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निजी संपत्ति पर सुप्रीम कोर्ट में सबसे बड़ी बहस, आपकी जमीन, घर भी इसके दायरे में

मूल सवाल एक ही है: क्या राज्य किसी निजी संपत्ति को सामुदायिक भलाई के लिए पुनर्वितरित कर सकता है?

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संविधान की नौ जजों की बेंच के सामने बड़ा केस है. (फ़ोटो - एजेंसी/लल्लनटॉप)

दृष्टिकोण की 2 धाराएं हैं. पहली, महेश चंद्र पुनेठा वाली कि अब पहुंची हो सड़क तुम गांव, जब पूरा गांव शहर जा चुका है. दूसरी, जेसिंता केरकेट्टा वाली कि गांव में वो दिन था, एतवार...मैं नन्ही पीढ़ी का हाथ थाम निकल गई बाज़ार...सूखे दरख़्तों के बीच देख एक पतली पगडंडी मैंने नन्ही पीढ़ी से कहा, 'देखो, यही थी कभी गांव की नदी.' दोनों दृष्टिकोण आपका ध्यान खींचते हैं. पहले में सामुदायिक भलाई को प्रधानता दी गई है, कि विकास और सशक्तिकरण का पहिया चलते रहना चाहिए. दूसरे दृष्टिकोण में प्रधानता दी गई है सामुदायिक संसाधनों को, जो उस समुदाय विशेष के लिए सिर्फ़ संसाधन नहीं हैं... उनके अस्तित्व से जुड़ी बात है. 

मगर सारी दुनिया साहित्य और कविताओं से ही चल रही होती, तो हम सह-अस्तित्व की बाह पकड़ कर आगे बढ़ लेते. लेकिन दुनिया.. ये मानव सभ्यता तो चलती है नियमों से, क़ानूनों से. और जब, क़ानून के समक्ष मसले जाते हैं, तो न्याय की ख़ातिर पलड़ा किसी एक ओर तो झुकता है. किस ओर झुकेगा, इसी की परख के लिए बैठी है देश की सबसे बड़ी अदालत की नौ न्यायमूर्तियां, जिनके सामने है एक पेचीदा मसला.

क्या मसला?

भारतीय संविधान का अनुच्छेद-39(बी) देश के हर नागरिक को 'आजीविका के पर्याप्त साधनों का अधिकार' देने की बात करता है. मतलब, हर नागरिक के पास जीवन बिताने, अपना और अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए पर्याप्त संसाधन और अवसर होने चाहिए. रोज़गार, बढ़िया वेतन से लेकर रोटी, कपड़ा, मकान जैसी बुनियादी ज़रूरतों तक. मंगलवार, 23 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों वाली संविधान पीठ ने अनुच्छेद-39(बी) पर सुनवाई शुरू की है.

मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की सदारत वाली बेंच को तय करना है कि क्या प्राइवेट प्रॉपर्टी अनुच्छेद-39(बी) के तहत 'समुदाय के संसाधन' के तहत आते हैं? माने क्या राज्य किसी व्यक्ति या समुदाय की निजी संपत्ति को समाज की भलाई के लिए अपने हाथ में ले सकता है? उस संपत्ति को अधिग्रहण कर सकती है, पुनर्वितरित कर सकता है?

बेंच में CJI के साथ जस्टिस हृषिकेश रॉय, जस्टिस बी.वी. नागरत्ना, जस्टिस सुधांशु धूलिया, जस्टिस जे.बी. पारदीवाला, जस्टिस मनोज मिश्रा, जस्टिस राजेश बिंदल, जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह भी हैं.

इससे हमको-आपको क्या?

इसे कालखंड का संयोग ही कहेंगे कि जब ये सुनवाई चल रही है तो संपत्ति और संपत्ति से जुड़े टैक्स के मसले पर भाजपा और कांग्रेस उलझे हुए हैं. कांग्रेस ने जब से लोगों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का पता लगाने का वादा किया है, तब से वेल्थ री-डिस्ट्रीब्यूशन के मुद्दे ने जोर पकड़ा हुआ है. चर्चा तेज़ है. हाल में कांग्रेस ओवरसीज़ के अध्यक्ष सैम पित्रोदा ने अमेरिका के कुछ राज्यों में लागू 'विरासत टैक्स' का ज़िक्र भर किया तो बवाल मच गया. बयान के बाद वो भाजपा के निशाने पर आ गए, तो कांग्रेस ने भी उनसे दूरी बना ली. पित्रोदा को ख़ुद अपने बयान के लिए सफ़ाई देनी पड़ी. संसाधन, संपत्ति और टैक्स – मसला ही ऐसा है.

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सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के सामने भी जो मसला है, वो ऐसे ही एक बारीक मुद्दे से जुड़ा हुआ है. 

मुंबई के प्रॉपर्टी ऑनर्स एसोसिएशन समेत कई याचिकाकर्ताओं की ओर से दलील दी गई है कि संविधान के अनुच्छेद-39B की आड़ में सरकार निजी संपत्ति पर कब्ज़ा नहीं कर सकती. ये याचिकाएं पहली बार लगाई गई थीं, 1992 में. बाद में 2002 में इसे नौ जजों की बेंच के पास भेज दिया गया. दो दशकों से ज़्यादा समय तक अधर में रहने के बाद आख़िरकार 2024 में इस पर फिर से विचार किया जा रहा है.

केस में घुसने से पहले, अनुच्छेद-39(बी) क्या कहता है?

दरअसल, ये राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों (DPSP) में से एक है. इसके मुताबिक़, 'राज्य सामुदायिक संसाधनों के स्वामित्व और नियंत्रण को इस तरह बांट सकता है कि आमजन की भलाई के लिए सर्वोत्तम हो.'

आसान शब्दों में: अनुच्छेद-39(बी) सरकार को ये अधिकार देता है कि वो लोकहित के लिए सामुदायिक या निजी संसाधनों को उचित रूप से बांट सकती है, इसके तहत नीतियां बना सकती है. बशर्ते कि इससे लोक का भला होता हो.

तो क्या राज्य के पास ये शक्ति है कि वो हमारी-आपकी संपत्ति को अपने हिसाब से बांट सके? इसके लिए कुछ केस और फ़ैसले देख लेते हैं:

- 1977 का कर्नाटक सरकार बनाम रंगनाथ रेड्डी केस. पांच जजों वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने स्पष्ट किया था कि निजी संसाधन अनुच्छेद 39(बी) के तहत 'समुदाय के संसाधनों' के अंतर्गत नहीं आते. हालांकि, फ़ैसला चार बनाम एक का था. जस्टिस कृष्णा अय्यर का कहना था कि निजी संपत्ति इसमें शामिल होनी चाहिए. उनके मुताबिक़, नैचुरल हो या मैन-मेड; सार्वजनिक हो या निजी, सब सामुदायिक संसाधन में शामिल हैं. जस्टिस अय्यर के विचार सबको पसंद नहीं आए थे. उनकी राय को अदालत से बाहर कई लोगों ने 'मार्क्सवादी विचारधारा से प्रेरित' बताया था.

- 1983 का संजीव कोक मैनुफ़ैक्चरिंग केस. पांच जजों की बेंच ने जस्टिस अय्यर के मत के आधार पर फ़ैसला सुनाया. कहा कि निजी संपत्ति 'समुदाय के संसाधनों' में शामिल है.

- 1986 का महाराष्ट्र हाउसिंग एंड एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी एक्ट 1976 में एक संशोधन किया गया, जो राज्य को कुछ संपत्तियों के पुनर्विकास और अधिग्रहण का अधिकार देता था.

- 1997: मफ़तलाल इंडस्ट्रीज़ बनाम भारत सरकार केस में जस्टिस अय्यर के मत को पुष्ट किया गया और कहा गया कि अनुच्छेद-39(बी) की व्याख्या को 9 जजों की बेंच को भेज दिया जाना चाहिए. 

- इसी साल मुंबई स्थित प्रॉपर्टी ओनर्स एसोसिएशन ने महाराष्ट्र हाउसिंग एंड एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी एक्ट के संशोधन को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी.

- 2002 में प्रॉपर्टी ओनर्स एसोसिएशन केस की सुनवाई कर रही सात जजों की बेंच ने मामले को 9 जजों की बेंच के पास भेज दिया.

केस ठंडे बस्ते में चला गया. अब अपनी इप्तिदा से 31 साल बाद ये केस फिर कोर्ट में है. तर्क-वितर्क शुरू हो रहे हैं.

क्या सुनवाई हुई?

CJI चंद्रचूड़ के विश्लेषण के मुताबिक़, अनुच्छेद 39(बी) के चार ज़रूरी पहलुओं को देखना ज़रूरी है.

  • समुदाय के पास संसाधन कितने हैं? क्या-क्या हैं? 
  • समुदाय के अंदर इन संसाधनों को कैसे बांटा जा रहा है? 
  • जिन संसाधनों की बात हो रही है, उनका स्वामित्व और नियंत्रण किसके पास है? 
  • संसाधनों को निष्पक्ष रूप से, सभी के लाभ के लिए बांटा कैसे जाए?

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ये कहना ख़तरनाक़ होगा कि किसी शख़्स की निजी संपत्ति पर सरकार का हक़ नहीं हो सकता. ये कहना भी ठीक नहीं होगा कि लोक कल्याण के लिए सरकार इसे अपने क़ब्ज़े में नहीं ले सकती. कोर्ट ने कहा कि संविधान का मक़सद सामाजिक बदलाव की भावना लाना है.

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CJI का मत जस्टिस कृष्णा अय्यर के मत से अलग था. उन्होंने कहा कि आप संपत्ति की पूंजीवादी अवधारणा से देखें, तो इसमें विशिष्टता (अपनेपन) की भावना आएगी. CJI ने मेज़ पर रखा अपना पेन उठाया और कहा, 

पूंजीवादी अवधारणा कहती है कि ये मेरा ही है. वहीं, समाजवादी अवधारणा कहती है कि कुछ भी व्यक्ति विशेष का नहीं है, बल्कि सारी संपत्ति समुदाय के लिए है. आमतौर पर हम संपत्ति को ऐसी चीज़ मानते हैं, जिसे हम ट्रस्ट के तौर पर रखते हैं.

एक तरफ़, अदालत में पूंजीवाद और समाजवाद जैसी विचारधाराओं पर बहस हो रही है. दूसरी तरफ़, कोर्ट ने केंद्र से सवाल किया कि जब संविधान में संशोधन करके उसकी जगह अन्य प्रावधान लाने के बाद मूल प्रावधान का क्या होता है? केंद्र अभी इस पर विस्तार से जवाब देगा. लेकिन इन सवालों से इस पूरे केस में संविधान के मूलभूत ढांचे का भी ज़िक्र आ गया है. 

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अब अगर अनुच्छेद-39(बी) - जो कहता है कि सरकार सामुदायिक या निजी संसाधनों को लोकहित में अधिग्रहित कर सकती है, बांट सकती है - इस अनुच्छेद में संशोधन किया जाना है, तो संविधान में संशोधन करना होगा. इस प्रक्रिया में मूलभूत ढांचा कटघरे में आएगा.

इतनी कहानी के बाद एक मूल सवाल: इससे बदल क्या सकता है? ये जानने के लिए दी लल्लनटॉप ने बात की सुप्रीम कोर्ट के वकील विराग गुप्ता से, जो संवैधानिक क़ानून के एक्सपर्ट हैं. उन्होंने सबसे पहले हमें बताया कि अगर फ़ैसला 39(बी) के पक्ष में आता है, तब भी मामला इतना ब्लैक या वाइट नहीं होगा. 

सरकार के पास अधिकार होने के बावजूद अगर किसी व्यक्ति की संपत्ति का अधिग्रहण किया गया है, तो उसके पास सरकार को चुनौती देने का न्यायिक विकल्प रहेगा. सरकार के पास स्वीपिंग पावर नहीं आएगी, बस उनकी शक्तियों में कुछ बढ़ोतरी हो सकती है. फिर भी अदालत में चुनौती दी जा सकती है. तीन बिंदुओं पर: पहला, कि अधिग्रहण ‘पब्लिक गुड’ के लिए नहीं है. दूसरा, कि सरकार ने बदनीयती से संपत्ति क़ब्ज़े में ली है. और तीसरा, कि अगर इस अधिग्रहण को सही माना भी जाए, तो इसमें बाज़ार भाव से मुआवज़ा मिलना चाहिए.

अगली सुनवाई 30 अप्रैल को होगी. मामले में आगे जो भी अपडेट होंगे, दी लल्लनटॉप आप तक पहुंचाता रहेगा.

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