पाकिस्तान के मशहूर कव्वाल अमजद साबरी को कराची में गोली मार दी गई. जिम्मेदारी तालिबान ने ले ली. उनकी हत्या के पीछे राजनैतिक वजह क्या है. ये तो मारने वाले जाने. लेकिन जो वजह सामने आती है वो है ईशनिंदा. पाकिस्तान में ईशनिंदा कानून का क्या हाल है. कट्टर संगठन औऱ लोग इस कानून से भी कितना आगे चले जाते हैं इसके बारे में बता रहे हैं ताबिश सिद्दीकी. ताबिश एक लिबरल मुसलमान हैं. अपनी लॉजिकल सोच की वजह से फेसबुक पर फेमस हैं. इसी वजह से आसपास के कट्टर धार्मिक विचारधारा वाले लोगों के निशाने पर रहते हैं. घर परिवार से लेकर यार दोस्तों तक उनको बोली मारने की कोशिश करते हैं. कट्टरता का आलम यह है कि कोई अगर अपने ही धर्म मजहब के किसी आडंबर पर उंगली उठाए तो उसे ही दुनिया से उठा दो. चाहे वो बांग्लादेश के ब्लॉगर्स हों. पाकिस्तान में अमजद साबरी या भारत में नरेंद्र दाभोलकर. पढ़ें ताबिश सिद्दीकी का नजरिया.अमजद साबरी, पाकिस्तान के क़व्वाल, जिनकी कल गोली मार कर ह्त्या कर दी गयी, उन पर पहले से एक ईशनिंदा का केस चल रहा था. ईशनिंदा इस वजह से उन पर लगाई गयी थी क्योंकि उन्होंने पाकिस्तान के Geo टीवी पर सुबह के वक़्त आने वाले एक प्रोग्राम में क़व्वाली गाई. और उस क़व्वाली में पैग़म्बर मुहम्मद के चचेरे भाई अली और बेटी फ़ातिमा की शादी का ज़िक्र था. ज़िक्र कुछ ज़्यादा डिटेल में था जो कि मौलानाओं को पसंद नहीं आया. और Geo टीवी समेत अमजद साबरी पर ईशनिंदा का मुक़दमा कर दिया गया. फिर एक आशिक़-ए-रसूल ने अदालत से पहले अपना फैसला दे दिया क्योंकि उनके हिसाब से ईशनिंदा की सज़ा सिर्फ मौत थी जो पाकिस्तान की अदालत शायद ही देती. एक क़व्वाली के लिए किसी को ये ईशनिंदा और बेअदबी का इलज़ाम लगाने वाले हमारे आस पास बहुत हैं. मगर इस तरह की मानसिकता को जहां सपोर्ट मिल जाता है वहां ये अपने सबसे घिनौने रूप में दिखाई देते हैं. कल एक दोस्त के कमेंट पर मैंने ख़लीफ़ा 'उमर' को 'उमर' लिखा बिना आगे 'हज़रत' लगाए तो वहां कुछ लोग इतना ज़्यादा मुझ से नाराज़ हो गए कि मुझ से सीधे ये कहा कि आप 'उमर' को गाली दे रहे हैं. मैंने जब इस्लाम का इतिहास लिखना शुरू किया था जिसमे मैं पैग़म्बर मुहम्मद को हमेशा 'मुहम्मद' ही लिखता था तो इतने बड़े बड़े सेक्युलर और मॉडरेट मुसलमानो ने मुझे सिर्फ इसलिए गाली दी और मुझे ब्लाक कर दिया क्योंकि इतिहास लिखने में मैं 'मुहम्मद' के बाद 'सलल्लाहो अलैह वसल्लम' नहीं लगाता था. मैंने कितनो को समझाने की कोशिश की कि जितनी भी इस्लामिक इतिहास की किताब मेरे पास हैं, अंग्रेजी में सब में 'मुहम्मद' को मुहम्मद ही कहा गया है. क्योंकि इतिहास की किताबें हर किसी धर्म के लिए होती हैं. मगर जिनको नहीं मानना था उन्होंने नहीं माना. क्योंकिं इनके हिसाब से ये सब ईशनिंदा है और इस्लामिक रूल होता तो अब तक मेरे खिलाफ केस कर चुके होते या इतनी ही बात के लिए मार चुके होते. आज के इस्लामिक संस्करण में सब कुछ ईशनिंदा है. रोज़ेदार के सामने आप कुछ खा लें (पाकिस्तान में अभी एक पुलिस वाले ने इसी बात को लेकर मारा था एक शख्स को). जिसको गाना बजाना न पसंद हो उसके आगे आप गा बज लें. मतलब अगर इस्लामिक एस्टेट ऐसा सख्त रूल हो कहीं तो ईशनिंदा का आरोप किसी भी तरह से कहीं से भी घुमा के लगाया जा सकता है. क्योंकि जिस 'सच्चे' मुसलमान को कुछ भी न पसंद हो और आप वो कर दें तो वो ईशनिंदा होती है. पाकिस्तानी लिबरल लोग इसके खिलाफ खड़े हो रहे हैं क्योंकि सबसे ज़्यादा इसी क़ानून का दुरूपयोग होता है वहां. ईशनिंदा का सबसे पहला कांसेप्ट 'ख़लीफ़ा उमर' का था. मगर अभी इस इतिहास और इस से जुडी जानकारियां लिख दूं तो अच्छे से अच्छा मुसलमान नाराज़ हो जाएगा. और ये ईशनिंदा वाले बहु संख्यक हैं. यहां भी और पाकिस्तान में भी. ये सारे क़व्वाली और मज़ार पर जाने को ईशनिंदा ही बोलते हैं मगर अमजद साबरी से जुडी पोस्टों पर ख़ूब घड़ियाली आंसू बहा रहे हैं कल से. मगर जिस ने गोली मारी है उसने इनके दिल का ही काम किया है और ये अंदर से इसे बख़ूबी जानते और मानते हैं.
अमजद साबरी को मारने वाला सिर्फ तालिबान नहीं है
ईशनिंदा बोल बोल के हर आंख कान वाले आदमी को मारने वाले हर जगह हैं. अमजद साबरी की हत्या को ध्यान में रखते हुए बता रहे हैं ताबिश सिद्दीकी.
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फोटो - thelallantop
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