एक साधु भीख के लिए दरवाजा खटखटाता है. घर के लोग उसे दोपहर के खाने के लिए आमंत्रित करते हैं. यह सीन 1950 के दशक की किसी फिल्म से लिया लगता है. लेकिन यह बिल्कुल भी काल्पनिक या फिल्मी नहीं है. इंटेलिजेंस की एक रिपोर्ट के मुताबिक, साधु का नाम था शारदानंद. और उनके मेजबान थे डॉक्टर रमणी रंजन दास. यह साल 1959 में पं. बंगाल के कूचबिहार जिले में घटित हुआ. शारदानंद जब डॉक्टर दास के घर आए तभी से उनके होकर रह गए. दास ने अपने बूढ़े पिता के विरोध की अनदेखी करते हुए शॉलमारी में शारदानंद का आश्रम खुलवाने में भरपूर मदद दी. अपना काम छोड़कर वह पत्नी और दोनों बेटियों के साथ वहीं आश्रम में शॉलिमारी साधु शारदानंद की भक्ति में रम गए.
1960 के दशक तक यह किस्सा घर-घर में चर्चित हो चुका था. बंगला और अंग्रेजी भाषी शारदानंद महंगी सिगरेट पीते और उनसे मिलना किसी सरकारी उच्चाधिकारी से मिलने से कम थकाने वाला न होता. अफवाह थी कि यह शारदानंद दरअसल सुभाष चंद्र बोस थे.
इन अफवाहों से पं. बंगाल सरकार की नींद उड़ गई. शॉलिमारी आश्रम की आधिकारिक फाइलें, जो इंटेलिजेंस शाखा के डायरेक्टर के दफ्तर से जब भी आम होगीं, उसमें लोगों को एक बात जरूर खटकेगी.
शॉलिमारी राज की जांच करने वाले किसी भी भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी ने कभी इस पर न सवाल उठाया, न ही इस बात को खोजने की जरूरत समझी कि शारदानंद को सुभाष चंद्र बोस क्योंकर न समझा जाए. ऐसा लगता था कि जैसे पूरी सत्ता ने भारत सरकार के उस नजरिए को नकार दिया था. जिसके मुताबिक नेताजी की मृत्यु सन 1945 में हो चुकी थी.इस बात की जांच सितंबर 1961 में शुरू हुई. कूच बिहार के डिप्टी कमिश्नर जेके लाहिड़ी ने आसीएस एम एम बसु ( होम सेक्रेट्री, पं बंगाल ) को चिट्ठी लिखी. आश्रम पर पुलिस सख्त नजर रखे हुए है. पर अब तक साधु को पहचानना संभव नहीं हुआ है. काम अभी जारी है. यह बताना जरूरी है कि आश्रम सुर्खियों में नहीं है.

नेताजी सुभाष चंद्र बोस. Photo: Reuters
पर वह जल्द ही सुर्खियों में भी आ गया. वह इसलिए क्योंकि एक स्कूल टीचर राधेश्याम जायसवाल ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर सूचित किया कि शॉलिमारी साधु बना एक व्यक्ति खुद को सुभाषचंद्र बोस बताकर लोगों को गुमराह कर रहा था. जायसवाल ने यह भी कहा कि तथाकथित आश्रम एक विदेशी एजेंट का अड्डा था.
लाहिड़ी ने बसु को सूचित किया कि अभी तक साधु को पहचाना नहीं जा सका है. आश्रम के संचालन के लिए पैसा कहां से आता है. इस बात का भी कोई सुराग नहीं है. पुलिस सुपरिटेंडेंट के मुताबिक, अब दो विशिष्ट लोग आश्रम से जुड़ गए हैं .एक हैं श्री एससी मुखर्जी और दूसरे हैं श्री निहारेंदु दत्त मजूमदार. मुखर्जी एक रिटायर्ड आईसीएस अधिकारी थे. जबकि मजूमदार प्रदेश के पूर्व कानून मंत्री थे. सन 1954 में उन्होंने ही नेहरू से प्रार्थना की थी कि इस मामले की जांच करवाई जाए.
यह पूरा प्रकरण तब अपने चरम पर पहुंच गया जब सुभाष चंद्र बोस द्वारा बनाई गई आंदोलनकारी संस्था बंगाल वॉलंटियर्स के पूर्व सदस्य सत्य गुप्ता ने 13 फरवरी 1962 में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाकर बार-बार शारदानंद की असलियत की बात की. पर यह नहीं बताया कि दरअसल वह 1945 से अब तक कहां रहे?
मैं अपने गुरु को पहचानने में गलत नहीं हूं. इस बात में कोई शक नहीं है कि शॉलमारी साधु दरअसल नेता जी हैं. हरिपाद बसु ने भी गुप्ता की बात का सत्यापन किया. बसु आश्रम के संयुक्त सचिव थे. सभी लोग शारदानंद की तरफ प्रधानमंत्री का ध्यान आकर्षित करना चाहते थे. हरिपाद ने पंडित नेहरू को तार लिखकर सूचित किया कि उनके खोए हुए मित्र दरअसल शॉलमारी में थे.
हारकर आश्रम को स्वयं इस बात का स्पष्टीकरण देना पड़ा. 27 फरवरी को रमणी रंजन दास ने घोषणा की कि शॉलमारी आश्रम के संस्थापक न तो सुभाष चंद्र बोस हैं और न ही नेता जी से कभी उनका कोई नाता रहा है. हरिपाद को आश्रम से निकाल दिया गया. निहारेंदु मजूमदार ने अखबारों को बताया कि शारदानंद असाधारण थे, पर सुभाष नहीं थे.पुलिस की छानबीन जारी थी. 1 मार्च 1962 को गवर्नमेंट रेलवे पुसिस के सुपरिटेंडेंट केजी बोस ने अति गोपनीय रिपोर्ट पं. बंगाल सीआईडी के डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल पीके बसु को भेजी. रेलवे इंटेलिजेंस अधिकारी अब इन्हीं तथ्यों के आधार पर आगे जांच करेंगे, ऐसा तय हुआ. हरिपाद के रुख परिवर्तन की कहानियां अप्रैल में प्रकाशित हो गईं. 2 अप्रैल को छपी खबर में बताया गया कि दमदम कोलकाता में उन्होंने घोषणा की कि शारदानंद ही सुभाष थे.

कांग्रेस की एक बैठक में नेहरू के साथ नेताजी.
उन्होंने यह भी कहा कि नेताजी के बारे में लोगों को न बताने का एक षडयंत्र चल रहा था. उनके अनुसार इसी षडयंत्र का शिकार बने थए भारतीय वायुसेना प्रमुख सुब्रत मुखर्जी, जिन्होंने खुद जापान इस राज को सुलझाने की कोशिश की थी. फिर अचानक इसी हरिपाद ने 14 अप्रैल को सबसे कहा कि वह समझ गए थे कि साधु बाबा नेता जी नहीं थे. इसी जगह दत्त मजूमदार ने शाहनवाज-मैत्रा रिपोर्ट को खारिज करते हुए यह विश्वास जताया कि नेताजी अब भी कहीं पर जीवित हैं. उन्होंने कहा कि वह शारदानंद से मिले थे और वह हालांकि सुभाष जैसे दिखते हैं, पर वह नेता जी नहीं थे.
पर पुलिस अब पक्के सबूत के लिए हाथ की लिखावट मिलाने पर उतारू हो चुकी थी. 23 अप्रैल को पं. बंगाल में विशेष अधीक्षक रहे एसके सिन्हा ने सीआईडी के विशेष अधीक्षक जे मुखर्जी से यह प्रार्थना की कि वह लिखावट मिलाने के लिए आदेश जारी करें. साथ ही, शारदानंद के हस्तलेख के दो कागज भी उन्हें दिए. क्योंकि पुलिस के पास नेताजी की लिखावट का कोई नमूना नहीं था ही नहीं, इसलिए मजबूरन अखबार में छपी एक रिपोर्ट का हवाला लिया गया. जिसमें नेता जी का हस्तलिखित पत्र भी छपा था. विशेषज्ञ का मानना था कि बिना असली लिखावट मिलाए इस तरीके से किसी भी नतीजे पर पहुंचना मुमकिन न था. पर फिर भी दोनों लिखावटों में अंतर उसे साफ दिख रहा था.
तीन दिन बाद प्रदेश सरकार ने शॉलमारी घटना पर एक प्रेस वक्तव्य जारी किया. यह जरा अजीब था क्योंकि शाहनवाज कमेटी के नतीजों के मान्य होने के बावजूद अधिकारी यह कह ही नहीं पा रहे थे कि सुभाष का निधन हो चुका है और शारदानंद को नेताजी साबित की कवायद ही गलत है.
जहां तक सरकार का प्रश्न है, श्रीमंत शारदानंद जी से कोई मुलाकात हुई ही नहीं है. ऐसे में कुछ भी कह पाना संभव नहीं है. हालांकि शारदानंद जी से सीधा संपर्क न होने के कारण इस मुद्दे को सुलझाना आसान नहीं है, पर हम पं. बंगाल की जनता से अपील करते हैं कि वह इस मुद्दे पर न तो गुटबाजजी करें और ही कानून व्यवस्था के लिए मुश्किल खड़ी करें .
26 अप्रैल को इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस को यह खबर मिली कि शॉलमारी में आने वाले एक शख्स थे- स्वयं शाहनवाज खान. दो अज्ञात व्यक्तियों ने मुझे सहगल और शाहनवाज (आजाद हिंद फौज के अधिकारी) की फोटो दिखाई. यह दोनों शॉलमारी के पास किसी दत्ता के घर आए थे. इनके अनुसार बीपीसीसी के पूर्व सचिव श्री अशरफुद्दीन अहमद भी कुछ समय पहले यहां आए थे.
इंटेलिजेंस रिपोर्ट आती रहीं. इस मामले को सुलझाने की कोशिश करने वाले आईपीएस अधिकारियों में एक थे निरूपम सोम. यह सुभाष की बड़ी बहन के पोते थे. 2 मई 1962 को कोलकाता के पुलिस आयुक्त की हैसियत से सोम ने सत्य गुप्ता से अपनी मुलाकात का ब्यौरा भेजा. वह गुप्ता के बयान और शपथ से संतुष्ट नहीं थे. वह बचकाने कारण दे रहे थे. बात भी अस्पष्ट कर रहे थे.

नेताजी रिसर्च ब्यूरो, कोलकाता में लगी है ये तस्वीर. Photo: Reuters
जुलाई में इस कथा में एक नया पात्र जुड़ा. यह थे उत्तम चंद मल्होत्रा. उन्होंने सन 1941 में सुभाष के भागने में अहम भूमिका निभाई थी. और अब यह हरिपाद और सत्य गुप्ता की जगह आ गए थे. शारदानंद से मिलकर मल्होत्रा को यकीन हो गया था कि वह नेताजी ही थे. और इसके बाद एक दशक लंबा प्रचार चला, एक नया गुट बना, सुभाषबाड़ी जनता. बंगाल वॉलंटियर्स के पुराने सहकर्मी हीरा लाल दीक्षित भी इस मुहिम में आ जुड़े थे.
स्वयं शारदानंद को यह प्रचार जरा भी नहीं भाया. 17 नवंबर 1962 को भेजे गए एक रेडियोग्राम के अनुसार निरूपम सोम ने बताया कि एक दिन पहले ही शारदानंद टैक्सी में नेशनल हाईवे पर जा रहे थे, जब सुभाषबाड़ी जनता के कुछ सदस्यों ने नेता जी जिंदाबाद की पुकार के साथ उनका स्वागत किया. जवाब में साधु ने उन्हें गंदी गालियां दीं. सोम ने यह खबर पं. बंगाल के इंटेलिजेंस प्रमुख को भेजी थी.
सन 1963 में नई दिल्ली में फिर इस मामले ने तूल पकड़ा. राज्यसभा में अटल बिहारी वाजपेयी ने 22 अगस्त को इस ओर प्रधानमंत्री का ध्यान आकृष्ट करते हुए पूछा, कुछ लोग और स्वयं स्थापित संस्थाएं इस मामले का प्रचार कर तो रहे हैं, पर क्या इसकी जांच हुई है? नेहरू ने उत्तर दिया, हम जानते हैं कि ऐसा प्रचार किया जा रहा था. पर अब यह खत्म हो चुका है. पं. बंगाल सरकार और हमारी छानबीन से यह साफ है कि स्वामी शारदानंद नेताजी सुभाषचंद्र बोस नहीं हैं और वह खुद भी इस बात से इनकार करते हैं .ऐसी ही एक खोजबीन की थी राज्यसभा सदस्य सुरेंद्र मोहन घोष और जलपाईगुड़ी के संसद सदस्य एन आर घोष ने. यह जांच नेहरू के व्यक्तिगत निर्देशों पर की गई थी. 11 सितंबर 1962 को सुरेंद्र घोष शॉलमारी आश्रम पहुंचे और शारदानंद से मिले. घोष ने उनसे पूछा कि वह संन्यासी बनने से पहले क्या थे? जवाब था, मैं अपने पूर्वाश्रम की पहचान नहीं बता सकता, पर लोग ऐसी गलती क्यों कर रहे हैं, आप खुद देख सकते हैं कि मैं नेताजी नहीं हूं. क्या कोई मुझे नेता जी समझसकता है?
घोष ने कहा, जो नेता जी से मिला हो, उन्हें जानता हो, वह तो कभी नहीं समझ सकता. शारदानंद ने हामी भरी और कहा, कोई भी अपने पिता को नहीं नकारता. मैं सत्य गुप्ता को बता चुका हूं कि जानकी नाथ बोस मेरे पिता नहीं हैं.
अब घोष को इस कल्पित कथा में चीन और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया का हाथ नजर आ रहा था. उन्होंने शारदानंद से कहा. तीन साल पहले जब आप यहां आए तो अफवाह थी कि आप नेता जी हैं. मुझे जैसे ही यह पता लगा, मैंने सबको चौकन्ना कर दिया कि शायद चीन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के जरिए यह अफवाह उड़ा रहा है, ताकि एक सही मौके पर वह भारत पर धावा बोल सके.4 अक्टूबर 1962 को घोष ने नेहरू को एक रिपोर्ट भेजी, जिसका प्रस्तावना पत्र चापलूसी से ओतप्रोत था. इसमें नेहरू को राम, कृष्ण और बुद्ध के समकक्ष रखा गया था. रिपोर्ट का निष्कर्ष था कि यह व्यक्ति सुभाष नहीं है.
तो यह शॉलमारी साधु था कौन? पं बंगाल सरकार की एक गोपनीय फाइल में इसका जवाब है. पुलिस अधीक्षक (कूच बिहार) अशोक चक्रबर्ती सन 1961 में इस आश्रम में गए ताकि वह शारदानंद की पहचान खोज सकें. उनकी जांच के नतीजे इंटेलिजेंस ब्रांच के आईजीपी पीके बसु को भेजे गए.
मुझे इस साधु के बारे में कुछ गोपनीय सूचना मिली है. प्राप्त सूचना के अनुसार यह साधु विगना, मेहर, विक्टोरिया कॉलेज के श्री जतिन चक्रबर्ती हैं. वे रेवल्यूशनरी पार्टी के सदस्य थे. उन पर कौमिला के जिलाधिकारी श्री डेविस की हत्या का आरोप लगा था और तब से ही वह भागे हुए हैं. वे चेन स्मोकर थे और अनुशीलन पार्टी से जुड़े हुए थे. यह साधु भी चेन स्मोकर हैं. उन्हें जानने वाले एक व्यक्ति ने इन्हें तुरंत पहचान लिया. इन्हें देखने पर उसने इन्हें जति दा कहकर पुकारा. साधु भी भावुक हो उठे थे.
अगर शॉलमारी का सच यही है, तो उन्हें सुभाष चंद्र बोस की तरह प्रचलित करने का क्या मतलब हुआ? जल्दी ही यह अफवाह उड़ी कि शायद यह सरकारी तिकड़म थी, ताकि लोग भ्रमित हो जाएं और नेताजी के रहस्य की ओर उनका ध्यान हट जाए. यह बात खास तरीके से मानने वालों में सुभाष के भतीजे और स्वतंत्रता सेनानी द्विजेंद्र नाथ बोस का नाम सबसे ऊपर था.द्विजेंद्र को सबसे बड़ा झटका तब लगा जब शॉलमारी आश्रम में उनकी मुलाकात इंटेलिजेंस ब्यूरो के निर्देशक बीएन मलिक से हुई. साथ में थे सेवानिवृत्त अधिकारी जीके हांडू, जो कभी विदेश मंत्रालय में जासूसों का पता लगाने की जिम्मेदारी निभाते थे.
द्विजेंद्र के अनुसार, साधुओं के नाम पर लोगों को मूर्ख बनाया जा रहा है, आज नेताजी के नाम पर तीन साधु घूम रहे हैं. दरअसल यह सब सरकारी खर्च पर ये अफवाहें फैला रहे हैं. द्विजेंद्र का साथ दिया पत्रकार बरुन सेन गुप्ता ने. सेनगुप्ता की जांच के अनुसार यह शॉलमारी साधु इंटेलिजेंस ब्यूरो की चाल थी.

किताब का कवर पेज.
यह अंश नेता जी रहस्य गाथा नाम की किताब से लिए गए हैं. यह किताब India's biggest cover up का हिंदी अनुवाद है. इसके राइटर हैं अनुज धर. धर नेता जी की मौत से जुड़े रहस्यों की वर्षों से छानबीन कर रहे हैं. नेता जी रहस्य गाथा किताब को वितस्ता प्रकाशन ने छापा है. इसके पेपरबैक एडिशन की कीमत है 350 रुपये.