एक कविता रोज़. हम आज हिन्दी के कवि मनोज कुमार झा की कविता पढ़ने आए हैं. मनोज दरभंगा, बिहार में रहते हैं. दिल्ली की नितांत साहित्यिक चकाचौंध से दूर. हिन्दी के कवि विष्णु खरे ने मनोज कुमार झा के बारे में कहा था कि हिन्दी की युवा कविता को कुछ और नए लोगों ने हाथ लिया है. मनोज उनमें से एक हैं. मनोज की कविता की ख़ास बात है. वो हिन्दी के नवाचार को बरतती है. वरना कविताएं रस्मी कार्रवाईयों में उलझी हैं, ऐसे आरोप हिन्दी कविता पर लगते हैं. टिप्पणीकार कहते हैं कि मनोज कुमार झा की कविता “मैंने कितनी किताबें पढ़ी हैं” और “मैं कितना क़ाबिल राजनीतिक समीकरण बरतता हूं” के काव्य खांचे से बाहर बात करती हैं. यथार्थ का रियाज़ करती हैं. भाषा के स्तर पर भी हिन्दी को बेहद ज़रूरी तोड़फोड़ दरकार है. मनोज उसे बरतते हैं. उनकी कविता ‘सभ्यता’ आप सभी के लिए.
एक कविता रोज़ में सुनिए मनोज कुमार झा की कविता - सभ्यता
ठीक ही तो कहती हैं वृद्ध महराजिन/ कण-कण जानती हैं वो रस-घरों की कथाएं
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