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क्या होता है ये इज्तेमा, जिसमें लाखों मुसलमान इकट्ठा हुए हैं

इसके आयोजन में लगने वाला पैसा आता कहां से है?

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भारत के दो प्रमुख धर्म हैं. हिंदू और इस्लाम. दोनों ही धर्मों में कई सारी प्रथाएं हैं, रीति-रिवाज़ हैं, त्योहार हैं. अमूमन एक दूसरे के धर्म के बारे में लोगों को बेहद कम जानकारी होती है. सदियों से साथ रहती आई कौमें एक-दूसरे के रीति-रिवाजों के बारे में ज़्यादा कुछ नहीं जानती. ख़ास तौर से इस्लाम के विषय में तो थोड़ी-बहुत बेसिक जानकारी के अलावा बहुसंख्यक हिंदू समाज को और कुछ नहीं पता. हज, रोज़े, नमाज़ के बारे में तो जानकारी है लेकिन इनका औचित्य शायद ही पता हो. कई सारे लोग तो दो ईदों में भी फर्क नहीं कर पाते.
ऐसे में अचानक किसी सुहानी सुबह आप सोशल मीडिया पर कुछेक पोस्ट्स देखते हैं. जिनमें सूचना होती है कि फलां जगह इतने लाख मुसलमान इकट्ठा हुए. क्यों हुए ये जानने की कोशिश करने पर 'इज्तेमा' जैसा शब्द सुनाई पड़ता है. तो कई सारे लोगों के पल्ले ही नहीं पड़ता कि ये है क्या! खबरिया चैनल बस ये बताते हैं कि फलां इज्तमे में इतने लाख मुसलमान जमा हुए, फलां इज्तमे में इस आलीम की तकरीर हुई वगैरह-वगैरह.
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आज आसान भाषा में यही समझेंगे कि ये इज्तेमा होता क्या है? और जब भाषा आसान ही रखनी है तो एक लाइन में यूं समझ लीजिए इज्तेमा मुसलमानों का सत्संग है. बाकी और बताते हैं.
इस बारे में बेसिक जानकारी के लिए हमने वरिष्ठ पत्रकार ज़िया-उस-सलाम से बात की. वो पत्रकार होने के साथ इस्लामिक स्कॉलर भी हैं. ट्रिपल तलाक पर 'टिल तलाक डू अस पार्ट' और भारत में मुस्लिम आइडेंटिटी पर 'ऑफ़ सैफरन फ्लैग एंड स्कलकैप्स' नाम की दो किताबें भी भी लिख चुके हैं. हालांकि तबलीग़ी जमात की फंक्शनिंग से वो ज़्यादा इत्तेफ़ाक़ तो नहीं रखते लेकिन हमें उन्होंने कुछ यूज़फुल जानकारी ज़रूर दी. कुछ उनकी बताई और कुछ हमारी अपनी रिसर्च से हासिल हुई जानकारी आप तक पहुंचा रहे हैं.

# क्या होता है इज्तेमा?

इज्तेमा तबलीग़ी जमात का एक बेहद ख़ास उपक्रम है, जो मुसलमानों को अपनी बेसिक शिक्षाओं की तरफ लौटने की दावत देता है. इज्तेमा तीन दिन का एक सम्मलेन टाइप होता है जिसमें मुसलमान भारी संख्या में शिरकत करते हैं. न सिर्फ आम मुसलमान बल्कि इस्लामिक स्कॉलर, आलीम वगैरह यहां इकट्ठे होते हैं. आलिमों की स्पीच होती है. जिसका सुर अमूमन यही होता है कि दुनिया को बदलने से पहले खुद को बदलिए. खुद को बेहतर बनाइए, दुनिया खुद ब खुद बेहतर हो जाएगी. कुल मिलाकर इस्लाम की बुनियादी शिक्षाओं के बारे में लोगों को रिमाइंडर दिया जाता है. रोज़े, नमाज़ की अहमियत समझाई जाती है.

# सबसे बड़ा इज्तेमा कहां होता है?

ये ज़रूरी नहीं है कि हर इज्तेमा ग्रैंड लेवल का ही हो. छोटे लेवल पर भी इज्तेमा का आयोजन होता है, जहां भीड़ की संख्या हज़ारों तक महदूद होती है. इंडिया का सबसे बड़ा इज्तेमा हर साल भोपाल में आयोजित होता है. जिसमें तकरीबन दस लाख लोग पहुंचते हैं. तो दुनिया का सबसे बड़ा इज्तेमा बांग्लादेश के ढाका में होता है. तुरग नदी के किनारे. इस इज्तमे में तकरीबन पचास लाख लोग शामिल होते हैं.
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# पैसा कहां से आता है?

इज्तेमा का तमाम आयोजन पब्लिक से हासिल चंदे के सहारे होता है. बकौल जिया-उस-सलाम साहब उत्तर भारत की तकरीबन 80 फीसदी मस्जिदों पर तबलीग़ी जमात का नियंत्रण है. इन मस्जिदों के ज़रिए या सीधे हासिल चंदा ही इज्तमे के तमाम खर्चे का भार उठाता है. इसके अलावा इज्तेमा में शामिल होने वाली जनता अपने रहने, खाने, सफर का खर्चा खुद उठाती है. बड़े इज्तमे में आयोजन स्थल पर हज़ारों की संख्या में वॉलंटियर्स होते हैं. ख़ास बात ये कि इनमें से कोई भी पेड वर्कर नहीं होता. सब स्वेच्छा से, दीन का काम समझकर अपनी सेवाएं देते हैं.

# दुआ का महत्व

इज्तमा का समापन दुआ से होता है. इस दुआ को बेहद ख़ास माना जाता है. जो लोग तीनों दिन इज्तमे में नहीं शामिल हो सकते उनकी कोशिश रहती है कि कम से कम दुआ में ज़रूर शिरकत करें. सामूहिक रूप से होने वाली इस दुआ में लोगों का बड़ा भरोसा होता है. अक्सर दुआ करते-करते स्पीकर और बड़ी संख्या में मौजूद जनता भी रोने लगती है.

# शिया या सुन्नी 

ये अक्सर देखा गया है इस्लाम की शिया और सुन्नी शाखाएं एक-दूसरे के आयोजनों से नदारद ही रहती हैं. इज्तमे में भी इसका अक्स नज़र आता है. चूंकि इज्तमे की दावत तबलीग़ी जमात अमूमन अपने नियंत्रण वाली मस्जिदों के द्वारा देती है, सो ज़्यादातर हुजूम सुन्नी समुदाय का ही होता है. हालांकि ऐसा नहीं है कि शियाओं को शामिल होने की मनाही हो. कोई चाहे तो बिंदास शामिल हो सकता है. आखिर इज्तेमा इस्लाम की बुनियादी सीख को ही एंडोर्स करता है, जिसमें कि शिया समुदाय का भी अक़ीदा होता ही है.
Pic: Dhaka Tribune
Pic: Dhaka Tribune

# क्या इज्तेमा सियासी गणित में फिट बैठता है?

नहीं. अमूमन इज्तेमा पूरी तरह एक धार्मिक आयोजन होता है. यहां अमूमन सियासी बातों से परहेज़ ही रखा जाता है. कुछेक इज्तेमा सोशियो-इकनॉमिकल इश्यूज पर भी होते हैं लेकिन उनमें बेहद कम लोगों की गैदरिंग होती है. उसका स्वरुप पब्लिक जलसे जैसा नहीं होता.
इज्तेमा इस्लाम के अनुयायियों को दीन की तरफ लौटने की सलाह देता है. बेसिकली इज्तेमा को मुसलमानों के लिए अपने मज़हब का रिफ्रेशर कोर्स कहा जा सकता है.