे. और, परफ़ॉर्मैंसेज़ भी ख़राब थीं. पता नहीं उन्हें किस बात का गुमान था. मुझे उस तरह के रवैये से किसी भी तरह का जुड़ाव महसूस नहीं होता था.

स्टार्स को क्या भाव मिलता था. उस समय ऐसा था कि स्टार ही कहानी को चलाएगा. उस समय की फ़िल्में भी ऐसी ही थीं, जो स्टार चलाएगा. उनका कहानी कहने से कोई मतलब नहीं होता था. जैसा हमें बिमल रॉय, के आसिफ या महबूब ख़ान की फिल्मों में दिखता था."

रत्ना ने कई ज़रूरी चिंताएं भी ज़ाहिर कीं. रतना ने ये भी कहा कि उन्हें डर है कि भारतीय समाज एक दकियानूस समाज बनता जा रहा है.

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