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स्विट्ज़रलैंड सरकार ने बुर्क़ा क्यों बैन कर दिया?

बुर्क़ा बैन के पीछे की पूरी कहानी जानिए.

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स्विट्ज़रलैंड में 51.2 फीसद लोगों ने बुर्के और नक़ाब बैन का समर्थन किया. (तस्वीर: एपी)
आज इंटरनैशनल विमिन्स डे है. इत्तेफ़ाकन, इस एपिसोड का विषय भी महिलाओं से जुड़ा है. एक देश ने अपने यहां रायशुमारी करवाई. वोटिंग के मार्फ़त नागरिकों को एक मुद्दे के पक्ष और विपक्ष में अपनी राय देनी थी. मुद्दा था, एक प्रस्तावित बैन. 48.8 प्रतिशत जनता ने बैन का विरोध किया. 51.2 फीसद लोगों ने इसका समर्थन किया. प्रो और अगेंस्ट का ये फ़र्क मामूली सही, मगर इतना स्पष्ट ज़रूर था कि बैन को क़ानूनी स्वीकृति मिल गई.
किस बात का बैन है ये?
ये बैन जुड़ा है, पर्देदारी से. बुर्के और नक़ाब से. अब इस देश में सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं को चेहरा ढकने की इजाज़त नहीं होगी. उन्होंने पर्दा किया, तो इसे ग़ैरक़ानूनी माना जाएगा. इस मामले में दिलचस्प है, रेफरेंडम करवाने वाली सरकार की अपील. गवर्नमेंट ने नागरिकों से ये बैन ख़ारिज़ करने की अपील की थी. क्योंकि ये बैन जिस क़िस्म की पर्देदारी को प्रतिबंधित करता है, वैसा इस देश में होता ही नहीं. फिर भी बहुसंख्यक आबादी ने बैन का समर्थन किया. माने, जो समस्या थी ही नहीं, उसे बैन कर दिया. ये क्या मामला है, विस्तार से बताते हैं आपको.
शुरुआत करते हैं एक थीसिस से
1996 का साल था. कोल्ड वॉर ख़त्म हो चुका था. इसी बैकग्राउंड में दुनिया को मिली एक नई थिसिस. इसका नाम था- क्लैश ऑफ़ सिविलाइज़ेशन्स. ये थिअरी दी थी, अमेरिका के मशहूर पॉलिटिकल साइंटिस्ट सैमुअल पी हंटिंगटन ने. इस थिअरी में सभ्यता का अर्थ मूल रूप से सांस्कृतिक और धार्मिक है. कल्चर बनाम कल्चर. धर्म बनाम धर्म. हंटिंगटन ने कहा कि कोल्ड वॉर के बाद की दुनिया में संघर्ष का मूल होगा, सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान. इस दौर के युद्ध देशों के बीच नहीं, बल्कि संस्कृतियों के बीच लड़े जाएंगे.
हंटिंगटन की ये थिअरी सच साबित हो रही है. ये संघर्ष अपने सबसे स्पष्ट रूप में दिख रहा है, यूरोप के भीतर. और वहां इस संघर्ष की सबसे मुख्य थीम है- इस्लाम वर्सेज़ वेस्ट.
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पॉलिटिकल साइंटिस्ट सैमुअल पी हंटिंगटन. (तस्वीर: एएफपी)


क्या है ये मामला?
यूरोप एक कॉन्टिनेंट है. इसमें कुल 44 देश हैं. इन देशों की कुल आबादी है लगभग 74 करोड़. आबादी का बहुसंख्यक वर्ग ईसाई है. मुस्लिम कितने हैं यहां? 2010 तक यूरोप में मुसलमानों की संख्या थी, करीब एक करोड़ 90 लाख. इनमें एक बड़ी संख्या पश्चिमी अफ़्रीका, इराक और अफ़गानिस्तान के हिंसा प्रभावित क्षेत्रों से आए मुस्लिमों की थी. 2016 आते-आते यूरोप में मुस्लिमों की संख्या बढ़कर हो गई ढाई करोड़.
आबादी में हुआ ये इज़ाफा मुख्य तौर पर 2014 से 2016 के बीच हुआ. इसकी वजह थी- सीरिया, इराक और अफ़गानिस्तान जैसे मुस्लिम देशों में चल रहे युद्ध. वहां हालात बिगड़े, तो लाखों-लाख लोग जान बचाने के लिए भागने लगे. इन शरणार्थियों का एक बड़ा हिस्सा यूरोप पहुंचा. आंकड़ों के मुताबिक, 2010 से 2016 के बीच यूरोप में 70 लाख से ज़्यादा माइग्रेंट्स आए. इनमें से करीब 13 लाख मुस्लिम शरणार्थी थे.
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सीरिया में अभी भी गृहयुद्ध जैसे हालात हैं. (तस्वीर: एपी)


टोटल इमिग्रेशन के अनुपात में देखें, तो मुस्लिमों की ये संख्या बहुत ज़्यादा नहीं है. लेकिन फिर भी मुस्लिमों की मौजूदगी विशेष हाईलाइट की जाती है. क्यों? इसकी वजह है, परसेप्शन. सितंबर 2001 में अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला हुआ. इसके बाद वेस्टर्न वर्ल्ड ने इस्लाम की छवि दुश्मन जैसी बना दी. आतंक से लड़ाई को 'वेस्ट बनाम इस्लाम' की जंग समझ लिया गया. इस्लाम के अस्तित्व को वेस्ट के लिए ख़तरा माना जाने लगा.
परसेप्शन गढ़ने में दूसरी बड़ी वजह बना, कार्टून ऐपिसोड. डेनमार्क और फ्रांस में पैगंबर के कार्टून्स छपे. इनकी प्रतिक्रिया में आतंकी हमले हुए. इससे यूरोपियन्स हिल गए. मुस्लिमों को टारगेट किया जाने लगा. इस्लामिक प्रतीकों के प्रति आक्रामकता बढ़ने लगी. ऐसा समझा जाने लगा मानो मुसलमान किसी आधुनिक और सेकुलर देश का हिस्सा हो ही नहीं सकते.
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2001 में अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला हुआ था. (तस्वीर: एएफपी)


ऐसा नहीं कि ये समझ पूरी तरह से ग़लत हो!
कई मुस्लिम सच में कट्टर थे. वो आम आबादी से जैसे एक हाथ की दूरी बनाए रखते. कई बार आम नियम-क़ायदों में भी धार्मिक बिनाह पर विशेष छूट चाहते. अपनी धार्मिक मान्यताओं के प्रति अतिरिक्त आग्रह बरतते. मगर ऐसे लोग कम ही थे. ऐसा नहीं था कि दाढ़ी बढ़ाने, नमाज पढ़ने वाला हर मुसलमान ख़तरनाक हो. लेकिन जब इस्लाम को ही ख़तरा समझ लिया जाए, तो आतंकी, कट्टरपंथी और आम मुसलमान के बीच का ज़रूरी फ़र्क ब्लर हो जाता है. ऐसा ही यूरोप में भी होने लगा.
इस क्लैश का तीसरा मुख्य पॉइंट बना, यूरोप में घुस आया आतंकवाद. अरब स्प्रिंग के बाद इस्लामिक स्टेट ने इराक और सीरिया में सिर उठाया. यूरोपीय मुस्लिमों की एक बड़ी संख्या भी ISIS जॉइन करने पहुंच गई. इनके अलावा ISIS के प्रति निष्ठा दिखाने वालों ने यूरोप के भीतर भी कई आतंकी हमले किए. इनमें से कई आतंकी ऐसे थे, जो कभी शरणार्थी बनकर यूरोप आए थे. इन वजहों से इस्लामिक कट्टरता यूरोप के लिए गंभीर सुरक्षा का प्रश्न बन गई.
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यूरोप के मुस्लिम भी आंतकी संगठन ISIS से जुड़े. (तस्वीर: एपी)


इसी माहौल में शुरू हुआ, मुसलमानों का जबरन मेकओवर
चिह्नित इस्लामिक प्रतीकों को खुरचकर मिटाया जाने लगा. ज़ोर दिया जाने लगा कि पब्लिक प्लेस में कोई शख़्स देखने से मुसलमान न लगे. अब सोचिए, मुसलमान लगते कैसे हैं? ख़ास तरह की पोशाक से. एक ख़ास स्टाइल की दाढ़ी से.
इसी पोशाक वाली बहस का एक हिस्सा है- बुर्का और हिजाब बैन. इसकी शुरुआत हुई फ्रांस में. वहां 2004 में ही स्कूलों के लिए एक नियम लाया गया. इसके तहत, कोई भी टीचर या स्टूडेंट बुर्का पहनकर या माथे पर हिजाब डालकर स्कूल नहीं जा सकेंगी. इसके अलावा सरकारी स्कूलों में बाकी किसी तरह के धार्मिक प्रतीकों की भी एंट्री बैन होगी. इस नियम को पॉलिटिकल और पब्लिक, दोनों तरह का सपोर्ट मिला.
फिर 11 अप्रैल, 2011 को फ्रांस ने बुर्के पर ओवरऑल बैन लगा दिया. कोई भी महिला, चाहे वो फ्रेंच हो या विदेशी, सार्वजनिक जगहों पर बुर्का पहनकर नहीं जा सकती. बुर्का पहनकर घर से नहीं निकल सकती. उस वक़्त फ्रांस के राष्ट्रपति थे, निकोलस सरकोज़ी. उन्होंने कहा कि बुर्का महिलाओं के दमन का प्रतीक है. फ्रांस में बुर्के का बिल्कुल भी स्वागत नहीं. इसके अलावा इस बैन को सुरक्षा संबंधी ज़रूरत से भी जोड़ा गया. फ्रांस के बाद बेल्जियम, ऑस्ट्रिया, नीदरलैंड्स, इटली, डेनमार्क और बुल्गारिया में भी ऐसा ही बैन लागू हुआ.
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फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति निकोलस सरकोज़ी. (तस्वीर: एपी)


7 मार्च को बुर्के और नक़ाब बैन?
जुलाई 2014 में ये मामला यूरोपियन कोर्ट ऑफ़ ह्युमन राइट्स भी पहुंचा. मगर उसने भी कहा कि सरकारों को बुर्का बैन करने का अधिकार है. इससे धर्म और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन नहीं होता. इसके बाद और भी यूरोपीय देशों में बुर्का बैन की मांग उठने लगी. ऐसा नहीं कि ये मांगें बस बुर्के और नकाब के विरोध में हों. लोग सिर और गर्दन ढकने वाले हिजाब का भी विरोध करते हैं.
इसी मांग से जुड़ा एक बड़ा अपडेट स्विट्ज़रलैंड से आया है. 7 मार्च को यहां सार्वजनिक स्थानों में बुर्के और नक़ाब को बैन कर दिया गया.
ये बैन लगा है, एक रेफरेंडम के चलते. ये रेफरेंडम करवाया था SVP नाम की एक राजनैतिक पार्टी ने. SVP का पूरा नाम है, स्विस पीपल्स पार्टी. ये स्विट्ज़रलैंड की एक राइट-विंग पार्टी है. इमिग्रेशन, ख़ासकर मुस्लिम इमिग्रेंट्स की विरोधी रही है. उसी ने बुर्का बैन करने के प्रस्ताव पर रायशुमारी करवाई थी. इस कैंपेन के सपोर्ट में पार्टी ने एक पोस्टर निकाला. लाल रंग के बैकग्राउंड वाले इस पोस्टर पर बुर्के में ढकी एक महिला नज़र आती है. पोस्टर पर सामने की ओर लिखा है- एक्सट्रेमिज़्मस स्टोपेन. माने, बुर्का बैन करके कट्टरता को रोको.
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एक्सट्रेमिज़्मस स्टोपेन वाली पोस्टर. (तस्वीर: एपी)


7 मार्च को इस रेफरेंडम पर वोटिंग हुई. कुल 50 पर्सेंट मतदाता वोट डालने निकले. इनमें से 48.8 पर्सेंट वोटर्स ने बुर्का बैन करने के विरोध में मत डाला. इनके मुकाबले, 51.2 पर्सेंट लोगों ने बैन का समर्थन किया. इस तरह बैन को क़ानूनी मान्यता मिल गई. अब वहां सार्वजनिक जगहों पर चेहरा नहीं ढका जा सकेगा. इस नियम के अपवाद भी हैं. मसलन, धार्मिक स्थानों के भीतर इसपर बैन नहीं होगा. स्वास्थ्य कारणों से मास्क लगाने और चेहरा ढकने पर भी पाबंदी नहीं होगी.
क्या स्विट्ज़रलैंड को इस बैन की ज़रूरत थी? क्या सच में ही बुर्का और नकाब स्विस आबादी के सेकुलर मूल्यों के आड़े आ रहे थे? जवाब है, नहीं. स्विट्ज़रलैंड की कुल आबादी है लगभग 85 लाख. इनमें लगभग चार लाख मुसलमान हैं. माने जनसंख्या में लगभग पांच पर्सेंट. इनमें से कितनी मुस्लिम महिलाएं बुर्का पहनती हैं? जवाब है, ऑलमोस्ट नो वन. करीब-करीब एक भी नहीं. ये बताया है, यूनिवर्सिटी ऑफ़ लूसन ने अपनी एक रिसर्च रिपोर्ट में.
ये तो हुई बुर्के की बात. अब बैन में शामिल नक़ाब की स्वीकार्यता देख लीजिए. स्विस मीडिया के मुताबिक, पूरे देश में लगभग 30 महिलाएं हैं, जो नक़ाब पहनती हैं.
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7 मार्च को स्विट्ज़रलैंड में सार्वजनिक स्थानों में बुर्के और नक़ाब को बैन कर दिया गया. (तस्वीर: एपी)


बुर्का और नक़ाब में क्या अंतर है?
बुर्का मतलब होता है, पूरे शरीर का पर्दा. इसमें पूरा ज़िस्म एक ढीले से ऊपरी आवरण में ढका होता है. आंखों के पास एक जालीनुमा पट्टी होती है, ताकि बुर्का पहनने वाली देख सके.
बुर्के के मुकाबले नक़ाब आशंका पर्दा है. ये पूरे शरीर को नहीं ढकता. इसमें बस चेहरा, गर्दन और ऊपर का धड़ ढका होता है. आंखों वाला हिस्सा नज़र आता है. इसके अलावा भी पर्दे की कुछ श्रेणियां हैं. मसलन, चादर. जिसमें पूरे शरीर को एक लबादे से ढक लिया जाता है. एक कैटगरी हिजाब की भी है. ये एक छोटा सा दुपट्टेनुमा कपड़ा होता है, जिससे सिर और गर्दन को ढकते हैं. चेहरा खुला रहता है.
अब समझिए. पूरे स्विट्ज़रलैंड में कोई औरत बुर्का नहीं पहनती. मगर बुर्का बैन करने के लिए रेफरेंडम करवाया गया. मात्र 30 औरतें नक़ाब पहनती हैं. इन 30 में से भी ज़्यादातर ऐसी हैं, जो स्विट्ज़रलैंड में पैदा हुईं और इस्लाम में कन्वर्ट हो गईं.
अब सवाल उठता है कि स्विट्ज़रलैंड में बुर्का पहनती कौन हैं?
जवाब है, विदेशी टूरिस्ट. वो भी मिडिल-ईस्ट से आने वालीं महिला पर्यटक. चूंकि अब स्विट्ज़रलैंड में बुर्का बैन हो गया, तो आशंका है कि इस्लामिक देशों से आने वाली महिला पर्यटकों और फैमिली टूरिस्ट ग्रुप्स की संख्या भी घटेगी. इससे स्विट्ज़रलैंड के पर्यटन उद्योग को नुकसान होगा. क्योंकि मिडिल-ईस्ट से आने वाले ऐसे पर्यटक ज़्यादातर बेहद रईस टूरिस्ट्स होते हैं.
इसी आशंका के चलते स्विट्ज़रलैंड की सरकार ने इस बैन का विरोध किया था. उन्होंने अपील की थी कि स्विस नागरिक इस बैन के विरोध में वोट डालें. सरकार का कहना था कि जो समस्या है ही नहीं, उसको इतना तूल क्यों दिया जा रहा है. सरकार ने नागरिकों से ये भी कहा था कि अगर उन्होंने बैन को सपोर्ट किया, तो पर्यटन सेक्टर डैमेज़ होगा.
हमने आपको बताया कि स्विट्ज़रलैंड की SVP पार्टी ये बुर्का बैन का प्रस्ताव लाई. इस पार्टी का अजेंडा क्या है? ये समझने के लिए एक पुरानी घटना सुनिए. 2009 की बात है. इस साल स्विट्ज़रलैंड में एक कैंपेन शुरू हुआ. इसका नारा था- स्टॉप दी मिनारेट्स. आपने मस्जिद देखी है? उसके पास एक मीनार होती है. अक़्सर इसी मीनार से नमाज़ की आवाज़ दी जाती है. स्विस कैंपेन के निशाने पर थीं यही मीनारें.
प्रस्ताव दिया गया कि अब स्विट्ज़रलैंड में इस तरह की मीनारों के निर्माण पर रोक लगा दी जाए. क्यों? क्योंकि ये ऐलियन आर्किटेक्चर है. स्विट्ज़रलैंड की संस्कृति और इसके लैंडस्केप में ये बाहरी घुसपैठिया लगता है. अजीब सी फीलिंग आती है मीनारों को देखकर. इस मुद्दे पर भी वहां रेफरेंडम करवाया गया. ऐंटी-मीनार धड़े ने प्रचार के लिए पोस्टर्स बनवाए. इनमें मीनारों की तुलना मिसाइलों से की गई थी. रेफरेंडम में जनता ने भी मीनारों को बैन करने पर मुहर लगाई.
ये कैंपेन किसने शुरू किया था?
उसी SVP पार्टी ने, जो अब बुर्का और नक़ाब बैन वाला प्रस्ताव लेकर आई. मालूम है, मीनार बैन वाले रेफरेंडम के समय स्विट्ज़रलैंड में कितनी मीनारें थीं? स्विट्ज़रलैंड का कुल लैंड एरिया है तकरीबन 41 हज़ार स्क्वैयर किलोमीटर. और न्यू यॉर्क टाइम्स के मुताबिक, इतने बड़े स्विट्ज़रलैंड में थीं कुल तीन मीनारें.
ऐसा भी नहीं कि इन मीनारों से आने वाली नमाज़ की आवाज़ दिन में पांच बार खलल पैदा करती हों. इकॉनमिस्ट की एक रिपोर्ट के मुताबिक, इस कैंपेन से पहले स्विट्ज़रलैंड में किसी ने इन मीनारों से अजान की आवाज़ नहीं सुनी थी. बस रेफरेंडम के टाइम लोगों ने उन मीनारों से आती आवाज़ें सुनीं. इनमें अपील की जाती थी कि लोग मुस्लिम-विरोधी गतिविधियों के झांसे में न आएं. बस इतना ही.
सभ्यता का युद्ध?
स्विट्ज़रलैंड में इस्लाम की मौजूदगी बहुत शोर-शराबे वाली नहीं है. ऐसा नहीं कि सार्वजनिक जीवन में इधर-उधर आपको प्रचुरता से इस्लामिक चीजें दिखती हों. बावजूद इसके SVP पार्टी ने इस्लामिक प्रतीकों का हौआ बनाया. जनता से कहा कि वो चेते नहीं, तो इस्लाम उन्हें ओवरटेक कर लेगा. शरिया क़ानून के नाम पर क्रूर यातनाएं दी जाने लगेंगी. अगर वो चाहते हैं कि उनकी लिबरल संस्कृति बची रहे, तो वो मीनार को बैन करवाएं.
SVP ने मीनार और बुर्का, दोनों के खिलाफ़ चलाए गए कैंपेन में इसे 'सभ्यता का युद्ध' बताया. कहा कि इन्हें बैन न किया गया, तो स्विट्ज़रलैंड का इस्लामीकरण हो जाएगा. आलोचकों का कहना है कि ये इस्लाम के शैतानीकरण की कोशिश है. जहां वाज़िब चिंताएं हों, वहां कदम उठाए जाने चाहिए. कट्टरपंथ के फ़ैक्टर्स को रोका जाना चाहिए. लेकिन बेवजह मुस्लिमों को टारगेट करने का नुकसान हो सकता है.
बुर्का बैन के समर्थक कहते हैं कि बुर्का दमन का प्रतीक है. वो जबरन पहनाया जाता है. यकीनन, कई महिलाएं अपनी इच्छा से पर्दा नहीं करतीं. वो परिवार के प्रेशर में मज़बूर होकर पर्दा करती हैं. मगर ये भी सच है कि कई महिलाएं अपनी इच्छा से बुर्का, नक़ाब और हिज़ाब पहनती हैं. इनमें से कुछ अपनी सोशल कंडीशनिंग की वजह से पर्दा चुनती हैं. कुछ बिना किसी प्रेशर के.
बैन के आलोचक यही तर्क देते हैं. उनका कहना है कि किसी महिला को जबरन बुर्का पहनाया जाना ग़लत है. ऐसा न हो, इसके लिए क़ानून बनाए जाएं. पर्देदारी को ग्लोरिफ़ाई भी न किया जाए. बुर्का और हिजाब आदर्श न बताए जाएं. लेकिन अगर कोई महिला अपनी इच्छा से बुर्का पहनना चाहे, सिर ढकना चाहे, तो उसे इसकी छूट होनी चाहिए. क्योंकि जिस तरह जबरन बुर्का पहनाना ग़लत है, वैसे ही जबरन बुर्का उतरवाना भी ग़लत है.
बुर्का हो या न हो, ये बहुत महीन लाइन है
आदर्श स्थिति तो ये होगी कि पब्लिक जीवन में सब सेकुलर दिखें. सार्वजनिक जीवन से धार्मिक प्रतीकों को अलग रखा जाए. मगर क्या ऐसा हो पाता है? या फिर आतंकवाद और कट्टरता से जुड़ी हमारी चिंताओं के चलते आम मुस्लिम तौर-तरीकों के प्रति ज़्यादा शंका रहती है? उन्हें लेकर ज़्यादा हौआ बना दिया जाता है?
क्या धर्म से भी आगे ये संघर्ष सभ्यताओं का नहीं?
वरना हिजाब कट्टरता और हैट, फ़ैशन सिंबल क्यों कहलाते? आपको पता है, इंग्लिश सोसायटी में हैट संभ्रांत महिलाओं की निशानी मानी जाती थी. तथाकथित अच्छे परिवारों की महिलाओं का बिना हैट बाहर निकलना अशोभनीय माना जाता था. आप सोचिए, क्या आपने इंग्लैंड की महारानी को किसी पब्लिक प्रोग्राम में बिना हैट के देखा है? वो हैट क्या है? सम्मान और प्रतिष्ठा की एक निशानी से शुरू हुई परंपरा ही तो है. यही सम्मान वाली बात हिजाब के पक्षधर भी करते हैं. बस एक बड़ा अंतर ये है कि वो इस सम्मान को धार्मिक आस्था से जोड़कर देखते हैं.
आख़िर में एकबार फिर स्विट्ज़रलैंड पर लौटते हैं. फ्रांस और जर्मनी के मुकाबले, स्विट्ज़रलैंड के मुस्लिम ज़्यादा लिबरल और मॉडरेट माने जाते हैं. यहां मुस्लिम आबादी बाकी समाज के साथ ज़्यादा बेहतर तरीके से घुली-मिली है. यहां प्रग्रेसिव इस्लाम को प्रमोट करने वाले कई संगठन हैं. इनमें से कई ने बुर्का बैन को सपोर्ट भी किया. मगर कई संगठन इस बैन के विरोधी भी हैं. इनका कहना है कि ये बैन समाज को बांटने की राजनीति पर खड़ा है. राजनैतिक फ़ायदों के लिए मुस्लिम प्रतीकों के प्रति ग़ैरज़रूरी डर फैलाया जा रहा है.
ये मसला एक बारीक लकीर की तरह है. इसके एक तरफ़ है, इस्लामिक कट्टरपंथ कम करने. उसे लचीला और उदार बनाने की ईमानदार चिंताएं. और इसके दूसरी तरफ़ है, इस्लामोफ़ोबिया. इस्लामिक कट्टरपंथ का कम होना जितना ज़रूरी है, उतना ही ज़रूरी है इस्लामोफ़ोबिया को रोकना.