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अमेरिका में एक मेडिकल प्रोफ़ेशनल ने कोरोना की वैक्सीन के 500 से ज़्यादा डोज़ बर्बाद क्यों कर दिए?

गिरफ़्तार होने के बाद पुलिस को बताई सच्चाई.

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स्टीवन के द्वारा बर्बाद की गई वैक्सीन 57 लोगों को लगाई जा चुकी थी.
फिलवक़्त दुनिया की सबसे बड़ी चिंता है, कोरोना. सबने पूछा, क्या तरीका है इसे रोकने का? जवाब मिला, वैक्सीन. अगर किसी देश की मोटा-माटी 70 पर्सेंट आबादी को वैक्सीन लग गया, तो हम इस महामारी को ख़त्म कर सकते हैं.

मेडिकल कंपनियों ने बड़ी फ़ुर्ती दिखाई. वैक्सीन बनाने की जिस प्रक्रिया में सालों लगते थे, उसे महीनों में पूरा कर लिया. वैक्सीन बन तो गई, मगर अब अगली चुनौती आई उत्पादन की. दुनिया को वैक्सीन के करोड़ों-करोड़ डोज़ चाहिए. इतने डोज़ बनाने के लिए समय चाहिए और वही हमारे पास नहीं है. इस चुनौती से निपटने के लिए अलग-अलग देश अपने स्तर पर प्लानिंग कर रहे हैं. मसलन, अमेरिका.

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बीते रोज़ वहां से एक ख़बर आई. पता चला कि वहां 'फूड ऐंड ड्रग अडमिनिस्ट्रेशन' विभाग मॉडर्ना वैक्सीन की एक डोज़ को फ़िफ़्टी-फ़िफ़्टी करने की सोच रहा है. ताकि एक डोज़ से दो लोगों का वैक्सीनेशन हो सके. इसी रोज़ अमेरिका से एक और ख़बर आई. पता चला कि वहां एक सिरफ़िरे ने वैक्सीन के दर्ज़नों डोज़ ख़राब कर दिए. इस तरह ख़राब किए कि वो वैक्सीन जिसे लगाई जाए, उसे टीके का कोई फ़ायदा न हो. उसने क्यों की ये मूर्ख़ता? क्यों उसने वैक्सीन के सैकड़ों डोज़ बर्बाद कर दिए? ये क्या मामला है, विस्तार से बताते हैं आपको.
आज शुरुआत करेंगे एक 22 साल पुराने क़िस्से से. मेडिकल रिसर्च की एक बड़ी प्रतिष्ठित पत्रिका है, द लेनसेट. 1998 के साल इस लेनसेट जर्नल में एक शोध छपा. इस रिचर्स पेपर को छापा था, ऐंड्रू वेकफ़ील्ड नाम के एक डॉक्टर ने. उसने अपने पेपर में कुछ बच्चों की केस स्टडी छापी थी. इस केस स्टडी के आधार पर उसने एक सनसनीखेज़ दावा किया. बताया कि एक वैक्सीन है, जो बच्चों में ऑटिज़म पैदा करती है.
ये ऑटिज़म क्या होता है? आपने अनुराग बासु की बर्फ़ी फिल्म देखी है? उसमें प्रियंका चोपड़ा का कैरेक्टर झिलमिल याद है आपको? वो ठीक से बोल नहीं पाती. भीड़ में बौखला जाती है. डरी-डरी रहती है. फ़िल्म में प्रियंका को ऑटिस्टिक दिखाया गया है. माने ऐसा इंसान, जिसमें ऑटिज़म नाम का एक डिसॉर्डर हो. ये एक बेहद गंभीर डिसॉर्डर है, जो नर्वस सिस्टम पर असर करता है. इंसान के इमोशनल, सोशल और फ़िजिकल हेल्थ को नुकसान पहुंचाता है. उसकी संज्ञानात्मक, यानी चीजों को समझने की शक्ति कुंद कर देता है.
बर्फ़ी में प्रियंका चोपड़ा का किरदार.
बर्फ़ी में प्रियंका चोपड़ा का किरदार.


ऐंड्रू वेकफ़ील्ड ने दावा किया कि MMR वैक्सीन बच्चों को ऑटिस्टिक बनाती है. MMR माने मीज़ल्स, मंप्स और रुबेला संक्रमण को रोकने वाला टीका. ऐंड्रू ने अपनी स्टडी में बहुत छोटा सैंपल साइज़ लिया था. केवल आठ बच्चों पर आधारित था उसका पेपर. इसके अलावा उसकी फाइंडिंग को लेकर भी कई शंकाएं थीं. बावजूद इसके इस रिसर्च पेपर ने डायनाइमट का काम किया. बड़ी पब्लिसिटी मिली इसे. जनता हदस गई. बड़ी संख्या में लोगों ने अपने बच्चों को MMR वैक्सीन लगवाना बंद कर दिया. MMR वैक्सिनेशन की दर गिर गई. ऐसे मां-बाप उठ खड़े हुए, जिनका कहना था कि उनका बच्चा MMR वैक्सीन लगवाए जाने के पहले तक बिल्कुल ठीक था. वैक्सीन लगवाने के बाद उसको ऑटिज़म हो गया.
इस पेपर ने सरकारी स्वास्थ्य महकमे और हेल्थ एक्सपर्ट्स को बदहवास कर दिया. ब्रिटिश सरकार ने फ़ौरन जांच बिठाई. MRC, यानी मेडिकल रिसर्च काउंसिल ने कहा कि उन्हें MMR और ऑटिज़म में कोई लिंक नहीं मिला है. मगर वेकफ़ील्ड अपनी फाइंडिंग पर अड़ा रहा. फिर आया 2004 का साल. इस बरस वेकफ़ील्ड से जुड़ी एक सनसनीखेज़ जानकारी सामने आई.
पता चला कि वेकफ़ील्ड को अपनी रिसर्च के लिए 'लीगल ऐड बोर्ड' नाम के एक संगठन से फंडिंग मिली थी. ये लीगल ऐड बोर्ड, वकीलों का एक ग्रुप था. ये वकील वैक्सीन बनाने वाली कुछ कंपनियों के साथ केस लड़ रहे थे. मुआवज़े पाने के लिए इन्हें सबूत चाहिए था कि उन कंपनियों की बनाई वैक्सीन के चलते उनके क्लाइंट्स के बच्चों को ऑटिज़म हुआ. और यही सबूत गढ़ने के लिए उन्होंने पैसे देकर वेकफ़ील्ड से वो रिसर्च पेपर लिखने को कहा. सोचिए, उन वकीलों ने वेकफ़ील्ड के साथ मिलकर कितना बड़ा स्कैम किया था. इसके बाद लेनसेट ने वेकफ़ील्ड के उस रिसर्च पेपर को खारिज़ कर दिया. वेकफ़ील्ड का मेडिकल लाइसेंस छीन लिया गया.
MMR वैक्सीन को लेकर भ्रांति फैलाने वाले ऐंड्रयू वेकफ़ील्ड.
MMR वैक्सीन को लेकर भ्रांति फैलाने वाले ऐंड्रयू वेकफ़ील्ड.


क्या इतना करके वेकफ़ील्ड के किए डैमेज़ की भरपाई हो गई? नहीं, सोसायटी का एक तबका हमेशा ही वेकफ़ील्ड को हीरो मानता रहा. उनको लगता था, वेकफ़ील्ड को सच बोलने की सज़ा मिली है. उसे फंसाया गया है, झूठे इल्ज़ाम लगाए गए हैं. और ये सब हुआ है, एक बड़ी साज़िश के चलते. वो साज़िश, जिसका नाम है वैक्सीन.
दुनियादारी के एक एपिसोड में हमने आपको वैक्सीन से जुड़ी शंकाएं विस्तार से बताई थीं. हमने आपको बताया था कि वैक्सीन के विरोध की मानसिकता, वैक्सीन के इतिहास जितनी ही पुरानी और समानांतर है. कोई धार्मिक कारण से वैक्सीन का विरोध करता है. कोई कन्सपिरेसी थिअरीज़ पर यकीन करके वैक्सीन को सरकार और मेडिकल कंपनियों की साज़िश मानता है. और इसी वजह से पिछले करीब सवा दो सौ साल से दुनिया वैक्सीन कन्सपिरेसी थिअरिस्ट्स से जूझ रही है. ये लोग समूचे पब्लिक हेल्थ सिस्टम को नुकसान पहुंचा रहे हैं. ऐसा नहीं कि इसमें निरक्षर और कम पढ़े-लिखे लोग ही शामिल हों. कई तीसमारखां, जीनियस लोग भी वैक्सीन से जुड़ी अफ़वाहों पर यकीन करते आए हैं, कर रहे हैं. मसलन, 1944 की एक घटना सुनिए.
आयरलैंड का एक अख़बार है- दी आयरिश टाइम्स. 1944 में इस अख़बार को 90 साल के बुजुर्ग की भेजी एक चिट्ठी मिली. इसमें वैक्सीन के प्रति लोगों को आगाह करते हुए लिखा गया था-

टीकाकरण एक ख़तरनाक और बेहद अवैज्ञानिक क्रिया है. ये जादूटोने से जुड़ी एक घिनौनी क्रिया है. समझदार लोग अपने बच्चों को वैक्सीन नहीं लगवाते. क्योंकि चेचक से जितनों की जान जाती है, उससे ज़्यादा लोग टीकों से मरते हैं.

पता है, आयरिश टाइम्स को ये चिट्ठी किसने भेजी थी? उस आदमी ने, जिसे 19वीं और 20वीं, दोनों सदी के सबसे जीनियस माइंड्स में गिना जाता था. जिसे नोबेल भी मिला था और ऑस्कर भी. इस आदमी का नाम था, जॉर्ज बर्नार्ड शॉ. बर्नार्ड शॉ इस कैटगरी के अकेले मशहूर नाम नहीं हैं. लियो टॉल्स्टॉय, फ्रेडरिक डगलस जैसे मशहूर लोग भी वैक्सीन विरोधी थे.
मशहूर लेखक जॉर्ज़ बर्नार्ड शॉ भी वैक्सीन के ख़िलाफ़ थे.
मशहूर लेखक जॉर्ज़ बर्नार्ड शॉ भी वैक्सीन के ख़िलाफ़ थे.


आप पूछ सकते हैं कि हम आज ये सब क्यों बता रहे हैं आपको? याद कीजिए, एपिसोड की शुरुआत में हमने अमेरिका से आई एक ख़बर का ज़िक्र किया था. बताया था कि वहां एक आदमी ने मॉडर्ना वैक्सीन के कई डोज़ बर्बाद कर दिए. 46 साल के उस शख्स का नाम है, स्टीवन ब्रैन्डनबर्ग. विस्कॉन्सिन शहर में ऑरोरा मेडिकल सेंटर नाम का एक अस्पताल है. इसी में फ़ार्मासिस्ट था स्टीवन. मतलब, दवा बनाने और बांटने के लिए क्वॉलिफ़ाइड प्रफेशनल. अमेरिका ने मॉडर्ना की बनाई कोरोना वैक्सीन को अप्रूवल दिया है. वहां अस्पतालों में वैक्सीन लगाने का काम शुरू भी हो चुका है.
इसी वैक्सीनेशन ड्राइव के तहत ऑरोरा मेडिकल सेंटर में भी वैक्सीन्स की खेप आई थी. स्टीवन की नाइट ड्यूटी हुआ करती थी. ये 2020 के आख़िरी हफ़्ते की बात है. क्रिसमस की छुट्टियों के चलते अस्पताल में स्टाफ़ कम था. ऐसे में स्टीवन ने क्या किया कि रात के समय चुपके से वैक्सीन्स को रेफ्ऱिजरेशन से निकालकर रूम टेम्परेचर पर छोड़ दिया. वो रातभर वैक्सीन्स को रूम टेम्परेचर पर रखता और सुबह चुपके से वापस उन्हें रेफ़्रिजरेट कर देता. उसने 24 और 25 दिसंबर, यानी लगातार दो रात तक यही किया.
इससे नुकसान क्या हुआ? वैक्सीन को स्टेबल रखने के लिए उसे एक तय तापमान में स्टोर करना होता है. इसीलिए वैक्सीन्स को रेफ़्रिजरेशन कंपार्टमेंट में रखा जाता है. रूम टेम्परेचर पर रखने से वैक्सीन के MRNA मॉलिक्यूल्स क्षतिग्रस्त हो जाते हैं. इस वजह से वैक्सीन का असर ख़त्म हो जाता है. वो शरीर में जाकर अपना काम नहीं करती. स्टीवन यही चाहता था. अब सवाल है कि स्टीवन ये चाहता क्यों था? क्योंकि वो वैक्सीन से जुड़ी साज़िशाना बातों में यकीन करता था. उसका मानना था कि वैक्सीन ख़तरनाक होते हैं. लोगों को नुकसान पहुंचाते हैं. उनका DNA बदल देते हैं.
एक मेडिकल प्रोफ़ेशनल कॉन्सिपरेसी थ्योरीज़ को सच मान बैठा और उसने वैक्सीन की सैकड़ों खुराक बर्बाद कर दीं.
एक मेडिकल प्रोफ़ेशनल कॉन्सिपरेसी थ्योरीज़ को सच मान बैठा और उसने वैक्सीन की सैकड़ों खुराक बर्बाद कर दीं.


अपनी इस अवैज्ञानिक धारणा के चलते स्टीवन ने वैक्सीन के 570 डोज़ ख़राब कर दिए. रुपयों में बताएं, तो इनकी कीमत थी तकरीबन नौ लाख रुपये. मगर पैसों से इतर इन वैक्सीन्स की असली वर्थ थी, 570 लोगों को कोरोना से सुरक्षित करना. अगर अमेरिका में चल रही ताज़ा प्लानिंग के मुताबिक एक डोज़ से दो लोगों को वैक्सीनेट करने वाला हिसाब देखिए, तो इतने डोज़ से 1,140 लोग वैक्सीनेट किए जा सकते थे. हर एक वैक्सीनेटेड इंसान कोरोना के चल रही लड़ाई में हमारे हाथ मज़बूत करेगा. हमें हर्ड इम्युनिटी के करीब पहुंचाएगा. इस हिसाब से सोचिए कि स्टीवन ने कितना बड़ा नुकसान किया है.
अस्पताल को शुरुआत में स्टीवन के अपराध की ख़बर नहीं थी. उन्होंने तो उन्हीं ख़राब हो चुके वैक्सीन्स से 57 लोगों को टीका भी लगा दिया था. बाद में जब स्टीवन के किए की जानकारी मिली, तो उन्होंने पुलिस को ख़बर दी. 31 दिसंबर को स्टीवन की गिरफ़्तारी हुई. अब 5 जनवरी को पुलिस ने बताया कि स्टीवन ने कन्सपिरेसी थिअरी के चलते वैक्सीन ख़राब करने की बात कबूली है.
स्टीवन अकेला अपराधी नहीं है. इस मामले में असली दोषी हैं, वैक्सीन से जुड़ी कन्सपिरेसी थिअरीज़. क्या धारणाएं हैं वैक्सीन कन्सपिरेसी थिअरीस्ट्स की? वैक्सीन के विरोध का इनका आधार क्या है? इस सवाल का कोई एक जवाब नहीं. इसकी वजह मनोविज्ञान भी है और इंस्टिट्यूशनल फेलियर भी. कई बार हमारी संस्थाएं लोगों के भीतर साइंटिफ़िक अप्रोच पैदा नहीं कर पातीं. वो साइंस और मेडिकल विज्ञान के प्रति सशंकित रहते हैं. ऐसे में जब ऐंड्रू वेकफ़ील्ड जैसे एक्सपर्ट्स रिसर्च के नाम पर वैक्सीन के कथित साइड-इफ़ेक्ट बताते हैं, तो पहले से ही शंकित तबका अपने पूर्वाग्रहों को और मज़बूत कर लेता है. फिर चाहे आप उन्हें कितने भी फैक्ट्स पकड़ा दो, वो यकीन नहीं करता. ये एक हद तक इंस्टिट्यूशनल फेलियर है.
स्टीवन ने 24-25 दिसंबर की रात वैक्सीन को बाहर रख दिया था.
स्टीवन ने 24-25 दिसंबर की रात वैक्सीन को बाहर रख दिया था.


दूसरा कारण मनोवैज्ञानिक है. कैसे, बताते हैं. हम सब जानते हैं कि धरती गोल है. ये सत्यापित बात है. हमने धरती की सैटेलाइट तस्वीरें देखी हैं. फिर भी कई लोग अब भी धरती को फ्लैट समझते हैं. उनका कहना है कि धरती के गोल होने की बात नासा और बाकी सरकारी एजेंसियों द्वारा फैलाया गया झूठ है. आप इंटरनेट पर सर्च कीजिए. आपको वहां कई फ्लैट अर्थ सोसायटीज़ मिल जाएंगी. अब बताइए, उनकी भ्रांति कैसे दूर की जाए? जो लाख तथ्य रखने पर भी सच को सच न माने, उसका कोई इलाज़ नहीं. उसकी दिक्कत मनोवैज्ञानिक है. ऐसे लोग स्वाभाविक रूप से ही कन्सपिरेसिस्ट होते हैं. वो अवैज्ञानिक बातों को ज़्यादा गंभीरता से लेते हैं.
यही दिक्क़त है, वैक्सीन कन्सपिरेसी थिअरीस्ट्स की. कभी ऑटिज़म की अफ़वाह. कभी वैक्सीन से नपुंसक हो जाने की भ्रांति. कभी ये समझना कि वैक्सीन के बहाने किसी एक नस्ल या धर्म के लोगों का DNA बदल दिया जाएगा. आपको पता है, 2009-2010 के टाइम अफ़गानिस्तान और पाकिस्तान में एक 'बिन लादेन वैक्सीन' की अफ़वाह थी. उन दिनों वहां हैपेटाइटिस बी का टीकाकरण प्रोग्राम चल रहा था. अफ़वाह उड़ी कि ये दरअसल CIA की साज़िश है. वो लादेन की लोकेशन खोजने के लिए वैक्सीन के बहाने लोगों का DNA सैंपल जमा कर रहा है.
लादेन को पकड़ने के लिए CIA ने चलाया था फ़ेक वैक्सीनेशन प्रोग्राम.
लादेन को पकड़ने के लिए CIA ने चलाया था फ़ेक वैक्सीनेशन प्रोग्राम.


कई बार सरकारें भी अफ़वाहें फैलाती हैं. दुश्मन देश का स्वास्थ्य ढांचा कमज़ोर करने, वहां पब्लिक के मन में अपनी सरकार और संस्थाओं के प्रति शंका पैदा करने के लिए वैक्सीन के प्रति अफ़वाहें फैलाई जाती हैं. रूस पर लंबे समय से ये इल्ज़ाम लगता आया है. इल्ज़ाम है कि उसने न केवल अमेरिकन जनता में वैक्सीन से जुड़ी अफ़वाहें फैलाईं. बल्कि अफ़्रीका और भारत जैसे देशों में भी वैक्सीन से जुड़े फ़ेक न्यूज़ कैंपेन चलाए. इससे जुड़ा एक चर्चित प्रकरण आपको बताते हैं.
जर्मनी में जैकब सीगल नाम के बायोफ़िजिस्ट थे. 1986 में उन्होंने एक आर्टिकल लिखा. इसका दावा था कि एड्स दरअसल एक जैविक हथियार है. इसे अमेरिकी सेना के फोर्ट डेट्रिक बायोलॉज़िकल लैब में तैयार किया गया. 1970 के दशक में इस लैब के भीतर एक दुर्घटना हुई और ग़लती से एड्स का वायरस लीक हो गया. सीगल के इस आर्टिकल से तहलका मच गया. 70 से भी ज़्यादा देशों के अख़बारों ने इसे कवरेज़ दी.
सीगल का ये दावा निराधार था. वैज्ञानिकों ने इसे खारिज़ कर दिया. इसके बावजूद इस थिअरी को लोगों ने हाथों-हाथ लिया. सीगल की ये थिअरी कोल्ड वॉर का भी एक अहम हथियार बनी. सोवियत संघ की ख़ुफिया एजेंसी KGB और पूर्वी जर्मनी की सीक्रेट सर्विस स्टासी ने इसका इस्तेमाल करके अमेरिका के खिलाफ़ बहुत बड़ा दुष्प्रचार अभियान चलाया. इसे दुनिया के सबसे कामयाब डिसइनफ़ॉर्मेशन कैंपेन्स में गिना जाता है. 1992 में ख़ुद रूस ने इस प्रोपोगैंडा कैंपेन की बात कबूली थी. मगर क़बूलनामे से क्या होता है? उस दुष्प्रचार का असर तो अब भी बना हुआ है. उसके चलते अफ़्रीका जैसे देशों में अब भी वैक्सीन को लेकर लोग सशंकित रहते हैं. पोलियो जैसे वैक्सीन देने के लिए भी सरकार को ज़बर्दस्ती करनी पड़ती है.
कोरोना के दौर में वैक्सीन से जुड़ी अफ़वाहों ने और सिर उठाया है. कोई कह रहा, 5जी के चलते कोरोना फैला. इस भ्रांति के चलते ब्रिटेन समेत कई जगहों पर लोगों ने 5जी टावर पर हमले किए. कइयों ने कोरोना को प्लैनडैमिक कहा. यूट्यूब जैसे प्लेटफ़ॉर्म्स पर इससे जुड़े विडियोज़ की बाढ़ आ गई. इनमें कोरोना को सरकारों और दवा कंपनियों की सुनियोजित साज़िश बताया जाता. कई फ़र्जी मेडिकल एक्सपर्ट्स भी सामने आए. उन्होंने कहा कि फेस मास्क मत लगाओ, इससे वायरस ऐक्टिवेट हो जाते हैं. मास्क का विरोध करने वाले बहुतायत लोग ऐसे ही वाहियात शोधों का हवाला देते हैं.
बिल गेट्स से जुड़ी अफ़वाहें भी सोशल मीडिया पर वायरल हैं.
बिल गेट्स से जुड़ी अफ़वाहें भी सोशल मीडिया पर वायरल हैं.


कोरोना से जुड़ी एक बड़ी अफ़वाह बिल गेट्स से भी जुड़ी है. सर्वे रिपोर्ट्स के मुताबिक, अकेले अमेरिका में ही करीब 28 पर्सेंट लोग मानते हैं कि कोरोना बिल गेट्स की तैयार की गई साज़िश है. ताकि बीमारी के नाम पर वैक्सीन लगाने का मौका मिले और वैक्सीन के बहाने लोगों के शरीर में माइक्रोचिप लगाई जा सके. अरबों लोगों के पल-पल की मूवमेंट को ट्रैक किया जा सके.
हमने कुछ महीने पहले न्यू यॉर्क टाइम्स में एक आर्टिकल पढ़ा था. इसमें एक प्रफ़ेसर ने अपनी आपबीती लिखी थी. बताया था कि वो इलाज़ के लिए एक डॉक्टर के पास गए. उस डॉक्टर ने बताया कि कोरोना बिल गेट्स के शैतानी दिमाग की साज़िश है. उस डॉक्टर ने आगे कहा कि हेल्थ सेक्टर में होने की वजह से उसे शुरुआती दौर में ही वैक्सीन मिल जाएगा. मगर वो वैक्सीन लगाएगा नहीं, उसे अपने फ्रीज़ में रख देगा. महीनों बाद जब दुनिया में लाखों लोगों का वैक्सीनेशन हो चुका होगा और अगर वो सुरक्षित रहेंगे, तब ही वो वैक्सीन लगाएगा.
सोचिए, ये कितनी ख़ौफ़नाक स्थिति है. एक डॉक्टर अपने मरीज़ के मन में निराधार आशंकाएं भर रहा है. उसे वैक्सीन न लगवाने के लिए प्रेरित कर रहा है. ऐसे लोग आपको अपने आसपास भी मिल जाएंगे. इनसे सावधान रहिएगा. क्योंकि इनकी मूर्खता हमारे समूचे हेल्थ सिस्टम के लिए ख़तरा है.

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