
फिल्म में रोहन का किरदार एक ऐसे लड़के का था जो सेंसिटिव है, इमोशनल है. उसकी आत्मा एक कवि की है. मगर उसके पिता को चाहिए एक सख्त मर्द. अपने जैसा. फिल्म में रोहन तो बागी होकर भाग गया था. क्योंकि उसके दोस्त उसके साथ थे. मगर असल जीवन में जाने ऐसे कितने लड़के होते हैं जो कभी इस टॉर्चर से भाग नहीं पाते. क्योंकि खुद के अकेलेपन के सिवा, उनका कोई साथी नहीं होता.

जिस टॉर्चर की मैं बात कर रही हूं. उसे बुलीइंग कहते हैं. यूं तो बुलीइंग किसी के भी साथ, किसी भी उम्र में हो सकती है. लेकिन आज हम बात कर रहे हैं लड़कों की बुलीइंग की. जिसके बारे में कभी उस तरह से बात नहीं होती, जिस तरह से होनी चाहिए. आपलोग अक्सर कमेंट सेक्शन में पूछते हैं- तुम्हें लड़कों से प्रॉब्लम क्या है? और मैं हर बार मन ही मन एक ही जवाब देती हूं- प्रॉब्लम लड़कों से नहीं, उस सोच से है जो लड़कों और लड़कियों को बांटती है, उन्हें एक-दूसरे का विलोम बताती है. ये सोच जितना नुकसान लड़कियों को पहुंचाती है. उतना ही लड़कों को भी. किस तरह पहुंचाती है, इसी का एक उदाहरण है बुलीइंग.

हैना गैड्सबी एक स्टैंडअप आर्टिस्ट हैं. 'ननेट' नाम के अपने एक्ट में कहती हैं-
हमारी दिक्कत ही यही है कि हम लड़के और लड़कियों को बचपन से ये सिखाते हैं कि वो एक-दूसरे से कैसे अलग हैं. ये नहीं सिखाते कि वो एक-दूसरे के कितने सामान हैं. सच ही तो है, अगर बायोलॉजिकल पक्ष को छोड़ दें, तो लड़के और लड़कियों में कोई फर्क नहीं हैं. इंसान ही हैं. लेकिन हम उन्हें भूमिकाओं, रंगों, सोच और न जाने किन-किन आधार पर बांटते हैं. लड़की है तो गुड़िया से खेलेगी. लड़का है तो खिलौने वाली बंदूक से. लड़की है तो चोटियां बनाकर रिबन लगाएगी. लड़का है तो स्कूल भर सैलॉन में ले जाकर फौजी कट कटाते रहेंगे पापा. लड़की है तो कभी कभी मम्मी की नेलपॉलिश भी लगा लेगी. लेकिन लड़का ऐसा करे तो हायतौबा बच जाएगी. लड़की है तो कितना भी रोए, उसे चुप कराएंगे. लड़का है तो कहेंगे कि रोओगे तो और मार खाओगे. और इस तरह बचपन से तमाम लड़के सिसक-सिसक कर बहती नाक से साथ अपना रोना भी अंदर खींच लेते. फिर एक उम्र आ जाती है जब उन्हें रोना आना ही बंद हो जाता है.

इन भूमिकाओं के दायरे हमने ऐसे बांधे हुए हैं कि जैसे ही इन्हें लांघने की कोशिश कोई करता है, हम उसके प्रति क्रूर हो जाते हैं. फिर हम ये भी नहीं सोचते कि वो हमारे बच्चे हैं, दोस्त हैं, भाई-बहन हैं, पड़ोसी हैं.
37 साल के विश्वास बताते हैं:
"बचपन में पिता के ट्रांसफर के बाद मैंने दो क्लास स्किप की. अब मैं अचानक बड़े लड़कों के साथ. मेरा एक दोस्त था, जिसका बाकियों से पंगा हो गया था. मैंने सबका साथ देने के बजाय उसका साथ दिया. पूरी संवेदनशीलता दिखाई. नतीजा ये हुआ कि वो ही मुझे सबसे ज्यादा बुली करने लगा. लड़के मुझे शिकंजी बुलाने लगे. मुझे बहुत बुरा लगा. बहुत ही बुरा. उन्होंने जाने क्या हाव-भाव देखे मेरे. मुझे तो पता भी नहीं था कि मैंने ऐसा क्या अलग किया था. वो दौर इतना बुरा था कि मुझे याद करने में भी कंपकंपी होती है. ये बहुत डरावना था. मैं अपनी यौनिकता के बारे में परेशान रहता. अपने चाल-चलन को ऑबजर्व करता. ये देखता कि कहीं कुछ लड़कियों सा तो नहीं कर रहा. वो मुझे घेरते, मेरी टोपी उछालते, मोलेस्ट करते. मेरा बैट तोड़ दिया उन्होंने. और इसमें टीचर के लड़के शामिल थे. टीचर खुद इसमें शामिल थे. कभी भी पीट देते.लड़कों पर इसका क्या असर होता है, ये समझने के लिए हमने मेंटल हेल्थ प्रोफेशनल और काउंसिलर हिमानी कुलकर्णी से बात की. उनके मुताबिक़:(सांकेतिक तस्वीर: Pixabay)
छोटे से शहर में मैं अपनी बेज्ज़ती होने से डरता रहता. नतीजा ये हुआ कि आगे चलकर मैं लड़कियों से अपने प्रेम संबंधों को कभी शारीरक रूप नहीं दे पाया. हमेशा एक परफॉरमेंस का डर था. धीरे-धीरे इससे बाहर आया. आज भी कॉन्फिडेंस इशूज हैं. आज मुझसे लोग पूछते हैं कि पुरुष होकर महिला अधिकारों की बात कैसे कर सकते हो. तो मैंने अपने अनुभव याद करता हूं और सोचता हूं कि मेरे जैसा पुरुष ही कर सकता है. इसका एक और फायदा हुआ. मैंने जाना कि बायोलॉजिकल सेक्स, यानी लड़की या लड़का होना कितना फ्लूइड हो सकता है. पानी सा. ये भी जाना कि हमारे आस पास जो हमारे समलैंगिक साथी हैं. उन्होंने कितना कुछ झेला होगा. और ये कॉन्फिडेंस भी पाया कि अगर मैं समलैंगिक होता भी तो मुझे इसका गर्व होता."
"बुलीइंग का शिकार रहे लड़के के साथ वो सब होता है जो किसी भी ऐसे व्यक्ति के साथ होता है जिसका हरासमेंट हुआ हो. उनकी सेल्फ-एस्टीम पर बहुत बुरा असर पड़ेगा. इसके साथ ही सुरक्षा का भाव ख़त्म ही जाएगा. इसके अलावा आपके अन्दर अकेलापन बढ़ जाएगा. कि लोग मुझे समझते नहीं. हम सब का एक ग्रुप होता है. जिसमें हमारे टाइप के लोग होते हैं. बुली हुए युवा को लगने लगता है कि उसके जैसा कोई है ही नहीं- वो अकेला है."जब हम किसी लड़के को कहते हैं कि तुम 'लड़की जैसे' हो. हम दो गलतियां करते हैं. एक तो हम ये एस्टेब्लिश करते हैं कि लड़की जैसा यानी फेमिनिन होना बुरा है. जैसे ये एक गाली हो. ऐसा करते ही हम लड़कियों को लड़कों से कमतर मान लेते हैं. दूसरा ये, कि हम उसी समय जता देते हैं कि सॉफ्ट, इमोशनल, सेंसिटिव और केयरिंग होना गलत है. अपराध है.

हिमानी बताती हैं:
"ऐसे बच्चे बड़े होने के बाद कई इशूज फेस कर सकते हैं. जैसे:लिटरेचर के विद्यार्थी रहे और फ़िलहाल एक मीडिया हाउस से जुड़े रंजन बताते हैं:
- वो सेल्फ ब्लेम में जा सकते हैं. कुछ भी बुरा या गलत होने पर ये मानेंगे कि मेरी ही गलती होगी.
- वो डरे-सहमे रह सकते हैं. दोस्ती करने में डर लगें शायद.
- या फिर अपने पौरुष का सबूत देने के लिए हद से ज्यादा मर्दाना दिखाने की कोशिश कर सकते हैं. इसके लिए वो हिंसा, शराब या अभद्र भाषा का सारा ले सकते हैं.
- इसके अलावा रिसर्च में ये भी पाया गया है कि बुलीइंग के ट्रॉमा को झेल चुके वयस्क डायबिटीज, लीवर, गैस्ट्रिक मसले या थाइरॉइड का शिकार हो सकते हैं.
- उन्हें ये यकीन हो सकता है कि बातें शेयर करने से कुछ नहीं होता. ऐसे में वो नौकरी में बॉस या अथॉरिटी से एक ख़राब रिश्ते में हो सकते हैं. पार्टनर के साथ भी एक खराब रिश्ते में हो सकते हैं."
"मुझे याद है वो साल 2007 था जब करियर के लिहाज से मेरा बेहद बुरा समय चल रहा था. मेरा शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य खराब था. जब मैं टूटता तो लोग कहते- "क्या बात-बात पर औरतों की तरह रोने लगते हो." मैं मेडिकल के एंट्रेंस क्लियर नहीं कर पाया और अपने कथित ब्रिलियंट साथियों को देखता जो इंजिनियर और डॉक्टर बनने की राह पर थे. मैंने अंग्रेजी साहित्य की पढ़ाई की और सबको ये लगता कि ये ज़नाना कोर्स है. लड़के ये सब नहीं पढ़ते. मुझे लगातार ये महसूस करवाया जाता कि इमोशनल, सॉफ्ट और उदार होना मेरी गलती है. मुझे उस वक़्त मालूम ही नहीं था कि ये सब कितना गलत था. काफी समय बाद जब मीडिया में आया तो दिमाग खुला. तब पाया कि मैं सही था. मेरे आस-पास के लोग गलत थे. क्रूर थे. भेदभाव से भरे हुए थे."औरतों की तरह रोना. चूड़ियां पहन रखी हैं क्या. मर्दाना अंग नहीं हैं क्या तुम्हारे पास. ये सब वो बातें हैं जो समाज सेंसिटिव पुरुषों से कहता है.

बचपन से ही साहित्य और कविताओं में रुचि रखने वाले अभिनव बताते हैं:
"साहित्य में रुचि होने की वजह से मेरी बहुत बुलीइंग हुई. इतनी बार कि गिनती भूल गया हूं. लड़के ऐसे नहीं होते- ये वाक्य सबसे ज्यादा सुना है. जब स्कूल में था, तब लोग हिलेरी क्लिंटन बुलाते थे मुझे. क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय मसलों में मेरी दिलचस्पी थी. ये तो बस एक छोटा उदाहरण है. जाने कितनी बार लड़कियों के नाम से मुझे बुलाया गया. इतने अश्लील नाम दिए गए जो मैं बोल ही नहीं सकता. जबरन छुआ गया, चूमा गया. मुझे तबू की एक्टिंग पसंद थी तो तबू बुलाते.ये तो सिर्फ तब है जब लड़के सेंसिटिव हों. गलती से उनकी आवाज़ पतली हुई. शरीर बल्की हुआ. या वो नाचने में अच्छे हुए. तब लोगों को डबल वजह मिल जाती है उन्हें बुली करने की. तुम लता मंगेशकर हो. तुम्हारे शरीर में लड़कियों जैसे कर्व हैं. और न जाने क्या-क्या. ज़हरीले तीर खूब होते हैं हमारे तरकश में.
मैं ऐसे ग्रामीण इलाके से आता हूं कि कभी सोचा ही नहीं कि ये परेशानी मां-पिता को बता सकता हूं. ऐसे इलाकों में लोगों के खुद के ही रोज़ के इतने संघर्ष हैं कि अपने संघर्ष क्या ही बताता. उम्र के साथ शारीरक बुलीइंग तो रुक गई. लेकिन लोग आज भी मुझे ये बताने से नहीं चूकते कि मैं औरतों की तरह इमोशनल हूं. मेरी गर्लफ्रेंड लंबे समय के लिए शहर छोड़ रही थी और उसे विदा करते वक़्त मैं एअरपोर्ट पर इमोशनल हो गया. ये हमारे ब्रेकअप की वजह बना. आज नतीजा ये है कि किसी से बात करूं, तो उसपर भरोसा नहीं कर पाता. दोस्त बेहद कम हैं."
ये कैसी दुनिया है जिसमें योद्धा होकर लोगों की जान लेना अच्छा है. और सॉफ्ट होकर लोगों के घावों पर मरहम लगाना बुरा. उछलते हॉर्मोन के प्रभाव में दोस्तों से मारपीट कर लेना स्वीकार है. लेकिन बिना किसी को नुकसान पहुंचाए थोड़ा रो लेना गलत है. हमें ऐसा लगता है कि पुरुषवादी सोच से नुकसान केवल लड़कियों का होता है. लेकिन हम ध्यान ही नहीं देते कि लड़के इससे कितने स्तर पर लड़ रहे हैं. लड़के बड़े हो रहे होते हैं तो हम उन्हें ये तो सिखा देते हैं कि औरतों का सम्मान करना. मगर ये सिखाना कब शुरू करेंगे कि उतना ही सम्मान लड़कों का भी करना. भले ही वो किसी भी मिज़ाज के हों.
हिमानी बताती हैं:
"बुलीइंग के प्रति बच्चों को सजग करने के लिए दो चीजें करनी हैं. एक तो उन्हें इतना स्पेस देना है. इतना भरोसा देना है. कि उन्हें पता हो कि स्कूल में कुछ गड़बड़ हुआ है तो पेरेंट्स के पास जाकर वो बता सकें. इसके अलावा ये भी ज़रूरी है कि हमारे बच्चे बुली न बनें. इसके लिए बच्चों को ये एहसास होना ज़रूरी है कि जो हमारे जैसा नहीं है, वो भी नॉर्मल ही है. लेकिन बच्चे बताने से नहीं, देखकर सीखते हैं. अगर आप खुद ही ऐसे मां-बाप हैं जो मज़े-मज़े के लिए दूसरों का मज़ाक उड़ाते हैं. तो आपके बच्चे ऐसे ही निकलेंगे. कई बार ऐसा भी होता है कि जो बच्चे घर में बुली होते हैं, वो स्कूल में जाकर बुली करते हैं. अक्सर ऐसे बच्चों के घर में उन्हें स्वस्थ माहौल नहीं मिल रहा होता है."अगर आपके भी इससे जुड़े अनुभव हैं? तो मुझे कमेंट सेक्शन में बताएं.
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