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ज़मीनी हकीकत (पार्ट-7) : पीएम मोदी की आवास योजना में किस्ताें के जरिए कैसे घुसा भ्रष्टाचार?

बावजूद इसके कि आवास बनाने का सारा पैसा सीधे लाभार्थी के खाते में डाला जा रहा है.

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ग्वालियर के आरोन गांव की रोना बाई की कहानी बताती है कि इस आवास योजना की सफलता की राह में बड़ी दिक्कत क्या है. (फोटोः निमाई दास/दी लल्लनटॉप)

ग्वालियर के घाटीगांव ब्लॉक की पंचायत आरोन. यहां रहने वाली रोना बाई ने जिंदगी में बेहद बुरे दिन देखे हैं. उनकी शादी को लगभग 40 साल होने को हैं. उनके पति उनका साथ तब छोड़ गए थे जब उनका बेटा टिंकू महज 3 साल का था. सहरिया आदिवासी समुदाय से आने वाली रोना के पति खुद एक खेत मजदूर थे. वो अपने पीछे एक कतरा भर जमीन भी नहीं छोड़कर गए. उन्होंने पत्तल बना-बनाकर अपना घर चलाया है. पत्तल बनाकर वो जैसे-तैसे दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर लेती थीं लेकिन सिर पर छत दूर का सपना थी. गांव के लोगों ने रोना को झोंपड़ी बनाने के लिए जमीन दे दी. फिलहाल रोना इसी कच्ची झोंपड़ी में रह रही हैं. बारिश से बचने के लिए फूस की इस झोंपड़ी पर नीली प्लास्टिक शीट बिछा दी गई है. उन्होंने अब भी पक्के मकान की उम्मीद छोड़ी नहीं है. इसकी वजह एक भाषण है जो उनके घर से करीब 150 किलोमीटर दूर देश के प्रधानमंत्री ने ढाई साल पहले दिया था.


"थोड़ी देर पहले ही मैं भारत सरकार के एक बहुत बड़े कार्यक्रम का आरम्भ करके आपके बीच आया हूं. दो कार्यक्रम थे. एक था 'प्रधानमंत्री आवास योजना (ग्रामीण)'. 2022 में जब हमारा देश आजादी के 75 साल मनाता होगा. तभी हिंदुस्तान के गरीब से गरीब आदमी के पास अपना पक्का घर होना चाहिए. यह संकल्प लेकर मैं काम कर रहा हूं. इसलिए आज आगरा में नरेंद्र सिंह जी तोमर के नेतृत्व में मुझे प्रधानमंत्री आवास योजना ग्रामीण का शिलान्यास करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ.

इस योजना के तहत 267 वर्ग फीट का घर बनाने जा रहे हैं. घर भी ऐसा नहीं कि सिर्फ चार दीवारें खड़ी कर दी. घर के नाम पर एक डिब्बा खड़ा कर दिया और उसमें परिवार के लोगों को बंद कर दिया. हम ऐसा नहीं करने जा रहे हैं. सच्चे अर्थ में घर बनाने का काम आज से प्रधानमंत्री ग्रामीण आवास योजना के तहत शुरू किया जा रहा है. पूरे देश लिए यह योजना उत्तर प्रदेश के आगरा की धरती मैं आज शुरू करने जा रहा हूं."

- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, आगरा, 20 नवंबर 2016.

आगरा में प्रधानमंत्री आवास योजना (ग्रामीण) को लॉन्च करते हुए पीएम मोदी (Twitter | NarendraModi)
आगरा में आवास योजना (ग्रामीण) लॉन्च करते हुए मोदी और नरेंद्र सिंह तोमर. (फोटोः ट्विटर)

'पक्का घर' भारत के सबसे निचले तबके के अवचेतन में शायद तब से है, जब सीमेंट खोजी नहीं गई थी और दो ईंटों को आपस में जोड़ने के लिए चूने का इस्तेमाल होता था. आजादी के बाद से राजनीतिक दलों ने पक्के घर की हवस को अपने पक्ष में जमकर भुनाया है. भारत में गरीबों के लिए मुफ्त सरकारी मकान की योजनाओं का इतिहास लोकतंत्र जितना ही पुराना है. पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने अपने पहले कार्यकाल के आखिर में इसे शुरू कर दिया था. 1957 में भारत में पहली ग्रामीण आवास योजना आई. इसमें सरकार की तरफ से गरीब तबके के लोगों को पक्का घर बनवाने के लिए 5000 रुपए का अनुदान दिया जाता था. 1960 तक देश में इस योजना के तहत पांच लाख आवास बनाए गए. हालांकि बाद में काम की रफ़्तार धीमी पड़ती गई.

साल 1985 में इस दिशा में दूसरा बड़ा प्रयास शुरू हुआ. राजीव गांधी सरकार ने ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारंटी कार्यक्रम शुरू किया. इस योजना में भूमिहीन और बंधुआ मजदूरी से मुक्त करवाए गए परिवारों के लिए रोजगार की व्यवस्था की गई थी. इसी योजना के लिए ऐसे परिवारों के लिए 'इंदिरा आवास' नाम से घर बनवाए जाने का प्रस्ताव भी था. शुरुआत में इंदिरा आवास केवल अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को ही कवर करती थी. 1993-94 में गैर दलित और आदिवासी बीपीएल परिवारों को भी इस योजना की जद में लाया गया. 1996 लोकसभा में लोकसभा चुनाव होने जा रहे थे. नरसिम्हा राव ने 1996 की पहली जनवरी को इंदिरा आवास योजना को स्वतंत्र योजना घोषित कर दिया. 1985 से 2016 के बीच, कुल तीन दशक के समय में इंदिरा आवास योजना के तहत 2,86,88,000 घर बनवाए गए. इसके लिए सरकारी खाते से 85,141.13 करोड़ खर्च किए गए.

2016 में नरेंद्र मोदी सरकार ने इंदिरा आवास योजना को नए सिरे से शुरू किया. इसे नाम दिया गया, 'प्रधानमंत्री आवास योजना'. इसके तहत 2022 तक कुल 3 करोड़ आवास बनाने का लक्ष्य रखा गया. इंदिरा आवास के तहत मैदानी इलाकों में घर बनाने के लिए 70,000 रुपए और दुर्गम इलाकों में 75,000 रुपए के सरकारी अनुदान की व्यवस्था थी. नई योजना में मैदानी इलाकों के अनुदान को बढ़ाकर 1,20,000 और दुर्गम इलाकों में 1,30,000 रुपए की वित्तीय सहायता की व्यवस्था की गई है. इसके अलावा इस योजना में भौगोलिक स्थितयों और परम्पराओं का खास ख्याल रखे जाने की बात कही गई. हर जगह की जरूरतों के हिसाब से घर के 100 नक्शे तैयार किए गए. अगर कोई लाभार्थी और बेहतर घर बनवाना चाहे तो कम ब्याज पर 70,000 रुपए तक के लोन की व्यवस्था भी की गई थी.



प्रधानमंत्री आवास योजना (ग्रामीण) का लोगो.

यह योजना डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर योजना थी. माने केंद्र से पैसा सीधा लाभार्थी के खाते में जाना था. जो पैसा भेजा जा रहा है वो सही तरीके से काम आए, इसके लिए पैसे चार किस्त में भेजे जा रहे थे. इन किश्तों का ब्यौरा कुछ इस तरह से है-


  • पहली किस्त 25,000 रुपए - आवास स्वीकृत होने के सात दिन के भीतर

  • दूसरी किस्त  40,000 रुपए -  नींव डलने के बाद

  • तीसरी किस्त 40,000 रुपए -  दीवार खड़ी करने के बाद

  • चौथी किस्त 15,000 रुपए -  छत डलने के बाद, प्लास्टर करने और फर्श बनवाने के लिए

इसके अलावा 90-95 दिन की मजदूरी 178 रुपए प्रति दिन के हिसाब से दिया जाना तय हुआ. इस योजना में काम का भौतिक सत्यापन किए जाने का प्रस्ताव था. माने हर नींव पूरी होने के बाद उनका फोटो ऑनलाइन डाला जाना था. हर काम संतोषजनक होता तो अगली किस्त खाते में ट्रांसफर कर दी जाती. 90-95 दिन की मजदूरी घर में प्लास्टर हुए घर और पक्के फर्श की फोटो डालने के बाद देने का प्रावधान था. हर तरीके से इस योजना में पैसे रिसने की गुंजाइश को खत्म करने की कोशिश की गई थी.

इस योजना के तहत 2022 तक 3 करोड़ घर बनवाने का लक्ष्य रखा गया था. केंद्र सरकार ने इस योजना के लिए 81,975 करोड़ रुपए का बजट तय किया था. इसमें से 60,000 करोड़ रुपए केंद्र सरकार की तरफ से बजटीय सहायता के तौर पर दिए जाने थे. शेष 21,975 करोड़ रुपए का लोन राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) के जरिए दिया जाना था. सरकारी आंकड़ों की मानें तो 99,94,963 घर बनाने का लक्ष्य रखा गया था. कुल 96,22,182 घर स्वीकृत किए गए. इनमें से अब तक 74,18,433 आवास बनाए जा चुके हैं. आंकड़ों के लिहाज से योजना का प्रदर्शन बेहतरीन रहा है. भारत जैसे देश में जहां आबादी का बड़ा हिस्सा एक गरीबी रेखा के नीचे रहता है यह योजना मील का पत्थर साबित होनी चाहिए थी. लेकिन ऐसा हुआ नहीं.


रोना बाई. (फोटोः निमाई दास/दी लल्लनटॉप)
रोना बाई. (फोटोः निमाई दास/दी लल्लनटॉप)

एक बेवा की आखिरी आस

मध्य प्रदेश के ग्वालियर जिले का आरोन गांव. यह इलाका केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर का संसदीय क्षेत्र है. प्रधानमंत्री आवास योजना तोमर के मंत्रालय के अंतर्गत आती है. ग्वालियर को प्रधानमंत्री आवास योजना (ग्रामीण) के तहत बेहतरीन काम करने के लिए दो दफा राज्यस्तरीय पुरस्कार मिल चुका है. जमीन पर इस यह योजना कैसा काम कर रही है इसे समझने के हमें फिर से रोना बाई की कहानी की तरफ लौटना होगा.

प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत 2017-18 में एक खास कार्यक्रम शुरू किया गया. इसके तहत प्रिमिटिव ट्राईबल ग्रुप्स या आदिम जनजाति के बेघर लोगों को आवास देने के लिए विशेष प्रावधान किए गए थे. सहरिया जनजाति के लोग आदिम जनजाति समूहों में से एक हैं. इनके लिए मध्य प्रदेश में 26,821 आवास बनाने का लक्ष्य रखा गया. अकेले ग्वालियर में 780 आवास बनाए जाने का लक्ष्य था. आजादी के 70 साल बाद रोना को लगा कि आखिरकार सरकार उसके लिए सच में कुछ करने जा रही है. पंचायत ने सर्वे करके रोना का नाम प्रधानमंत्री आवास योजना के लिए भेजा. रोना को आवास की स्वीकृति मिल गई. 23 अप्रैल 2018 के रोज उनके खाते में 25,000 की पहली किस्त भी आ गई. उनको गांव की सरकारी जमीन में घर बनाने के लिए जगह भी मिल गई. रोना के लिए यह किसी सपने के सच होने जैसा है.


60 साल की रोना ने अपनी जिंदगी इस कच्चे घर में बिता दी. (फोटोः रजत सैन | दी लल्लनटॉप)
60 साल की रोना ने अपनी जिंदगी इस कच्चे घर में बिता दी. (फोटोः दी लल्लनटॉप)

प्रिमिटिव ट्राईबल ग्रुप के लिए आवंटित आवासों की खास निगरानी के निर्देश दिए गए थे. इस निगरानी के मायने समझाते हुए एक अधिकारी ने हमें बताया, "सहरिया आदिवासी समुदाय में शराब पीने का बहुत चलन है. ऐसे में इस बात का खतरा रहता है कि वो पहली किस्त का पैसा शराब में उड़ा न दें. इसलिए ऊपर से हर पंचायत के सरपंच और सचिव को ताकीद की गई थी कि वो पूरा घर अपनी निगरानी में बनवाएं." ऊपर से आए निगरानी के निर्देश जमीन पर आते-आते हस्तक्षेप में तब्दील हो गए. पंचायत सचिव और सरपंच ने इन आवासों का काम ठेके पर उठाना शुरू कर दिया. गांव के ही राम सिंह बताते हैं-


"गांव में बहुत सारे प्रधानमंत्री आवास अधूरे पड़े हैं. जब आवास आवंटित हुए थे तो पंचायत सैक्रेटरी ने हमसे कहा कि तुम खुद अपने आवास बनवा नहीं पाओगे. क्योंकि तुम लोग जो पैसा मिला है उसकी शराब पी जाओगे. इसलिए तुम्हारे आवास हम बनवाएंगे."

प्रधानमंत्री आवास के नाम पर रोना के पल्ले ईंटो का यह ढांचा आया है. बीतते वक्त के साथ यह मकान और रोना की उम्मीदें दोनों ढह रहे हैं. (फोटोः मनोज | दी लल्लनटॉप)
प्रधानमंत्री आवास के नाम पर इनके पल्ले ईंटों का ये ढांचा आया है. वक्त बीत रहा है. ये मकान और रोना की उम्मीदें दोनाें ढह रहे हैं. (फोटोः दी लल्लनटॉप)

रोना के साथ भी ऐसा ही हुआ. उनके आवास का ठेका पंचायत सचिव ने अपने जानने वाले एक ठेकेदार को दिलवा दिया. रोना को इस बात से कोई दिक्कत नहीं थी. उसे अपने लिए घर चाहिए था. आखिरकार उनके घर का काम शुरू हो गया. एक महीने के भीतर नींव तैयार हो चुकी थी. 24 मई 2018 को रोना के खाते में दीवार खड़ी करने के लिए दूसरी किस्त आ गई. वो ठेकेदार के साथ पास ही के घाटीगांव के केनरा बैंक गईं और पैसे निकलवाकर उसे दे दिए. इस समय उनके खाते में महज 580 रुपए बचे थे. धीमी गति से ही सही, रोना के घर का काम चल निकला था.

दो महीने के भीतर रोना के एक कमरे वाले आवास की दीवारें खड़ी हो चुकी थीं. लोहे के दरवाजे डाले चुके थे. 23 जुलाई 2018 के रोज उनके खाते में 40,000 रुपए की तीसरी किस्त आ गई. इसके पांच दिन बाद उन्होंने 28 जुलाई 2018 को चालीस हजार रुपए निकलवाए और ठेकेदार को दे दिए. अब छत और प्लास्टर का काम बचा हुआ था. यही वो नुक्ता था जहां से रोना के साथ धोखाधड़ी शुरू हुई. पैसे देने के बाद रोना ने कुछ समय शराफत के साथ काम आगे बढ़ने का इंतजार किया. महीने भर बाद भी जब उन्हें अपनी छत बनती दिखाई नहीं दी तो वो शिकायत लेकर पंचायत सचिव के पास गईं. रोना बताती हैं-


"मैं जब शिकायत करने के लिए सचिव के घर गई तो उसने मुझे वहां से भगा दिया. उसने कहा कि तुम्हें जहां जाकर शिकायत करनी है, करो. चाहे भोपाल जाओ या ग्वालियर, मुझे फर्क नहीं पड़ता. इसके बाद मैं पंचायत सचिव की शिकायत लेकर थाने में गई. वहां एक पुलिस वाले ने मुझे पूछा कि रोज खाना खाती हो तो अपना घर क्यों नहीं बनवा सकती? मेरी हालत यह है कि ग्वालियर का किराया जुटाने में भी मुश्किल होती है. जैसे-तैसे करके ग्वालियर गई. जनसुनवाई में अपनी बात समस्या भी बताई. वहां अधिकारियों ने कहा कि आपका काम हो जाएगा. आज भी कुछ हुआ नहीं."

रोना बाई और कल्याण की समस्याएं खत्म होती नहीं दिख रही. (फोटोः मनोज | दी लल्लनटॉप)
रोना बाई और कल्याण की समस्याएं खत्म होती नहीं दिख रही. (फोटोः दी लल्लनटॉप)

रोना ने अब भी वो पर्ची संभालकर रखी हुई है, जो उन्होंने जनवरी 2019 की जनसुवाई के वक़्त कटवाई थी. बावजूद इसके कि उनकी बात सुनकर अनसुनी कर दी गई है. लेकिन इस इलाके में अकेली ऐसी नहीं हैं. आपको पूरे इलाके में यही ट्रेंड दिखाई दे जाएगा. इस योजना में सीधे खाते में पैसा इसलिए भेजा जा रहा था ताकि लाभार्थी अपना काम खुद करवा सके. लेकिन जमीन पर यह योजना दशकों से चल रहे ठेकेदारी के कुचक्र में फंसकर रह गई.


शांत रहो, कलेक्टर साहब उद्घाटन के लिए आए हैं

ग्वालियर की नयागांव पंचायत का कांसेर गांव. प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत यहां प्रिमिटिव ट्रायबल ग्रुप के लिए एक पूरी कॉलोनी तैयार की गई. कुल 25 आवास आवंटित किए गए. फिलहाल यहां सिर्फ 7 परिवार ही रह रहे हैं. बाकी के आवास अभी अधूरे पड़े हैं. कांसेर के शैलेंद्र भी उन 25 लोगों में से हैं जिन्हें इन कॉलोनी में आवास आवंटित किया गया था. सरकारी दस्तावेजों के हिसाब से नयागांव में प्रधानमन्त्री आवास योजना के तहत 76 गांव आवंटित हुए हैं. इसमें से 66 बनकर तैयार हो चुके हैं. शैलेंद्र का नाम सरकारी लिस्ट में 26वें नंबर पर है. इस दस्तावेज के मुताबिक शैलेंद्र का आवास बनकर तैयार हो चुका है. जबकि असल में घर जिस स्थिति में खड़ा है, उसे रहने लायक तो कत्तई नहीं कहा जा सकता है. यह आवास आरसीसी के चार पिलर की सहायता से खड़ा किया जाना था. शैलेंद्र की मां माको बाई हमें दिखाती हैं कि किस तरह से ठेकेदार ने आरसीसी के पिलर में कंक्रीट की जगह ईंटें तोड़कर भर दी हैं. उनके आवास में ना तो प्लास्ट हुआ है और ना ही फर्श बना है. जो दीवारें खड़ी की गई हैं तो छत का भार उठाने के लिहाज से बेहद संदिग्ध हैं. माको बाई कहती हैं-


"हमारा आवास भी बाकी लोगों के साथ आया था. कुछ लोगों का आवास बन गया है. हमारा अभी तक क्यों नहीं बना? हमने भी ठेकेदार को पूरे पैसे दे दिए हैं. कलेक्टर साहेब पिछली दफा गांव में आए थे. हमने अपनी बात कहनी चाही तो हमें बैठा दिया. कहा कि बैठ जाओ-बैठ जाओ अभी कलेक्टर साहब सभी उद्घाटन करने आए हुए हैं. अब आप बताओ मैं क्या करूं. हमारा घर जैसा बनाया है, मैं अपने बच्चों के साथ यहां क्या मरने के लिए आऊंगी. यह घर एक बारिश भी नहीं झेल पाएगा."

सिरिनाम की बीवी स्वरूपी गुर्जरों की तरफ से मिल रही धमकी की वजह से बेहद डरी हुई हैं और माको बाई को मिले आवास की दीवारें छत का भार उठाने के लिहाज से बेहद संदिग्ध हैं. (फोटोः रजत सैन | दी लल्लनटॉप)
सिरिनाम की बीवी स्वरूपी गुर्जरों की तरफ से मिल रही धमकी की वजह से बेहद डरी हुई हैं और माको बाई को मिले आवास की दीवारें छत का भार उठाने के लिहाज से बेहद संदिग्ध हैं. (फोटोः दी लल्लनटॉप)

प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत यह व्यवस्था की गई थी कि लाभार्थियों को केंद्र सरकार की दूसरी योजनाओं का लाभ भी इसके साथ दिया जाए. मसलन स्वच्छ भारत अभियान के तहत बनने वाले शौचालय और उज्ज्वला योजना के तहत मिलने वाले गैस कनेक्शन की पात्रता, लाभार्थियों को दी जाने का प्रावधान था. 25 आवासों की इस कॉलोनी में एक भी घर में शौचालय नहीं है. ऐसा कैसे हुआ? इसका जवाब हमें पंचायत सचिव गौतम सिंह कौरव देते हैं. वो कहते हैं-


"प्रधानमंत्री आवास योजना स्वच्छ भारत मिशन के बाद में आई है. जब इनके लिए आवास आवंटित हुए थे उस समय तक इनमें से कई लोगों के कच्चे घरों में शौचालय बनवा दिए गए थे. अब ग्वालियर ओडीएफ या खुले में शौच मुक्त घोषित कर दिया गया है. अब नए शौचालय बनना संभव नहीं है. ऐसे में इस कॉलोनी के एक भी घर में शौचालय नहीं बन पाया है."

श्न्या गांव के पंचायत सचिव गौतम सिंह कौरव (फोटोः मनोज | दी लल्लनटॉप)
पंचायत सचिव गौतम सिंह कौरव (फोटोः दी लल्लनटॉप)

तीसरी किस्त उर्फ़ मारे गए गुलफाम

कांसेर के रहने वाले सिरिनाम के लिए प्रधानमंत्री आवास योजना दोहरी मार लेकर आई. उनका कच्चा घर महेंद्र सिंह और राय बहादुर सिंह गुर्जर के खेत के किनारे पड़ता था. वो सालों से इस जगह रहते आए हैं. जैसे ही उनके नाम घर आवंटित हुआ गुर्जरों ने उनके आवास पर एतराज खड़ा दिया. उनका दावा था कि सिरिनाम का घर उनकी जमीन में बना हुआ है. काफी कहासुनी के बाद जमीन के बदले में सिरिनाम को 25,000 रुपए चुकाने पड़ेंगे. आखिरकार काफी बहस के बाद सिरिनाम को 6,000 रुपए देने पड़े. उन्हें अब भी बाकी का पैसा देने के लिए धमकी मिल रही हैं.

इस बखेड़े से निकलकर सिरिनाम ने जैसे-तैसे अपने घर का काम शुरू करवाया. शुरुआत में काम ठीक चला लेकिन तीसरी किस्त आने के साथ ही ठेकेदार ने उन्हें भी धोखा दे दिया. फिलहाल घर के नाम पर उनके पास बिना छत का एक ईंटों का डब्बा खड़ा है. सिरिनाम पिछले काफी समय से ठेकेदार से काम करवाने का तगादा कर रहे हैं. लेकिन उन्हें ठेकेदार की तरफ से जल्द से जल्द करवाने की बात कह दी जाती है.


लोगों कह रहे हैं कि सुनवाई नहीं हो रही है. (फोटोः मनोज | दी लल्लनटॉप)
लोग कह रहे हैं कि सुनवाई नहीं हो रही है. (फोटोः  दी लल्लनटॉप)

केंद्र सरकार ने प्रधानमंत्री आवास योजना को बनाते समय इस बात का खास ध्यान रखा था कि कहीं कोई लीक ना हो. लेकिन इस योजना की तीसरी किस्त ने इन सारे प्रयासों पर पलीता लगा दिया. तीसरी किस्त देकर धोखा खाने वाले सिरिनाम अकेले नहीं है. कांसेर गांव के ही गांव के साथ भी ऐसा ही हुआ. गांव में सहरिया आदिवासियों के लिए बसाई जा रही विशेष कॉलोनी में ज्ञानी के बेटे रामबाबू के लिए भी आवास आवंटित हुआ था. उन्होंने पंचायत सचिव और सरपंच के कहने पर अपने मकान का ठेका शिशुपाल नाम के स्थानीय ठेकेदार को दे दिया था. छत बनाने के लिए आई तीसरी किस्त लेने के बाद ठेकेदार ने उनके मकान का काम भी रोक दिया. पिछले चार महीने उनके आवास का काम बंद है. ज्ञानी अब इस आवास के पूरा होने की उम्मीद भी छोड़ चुके हैं. यही कहानी हमें आरोन गांव के कल्याण के मुंह से सुनने के मिली.

"इसमें मैंने आपको ये बता दिया है कि जो भी शिकायत प्राप्त होती है उन सभी शिकायतों को बड़ी गंभीरता से लिया जाता है. उसमें टीमें गठित करके भेजी जाएंगी और उसमें अगर कोई भी अप्रिय स्थिति बनती है तो उसमें हम एफआईआर दर्ज़ कराएंगे."

जिला कलेक्टर अनुराग चौधरी ने जनसुनवाई में आई अधूरे आवासों की शिकायत को लेकर बताया- जिला कलेक्टर अनुराग चौधरी (फोटोः मनोज | दी लल्लनटॉप)
जिला कलेक्टर अनुराग चौधरी (फोटोः दी लल्लनटॉप)

प्रधानमंत्री आवास योजना के बेहतरीन क्रियान्वयन के लिए ग्वालियर को दो दफा राज्यस्तरीय ईनाम मिल चुका है. यह तथ्य बिना छत के घरों में उलटबांसी की तरह लटका हुआ है. 2014 के नरेंद्र मोदी विकास के वायदे के साथ सत्ता में आए थे. 2012 और 2007 गुजरात विधानसभा चुनाव इस बात की गवाही देते हैं कि वो 2019 का लोकसभा चुनाव विकास के आंकड़ों पर लड़ेंगे. 'तीन साल में गरीबों के लिए 1 करोड़ आवास', यह वाक्य आप आने वाले समय कई बार सुनेंगे. आप जितनी बार यह वाक्य सुनें, रोना बाई की हर दिन टूटती उम्मीद को जरूर याद रखिएगा.



Video:  प्रधानमंत्री आवास योजना -  घर बनाने वाली स्कीम की तीसरी किस्त के बाद हो रहा बड़ा गड़बड़झाला