बैंकों के राष्ट्रीयकरण का मसला
और इन्हीं ओल्ड गार्ड्स बनाम युवा तुर्कों के घमासान में बीच में पिस रही थीं तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी. उनकी भी एक अपनी छोटी-सी कोटरी थी, जिसमें इन्द्र कुमार गुजराल, दिनेश सिंह और इन्दिरा के प्रधान सचिव पी.एन. हक्सर जैसे कुछ लोग हुआ करते थे. ऐसे में संसद सत्र के दौरान एक दिन बैंकों के राष्ट्रीयकरण के मुद्दे पर राज्यसभा में बहस हो रही थी. बहस के दौरान ही सदन में कांग्रेस के नए और पुराने लोगों की राय साफ तौर पर एकदम अलग-अलग दिख रही थी. हालांकि उस वक्त तक इन्दिरा गांधी के प्रधान सचिव पी.एन. हक्सर ने इन्दिरा को यह बात समझा दी थी कि युवा तुर्क अपनी जगह सही हैं और सभी बड़े प्राइवेट बैंकों का तत्काल राष्ट्रीयकरण किया जाना चाहिए. तभी बैंकिग सेवाओं का लाभ सुदूर गांवों और दूर-दराज के इलाकों तक पहुंचाया जा सकता है. अकेला स्टेट बैंक ऑफ इंडिया इस काम को करने में सक्षम नहीं है.
पुराने दिग्गज नेताओं के साथ प्रणब मुखर्जी
इन्दिरा गांधी भी अपने प्रधान सचिव के तर्कों से सहमत थीं, इसीलिए जब राज्यसभा में बहस चल रही थी, तब वे पूरे दिन राज्यसभा में ही बैठी रहीं. बहस के दरम्यान ही पीछे की बेंच पर बैठे बांग्ला कांग्रेस के एक नौजवान सांसद के बोलने की बारी आई. उस नौजवान सांसद ने राष्ट्रीयकरण (Nationalisation) के पक्ष में बेहद मजबूत तर्कों के साथ अपनी बात रखी. जब उस नौजवान सांसद ने अपना भाषण खत्म किया, तब इन्दिरा गांधी ने राज्यसभा में कांग्रेस के मुख्य सचेतक (Chief Whip) ओम मेहता को बुलाया और पूछा-
"ओम, यह लड़का कौन है?"तब ओम मेहता ने उन्हें बताया-
"ये बांग्ला कांग्रेस के नए बने एमपी हैं. प्रणब कुमार मुखर्जी इनका नाम है."बाद में इन्दिरा गांधी ने अपने अजीज दोस्त, कैम्ब्रिज के दिनों से फिरोज और इन्दिरा के दोस्त एवं भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के दिग्गज राज्यसभा सांसद भूपेश गुप्त से प्रणब के बारे में पूछा. उन्होंने भी प्रणब की बहुत तारीफ की. इसके बाद प्रणब मुखर्जी की इन्दिरा गांधी से निकटता बढ़ने लगी.
राज्यसभा की इस बहस के कुछ ही दिनों के बाद कांग्रेस टूट गई. प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी को ही कांग्रेस से निकाल दिया गया. तब इन्दिरा गांधी ने कांग्रेस (रिक्विजिशनिस्ट) के नाम से एक नई पार्टी गठित कर ली. 1971 के लोकसभा चुनाव में बैंक नेशनलाइजेशन और राजाओं के प्रिवी पर्स के खात्मे के मुद्दे को कांग्रेस (R) ने अपना मुख्य चुनावी मुद्दा बनाया. इन्हीं दोनों मुद्दों के इर्द-गिर्द इन्दिरा गांधी के 'दरबारी कवि' कहे जाने वाले श्रीकांत वर्मा ने 'गरीबी हटाओ' का नारा गढ़ा. इस गरीबी हटाओ के नारे ने कांग्रेस (R) को आम चुनावों में जबरदस्त सफलता दिलाई और इन्दिरा गांधी एक बार फिर प्रधानमंत्री बनीं.
मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के बड़े नेता रहे अर्जुन सिंह के साथ प्रणब मुखर्जी
इसके बाद 1972 में बंगाल विधानसभा चुनाव के ठीक पहले बांग्ला कांग्रेस का इन्दिरा गांधी की कांग्रेस (R) में विलय हो गया. प्रणब मुखर्जी अब कांग्रेस (R) के राज्यसभा सांसद कहलाने लगे. 1974 में प्रणब मुखर्जी पहले वित्त राज्य मंत्री (तब सी. सुब्रह्मण्यम वित्त मंत्री हुआ करते थे) और बाद में 1982 में वित्त मंत्री भी बने.
मजेदार बात यह है कि प्रणब मुखर्जी को बतौर वित्त मंत्री नेशनलाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन- दोनों की वकालत करनी पड़ी. वे इस देश के अकेले नेता रहे हैं, जो आर्थिक सुधारों के पहले समाजवादी अर्थव्यवस्था के दौर में भी वित्त मंत्री रहे और 1991 में भूमंडलीकरण की नीतियों को स्वीकार किए जाने के बाद भी देश के वित्त मंत्री रहे. 1982 में जब तत्कालीन वित्त मंत्री आर. वेंकटरमण को रक्षा मंत्रालय में भेजा गया, तब उनकी जगह प्रणब मुखर्जी को पहली बार वित्त मंत्री बनाया गया.
दूसरी बार वित्त मंत्री बनाए जाने की कहानी भी दिलचस्प
26 नवंबर, 2008 को मुम्बई पर एक बड़ा आतंकवादी हमला हुआ. इस हमले के कारण करीब एक सप्ताह तक देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई पूरी तरह अस्त-व्यस्त रही. हालांकि मुम्बई पुलिस और देश की अन्य सुरक्षा एजेंसियों ने मिलकर आतंकवादियों को मार गिराया. केवल एक आतंकी जिंदा पकड़ लिया गया.
लेकिन इसी हमले ने कई सत्ताधारी नेताओं की कुर्सी छीन ली. महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख ट्राइडेंट होटल (जहां आतंकी हमला हुआ था) में हालात का जायजा लेने फिल्म निर्देशक रामगोपाल वर्मा के साथ पहुंचे. इस मामले की इतनी आलोचना हुई कि विलासराव देशमुख को मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी. वहीं हमले के दौरान केन्द्रीय गृह मंत्री शिवराज पाटिल कई बार सूट बदलकर मीडिया के सामने आए. उनके इस बार बार सूट बदलने के मामले ने इतना तूल पकड़ लिया कि उन्हें भी अपना पद छोड़ना पड़ा. उनके पद छोड़ने के बाद एक 'काबिल' गृह मंत्री की तलाश शुरू हुई और यह तलाश तत्कालीन वित्त मंत्री पी. चिदंबरम पर जाकर पूरी हुई.
चिदंबरम गृह मंत्री बना दिए गए और वित्त मंत्रालय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने पास रख लिया. लेकिन कुछ ही दिनों बाद जनवरी, 2009 में मनमोहन सिंह को अपनी बाइपास सर्जरी के लिए एम्स में दाखिल होना पड़ा. उनकी बाइपास सर्जरी हुई और इसी कारण वे 2009 के गणतंत्र दिवस समारोह में भी शामिल नहीं हो सके. तब बतौर प्रधानमंत्री राजपथ पर परेड के दौरान उनके द्वारा निर्वाह किए जाने वाली औपचारिकताओं को रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी ने निभाया. लेकिन वित्त मंत्रालय का काम कोई औपचारिकता निभाने (Ceremonial Duty) का नहीं होता है. यहां एक पूर्णकालिक वित्त मंत्री की जरूरत होती है. इसी के मद्देनजर विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी को वित्त मंत्रालय का कार्यभार सौंपा गया, जहां वे अगले साढ़े तीन साल तक रहे. इसी मंत्रालय में रहते हुए वे सक्रिय राजनीतिक जीवन से विदा लेकर रायसीना हिल्स (यानी राष्ट्रपति पद) पर पहुंचे.
जो प्रणब मुखर्जी कभी नेशनलाइजेशन और समाजवादी आर्थिक नीतियों की वकालत करते नहीं थकते थे, वही अब बतौर वित्त मंत्री अपनी दूसरी पारी के चार बजट भाषणों (2009-12) में उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण के पक्ष में धारदार तर्क देते नजर आ रहे थे.
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