तो मामला पहुंचा लल्ली देवी के पास. लल्ली देवी गांव की सबसे पुरानी और अनुभवी महिला थीं. जब भी लोगों में झगड़े होते, वो लल्ली देवी के पास पहुंचते. वो अक्सर कोई बीच का रास्ता निकाल लिया करती थीं.
दुनिया के पास भी लल्ली देवी टाइप का एक सिस्टम है. यूनाइटेड नेशंस सिक्योरिटी काउंसिल यानी UNSC. हिंदी में कहें तो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद. UNSC की बात आज क्यों? क्योंकि इंडिया को 8वीं बार इसका अस्थाई सदस्य चुन लिया गया है. तो आज 'आसान भाषा में' समझेंगे क्या UNSC और कैसे काम करता है.
UNSC, यूनाइटेड नेशंस का एक अहम हिस्सा है. UNSC यानी सुरक्षा परिषद. इसका मूल रूप से काम है पूरी दुनिया में शांति और सुरक्षा बनाए रखने में मदद करना. कुल मिला कर यह दुनिया भर में लल्ली देवी की तरह काम करता है. दुनिया में कहीं भी देशों के बीच लड़ाई झगड़ा हो या भीतर कोई बड़ी उथलपुथल हो तो सुरक्षा परिषद मामला निपटाने को लेकर फैसला लेती है.
अब परिषद के बारे में कुछ फैक्ट्स
#1 इसमें कुल 15 मेंबर हैं. जिनमें से 5 तो परमानेंट हैं और बाकी 10 हर 2 साल में बदलते रहते हैं.
#2 भारत 10 साल बाद फिर से सुरक्षा परिषद का सदस्य बना है. इससे पहले 1950-51, 1967-68, 1972-73, 1977-78, 1984-85, 1991-92 और 2011-12 में भारत यह जिम्मेदारी निभा चुका है.
#3 अस्थायी सदस्यों का चयन यूनाइटेड नेशंस जनरल असेंबली द्वारा किया जाता है. सीट हासिल करने वाले को सभी वोट करने वाले सदस्यों के कम से कम दो तिहाई वोट मिलने जरूरी होते हैं.
#4 अगर कभी दो देश ऐसी स्थिति में फंसते हैं कि दोनों में किसी को भी दो तिहाई वोट न मिलें, तो फिर से वोटिंग होती है. यह तब तक होती है जब तक किसी एक को दो-तिहाई वोट न मिल जाएं.
#5 1979 में जब ऐसा ही मामला क्यूबा और कोलंबिया के बीच आय़ा तो जनरल असेंबली को 154 राउंड वोटिंग करनी पड़ी थी. इसके बाद भी फैसला नहीं हो पाया और इन दोनों देशों ने मैक्सिको की सदस्यता पर हामी भर ली थी.
#6 भारत को 192 वैलिड वोटों में से 184 वोट मिले. उसे एशिया पैसेफिक कैटेगिरी के लिए चुना गया है. विशेषज्ञों का कहना है कि सुरक्षा परिषद में मौजूदगी से किसी भी देश का यूएन प्रणाली में दखल और दबदबे का दायरा बढ़ जाता है.

फोटो: un.org
परमानेंट मेंबर कौन होते हैं और कैसे बनते हैं?
दुनिया के 5 देश या कहें कि 'महाशक्तियां' इसकी परमानेंट मेंबर हैं. ये हैं अमेरिका, रूस, यूनाइटेड किंगडम, फ्रांस और चीन. इनकी सबसे बड़ी ताकत है किसी भी फैसले को वीटो करने की ताकत. जैसे आप दोस्तों के साथ गोवा जाने के कितने भी प्लान बना लो. लास्ट में घर से ही मम्मी-पापा का वीटो आ जाता है. और आपका प्लान चौपट हो जाता है. इसी तरह इन 5 देशों में से कोई भी अगर सुरक्षा परिषद के किसी फैसले को वीटो करता है तो वह लागू नहीं होगा.
अस्थायी सदस्य कौन-कौन से हैं?
10 अस्थायी सदस्यों में इस बार शामिल थे.
- रिपब्लिक ऑफ़ नाइजर - ट्यूनीशिया - साउथ अफ्रीका - वियतनाम - इंडोनीशिया - एस्तोनिया - सेंट विंसेंट ग्रेनाडाइन - डॉमिनीक रिपब्लिक - बेल्जियम - जर्मनी
क्या भारत कल से ही अस्थाई सदस्य बन जाएगा?
नहीं. भारत अगले टर्म के लिए चुना गया है. नए सदस्य सुरक्षा परिषद को हर साल की पहली तारीख को जॉइन करते हैं. भारत 1 जनवरी 2021 से जॉइन करेगा. भारत के साथ 3 और नए देश अस्थायी सुरक्षा परिषद में शामिल होंगे. साल 2021 से 22 के बीच सुरक्षा परिषद में अस्थायी सदस्य के तौर पर इंडिया मौजूद रहेगा.
भारत परमानेंट मेंबर क्यों नहीं बना?
इसके पीछे कई कहानी है. जिसके कई वर्जन हैं. बीते साल की बात है. संयुक्त राष्ट्र बैठक में जैश-ए-मोहम्मद चीफ़ मसूद अजहर को इंडिया ग्लोबल आतंकी घोषित करवाना चाह रहा था. जिसमें चीन ने वीटो कर दिया था. तब बीजेपी ने कहा था कि सुरक्षा परिषद में चीन की परमानेंट मेम्बरशिप के लिए पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ज़िम्मेदार हैं. हालांकि बाद में चीन ने चुप्पी साध ली थी और मसूद अजहर को ग्लोबल टेररिस्ट लिस्ट कर दिया गया था. लेकिन नेहरू पर से चीन के नखरे ढोने का टैग लगा रहता है.
लेकिन कैसे?
कहा जाता है कि नेहरू के जमाने में भारत को सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता देने की दो बार अनौपचारिक पेशकश हुई. जिसमें एक बार साल 1950 में अमेरिका की तरफ से. और दूसरी 1955 में सोवियत संघ की तरफ से. कहा जाता है कि 1950 में अमेरिका की तरफ से की गई पेशकश कम्युनिस्टों के डर के कारण थी. वहीं 1955 में सोवियत संघ ने यह पेशकश उत्साह में आकर की. अब चूंकि ये दौर शीत युद्ध का दौर था. अमेरिका और सोवियत संघ हुए जानी दुश्मन. और नेहरू की पॉलिसी थी न्यूट्रल रहने की. तो उन्होंने सदस्यता नहीं ली.

महात्मा गांधी के साथ जवाहरलाल नेहरू (फोटो: एपी)
इस बात को लेकर नेहरू को संसद में घेरा गया था. तो नेहरू की ओर से बिलकुल उलट कहानी आई थी. 1955 में संसद में डॉ. जेएन पारेख की तरफ से जब ये सवाल पूछा गया. तो नेहरू ने कहा था-
इस तरह का कोई प्रस्ताव, औपचारिक या अनौपचारिक नहीं है. कुछ अस्पष्ट संदर्भ इसके बारे में प्रेस में दिखाई दिए हैं जिनका वास्तव में कोई आधार नहीं है. सुरक्षा परिषद में कोई भी परिवर्तन चार्टर में संशोधन के बिना नहीं किया जा सकता. इसलिए सीट की पेशकश और भारत का इससे इनकार का कोई सवाल ही नहीं है. हमारी घोषित नीति संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता के लिए योग्य सभी देशों के प्रवेश का समर्थन करना है.जानकार कहते हैं कि सीट सच में ऑफर की गई या नहीं, ये अस्पष्ट है. लेकिन नेहरू के लिए ये भी कहा जाता है कि उन्होंने चीन को ये सीट दिलाने में उस वक़्त उसका साथ दिया था. इस बारे में 'आजतक वेबसाइट' ने बीते साल बात की थी JNU में सेंटर फॉर ईस्ट-एशियन स्टडीज की प्रोफेसर अलका आचार्य से. प्रो. आचार्य का कहना था-
उस समय का दौर अलग था. तब एक मजबूत एशिया बनाने की बात की जा रही थी. जिसमें भारत-चीन की साझेदारी मजबूत एशिया की दिशा में अहम थी. तब किसी ने नहीं जाना था कि आगे चल कर भारत-चीन के रिश्ते खराब होंगे. इसलिए इस एक घटना को पूरे संदर्भ से बाहर निकालकर नहीं देखना चाहिए.तो सबके अपने अपने सच हैं. और इतिहास क्या है? सबके सच के अलग-अलग वर्जन्स की खिचड़ी. इस खिचड़ी का स्वाद लेते रहें आसान भाषा में.
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