वो महिला थीं रानी रासमणि (बांग्ला उच्चारण में राशमोनी).
अंग्रेजों ने हुगली नदी में मछलियां पकड़ने पर टैक्स लगा दिया था. इसकी वजह से मछुआरे परेशानी में थे. यही नहीं, अंग्रेजों के स्टीमर जब नदी में चलते थे, तो इस वजह से मछुआरों के लिए मछलियां पकड़ना मुश्किल हो जाता था. कोलकाता में ये कहानी चलती है कि रानी राशमोनी ने नदी के दोनों किनारों पर लोहे की चेन डलवा दीं. इस तरह सामान लाने ले जाने वाले स्टीमरों का रास्ता रुक गया. रानी ने तब तक वो चेन नहीं हटवाईं, जब तक अंग्रेजों ने उनकी शर्तें मानने की हामी नहीं भर दी. इस तरह रानी राशमोनी ने वो टैक्स भी हटवा लिया. घुसुरी से मीटियाबुर्ज तक नदी का किनारा लीज पर लिया, और उस इलाके में मछलियां पकड़ने का हक़ लोकल मछुआरों को दे दिया.

लेकिन इस धाकड़ महिला की पूरी कहानी जानने के लिए हमें समय से थोड़ा पीछे चलना होगा.
28 सितंबर 1793 को हरेकृष्ण दास और रामप्रिया देवी के घर जन्म हुआ. इनके पिता ‘कैवर्त’ समुदाय के थे, जिनका काम मछलियां पकड़ना हुआ करता था. बंगाली समाज में इस समुदाय को नीची नज़रों से देखा जाता था. जब रानी सात साल की थीं, तभी उनकी मां गुज़र गईं. 11 साल की उम्र में जनबाज़ार, कोलकाता के बाबू राजचंद्र दास से उनका लगन हुआ. उनकी तीसरी पत्नी बनकर घर आईं. वे उम्र में रानी से काफी बड़े थे. लेकिन अपने इलाके के अमीर ‘ज़मींदार’ हुआ करते थे, इसलिए पिता ने रिश्ता तय कर दिया. गौने के बाद ससुराल आईं. चार बेटियों की मां बनीं.
बाबू राजचंद्र ने रानी को अपने व्यापार में शामिल किया. उन्हें घर तक बांध कर नहीं रखा. दोनों ने मिलकर इतने अच्छे तरीके से व्यापार चलाया कि ज़मींदारी के साथ-साथ सूद पर पैसे भी देने शुरू कर दिए. राजा राम मोहन रॉय बाबू राजचंद्र के करीबी थे. लेकिन 1830 में ही बाबू राजचंद्र की मौत हो गई. अब सवाल खड़ा हुआ, अब जायदाद और लोगों का ध्यान कौन रखेगा. रानी राशमोनी ने ये जिम्मा अपने कन्धों पर उठा लिया. जिस समय में उन्होंने ये काम किया, तब विधवाओं के लिए ऐसा करना बहुत बड़ी बात हुआ करती थी.
रानी राशमोनी ने कई बड़े प्रोजेक्ट शुरू किए. सुबर्णरेखा नदी से पुरी तक भक्तों के सफ़र के लिए सड़क बनवाई. कई घाट बनवाए.आज जो प्रेसिडेंसी कॉलेज है, वो उस समय हिन्दू कॉलेज के नाम से जाना जाता था. रानी ने उसे दिल खोल कर पैसे दान किए.

यही नहीं, उन्होंने लोकल गुंडों की जिंदगी सुधारने में भी मदद की. राजकुमार द्वारकानाथ टैगोर ने अपनी ज़मींदारी की कुछ ज़मीन उनके पास गिरवी रखी थी. उन्हें इंग्लैंड जाने के लिए पैसे चाहिए थे. ये ज़मीन नार्थ 24 परगना में पड़ती थी. आज ये संतोषपुर के आस पास का इलाका है. ये सुंदरबन का हिस्सा हुआ करता था. काफी दलदली इलाका था. कोई रहता नहीं था यहां. कुछ चोर-उचक्कों के अलावा. ये वहीं छुपकर रहते थे. फिर लूट मचाने के लिए पैरों में डंडे बांधकर निकल जाते थे. रानी ने इन लुटेरों और उनके परिवारों को समझाया कि आस पास फिशरी (मछलियां पालने वाले कृत्रिम तालाब) खोले जाएं. वो मान गए, और जल्द ही वहां ये व्यापार चल निकला. लुटेरों ने अपनी लूट-खसोट छोड़ दी, और पक्के मछुआरे बन गए.
रानी राशमोनी के ये किस्से तो उनके बारे में लोगों के बीच चलते रहते हैं. लेकिन उनकी सबसे बड़ी यादगार मानी जाती है दक्षिणेश्वर काली मंदिर.

1847 में उन्होंने मंदिर बनवाने के लिए 20 एकड़ ज़मीन खरीदी. 1855 में लोगों के लिए इस मंदिर को खोल दिया गया. लेकिन कोई भी लोकल पंडित वहां का पुजारी बनने को तैयार नहीं हुआ. क्यों? क्योंकि रानी राशमोनी कथित ‘नीची जाति’ की थीं. हारकर उन्होंने मंदिर रामकुमार चट्टोपाध्याय के नाम किया, और मंदिर के रखरखाव के लिए सालाना पैसे बांध दिए. रामकुमार के भाई गदाधर, जिनको बाद में रामकृष्ण परमहंस के नाम से जाना गया, इस मंदिर के पुजारी बने. ये वही मंदिर है, जहां नरेंद्रनाथ ने आकर रामकृष्ण से मुलाक़ात की. नरेन्द्रनाथ आगे चलकर विवेकानंद के नाम से जाने गए. रामकृष्ण परमहंस रानी राशमोनी को अष्टसखियों में से एक मानते थे. अष्टसखियां राधा और कृष्ण की आठ मुख्य गोपियां मानी जाती हैं.
वह राजा राममोहन रॉय से भी प्रभावित थीं. ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने विधवा पुनर्विवाह की जो मुहिम चलाई थी, वे उसका समर्थन करती थीं. रानी राशमोनी ने ईस्ट इंडिया कंपनी के पास बहुविवाह के खिलाफ एक ड्राफ्ट बिल भी जमा किया था.
19 फरवरी 1861 को रानी राशमोनी का निधन हो गया. लेकिन इतिहास उनकी कहानी अब भी कह रहा है. आगे भी कहता रहेगा.
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