होता क्या है कि इंसान बीमार पड़ते हैं और फिर मर जाते हैं. यही प्रॉसेस है. लेकिन इस प्रॉसेस के बीच हर कोई चमत्कार की उम्मीद करता है. सोचता है कि दवाई कुछ ऐसा असर कर जाए कि एकदम चंगे हो जाएं. ये दवाइयां बड़ी उम्मीद वाली चीज होती हैं, लेकिन इनके बनने का प्रॉसेस उतना ही दर्दनाक होता है. कभी इंसानों, तो कभी जानवरों पर टेस्ट किया जाता है. सालों तक एक्सपेरिमेंट चलता है. तब जाकर दवाई बाजार में आती है. जानवर वाले प्रॉसेस के बारे में ज्यादा जानना हो, तो आनंद गांधी की फिल्म 'शिप ऑफ थीसियस' देखिए. उसमें एक जैन संन्यासी होता है, जो जानवरों पर दवाओं की टेस्टिंग के खिलाफ है और इसी वजह से लिवर सिरॉसिस जैसी बीमारी होने पर भी दवाई नहीं खाता.
'गुप्त रोगों' के इलाज के नाम पर की गई वो क्रूरता, जिसे हमेशा छिपाया गया
प्रेगनेंट औरतों, बीमार पुरुषों और अनाथ बच्चों के साथ अंग्रेज और अमेरिकी करते थे जघन्य हरकत.


यहां हम बात करेंगे इंसानों पर होने वाली टेस्टिंग की. अमेरिका की स्टैन्फोर्ड यूनिवर्सिटी में साइंस हिस्ट्री की एक प्रोफेसर हैं. नाम है लोंडा शीबिंजर. इन्होंने एक किताब लिखी है- 'Secret Cures of Slaves: People, Plants, and Medicine in the Eighteenth-Century Atlantic'. इसमें उन्होंने बताया है कि 18वीं और 19वीं सदी में कैसे काली चमड़ी वाले गुलामों पर एक्सपेरिमेंट होते थे, कैसे उनकी आवाज सुनने वाला कोई नहीं था, कैसे उन्हें जानबूझकर इन्फेक्ट किया जाता था, कैसे वो जिंदगीभर रोग से जूझते रहते थे और कैसे महिलाओं-बच्चों को भी नहीं बख्शा जाता था.

गिनी पिग की तरह इस्तेमाल किए जाते थे काले गुलाम
गिनी पिग एक जानवर होता है. चूहे की प्रजाति का है, लेकिन दिखता खरगोश की तरह है. ये नेचुरली नहीं पैदा हुआ, इसे कई प्रजातियों को मिलाकर बनाया गया. लोग इसे पालते भी हैं. 17वीं सदी से इसका इस्तेमाल मेडिकल एक्सपेरिमेंट के लिए होता आ रहा है. कारण ये है कि इसके शरीर के कई हिस्से दूसरे जानवरों से मिलते-जुलते हैं. तो इसने चूहे, खरगोश, बंदर और सुअर जैसे जानवरों को रिप्लेस कर दिया. इसी पर टेस्ट होता है और पता चल जाता है कि रिजल्ट कितना कारगर होगा. यही चीज सुअर के साथ थी, जिसके कई अंदरूनी अंग इंसानों से मिलते-जुलते हैं. तो इंसानों के बजाय सुअर पर टेस्ट होता था. लेकिन गिनी पिग पर सबसे ज्यादा होता है.

अब आते हैं इंसानों पर. 1932 से 1972 के बीच अमेरिकी पब्लिक हेल्थ सर्विस ने एक क्लिनिकल स्टडी की, जिसे नाम दिया गया Tuskegee syphilis एक्सपेरिमेंट. ये नाम इसलिए, क्योंकि ये टेस्ट Tuskegee syphilis के पीड़ितों पर हो रहा था. इसमें 600 अफ्रीकी-अमेरिकी रोगियों को मुफ्त खाने, दवाई और अंतिम संस्कार के बीमे का लालच स्टडी में शामिल कर लिया गया. इन 600 में से 400 सिफलिस पीड़ित थे. उस समय पेनिसिलीन से भी इलाज हो सकता था, लेकिन सरकार ये जानना चाहती थी कि अगर बीमारी बढ़ती रहे, तो किस हद तक पहुंच जाएगी और इंसान का क्या होगा. तो इन गरीब अश्वेतों पर एक्सपेरिमेंट होता रहा और ये बेचारे झेलते रहे.

इस तरह के प्रयोग 18वीं सदी के आखिरी सालों में शुरू हुए थे. उस समय यूरोप और इसकी अमेरिकी कॉलोनियों में टेस्टिंग के लिए कैदियों, हॉस्पिटल के मरीजों और अनाथों को चुना जाता था. इनमें एक चीज कॉमन होती थी कि ये सारे गरीब होते थे. टेस्टिंग के नाम पर कइयों के अंग काट दिए जाते थे. ऐसा अधिकतर अनाथों के साथ किया जाता था, क्योंकि उनके आगे-पीछे महंगे इलाज और अंतिम संस्कार की मांग करने वाला कोई नहीं होता था. इन्फेक्टेड होने के बाद वो सालों तक दर्द झेलते रहते थे. जानवरों से भी बुरा हाल हो जाता था.

कई बार गुलामों के मालिक एक्सपेरिमेंट के आड़े आ जाते थे
टेस्टिंग करने वाले डॉक्टर्स काले गुलामों पर एक्सपेरिमेंट करते थे. ये टेस्ट कई महीनों और सालों तक चलने वाले होते थे. ऐसे में कई बार गुलामों के मालिक डॉक्टरों को इतने दिनों के लिए अपने गुलाम देने से मना कर देते थे. भले ये गुलाम बीमारियों से जूझ रहे हों, लेकिन मालिक की इच्छा डॉक्टरों की राय पर भारी पड़ती थी. पर ऐसा सबके साथ नहीं होता था. कुछ डॉक्टरों को गुलाम मिल भी जाते थे टेस्टिंग के लिए. फिर उनके साथ क्रूरता होती थी.

जमैका में एक ब्रिटिश फिजीशियन ने दावा किया था कि उसने yaws नाम की बीमारी का सही इलाज खोज लिया है. ये गंदगी की वजह से फैलने वाली एक संक्रामक बीमारी है, जिसमें खाल पर इन्फेक्शन हो जाता है और गांठें उभर आती हैं. डॉक्टर को एक्सपेरिमेंट के लिए गुलाम मिल गए. जमैका के ग्रामीण इलाकों में काम करने वाले ब्रिटिश डॉक्टर जॉन कीन ने 1768 में आई महामारी के वक्त स्मॉलपॉक्स का इलाज खोजने के लिए करीब 850 गुलामों पर एक्सपेरिमेंट किया था.

कुछ मालिकों के कहने पर डॉ. कीर ने ढेर सारे गुलामों को स्मॉलपॉक्स का वो टीका लगा दिया, जबकि वो टीका कारगर है या नहीं, इसका कोई प्रूफ नहीं था. ऐसे मामलों में गुलाम की सहमति-असहमति से किसी को कोई लेना-देना नहीं होता था. गुलाम के मालिक ने जो कह दिया, वही आखिरी बात होती थी. उधर अपनी धुन में मस्त डॉ. कीर गुलामों के साथ जो चाहे कर रहे थे. उनकी रिपोर्ट्स बताती हैं कि वो गुलामों पर ऐसे-ऐसे टेस्ट कर रहे थे, जिन्हें यूरोप में कोई अपनी जुबान पर भी नहीं लाता था. वहां सब पढ़े-लिखे और पैसे वाले लोग थे. एलीट सोसायटी थी. काले गुलामों का क्या है. वो तो इंसान माने ही नहीं जाते थे. जो चाहे करो उनके साथ.

डॉ. कीर जानना चाहते थे कि प्रेग्नेंसी या पीरियड्स के दौरान किसी महिला को टीका लगाया जा सकता है या नहीं. नवजात बच्चों को टीका लगाया जा सकता है नहीं. अब यूरोप या ब्रिटेन में कौन उन्हें अपने बच्चे के टीका लगाने देता. लेकिन गुलामों के साथ ये सब खुल्ला हो रहा था. बिना किसी शर्म या संकोच के. लंदन में अपने साथी को भेजे लेटर्स में डॉ. कीर ने ये भी लिखा कि उन्होंने एक ही शख्स को बार-बार एक ही टीका लगाया, वो भी उसी के खर्चे पर. वो शख्स इलाज कराने आया था और डॉ. कीर उस पर एक्सपेरिमेंट करते जा रहे थे. उन्हें विज्ञान का फायदा दिख रहा था, लेकिन अपने सामने खड़े जिंदा इंसान की कोई फिक्र नहीं थी.

विज्ञान और जेंडर
आज 21वीं सदी में भी अगर कोई रिसर्चर अपने ट्रायल में महिलाओं को शामिल करना चाहे, तो उसे छींकें आ जाती हैं. लेकिन 18वीं सदी में महिलाओं पर लगातार टेस्टिंग हो रही थी. 1721 में इंग्लैंड के 'न्यूगेट प्रिजन ट्रायल्स' में स्मॉलपॉक्स के टीके का टेस्ट किया गया था. टेस्टिंग के लिए एक ही उम्र के करीब 6 कैदियों को चुना गया था, जिनमें से 3 पुरुष और 3 महिलाएं थीं.
डॉ. कीर के एक्सपेरिमेंट में भी खूब महिलाओं को शामिल किया गया. इस पर खूब हो-हल्ला भी हुआ, लेकिन इस बात पर नहीं कि टेस्टिंग महिलाओं पर क्यों हो रही है. हल्ला इस बात पर हुआ कि काली चमड़ी वाली महिलाओं पर टेस्टिंग से जो रिजल्ट मिले हैं, उन्हें गोरी-अंग्रेजी महिलाओं पर कैसे लागू किया जा सकता है. लंदन में बैठे डॉ. कीर के साथी ने भी पूछा था कि 'नीग्रो महिलाओं' पर एक्सपेरिमेंट से मिले रिजल्ट ब्रिटिश महिलाओं पर कितने कारगर होंगे. लंदन में बैठे 'जेंटलमेन' को ये चिंता थी कि काली गुलाम महिलाओं पर की गई टेस्टिंग के रिजल्ट 'नाजुक आदतों वाली, यूरोप में पढ़ीं और लग्जरी में रहने वाली महिलाओं' को खराब कर देंगे.

साइंस में अफ्रीकियों का कॉन्ट्रिब्यूशन
कैरेबियन लोगों पर हुई टेस्टिंग में अफ्रीकियों, अमेइंडियंस और यूरोपियन... सब बुद्धि लगाते थे कि किसके साथ क्या-क्या टेस्टिंग की जा सकती है. वैसे भी यूरोप वालों का कैरेबियन में जिन बीमारियों से पाला पड़ा था, उनकी उन्हें पहले से कोई जानकारी नहीं थी. प्रो. शीबिंजर अपनी किताब में यही बताती हैं कि साइंस की नॉलेज बढ़ाने में अफ्रीकियों ने कितना योगदान दिया है.

साल 1773 में बारबाडोस के पास बने एक छोटे से आइलैंड ग्रेनाडा में हुई एक टेस्टिंग में दावा किया गया कि कुछ गुलामों को यूरोपियन इलाज से ठीक किया गया है. लेकिन गुलामों पर हुए इस इलाज का पैमाना यूरोप के पैमानों के मुकाबले बेहद घटिया और क्रूर था. उस केस में गुलामों के मालिक की निगाह तले चार गुलामों का इलाज यूरोप में ट्रेंड हुए एक सर्जन ने किया था, जबकि दो गुलामों का इलाज काले डॉक्टरों ने ही किया था, जो खुद गुलाम थे.

यूरोप के सर्जन ने कई सालों तक टेस्टिंग के बाद तैयार हुआ इलाज अपनाया, लेकिन इसका नतीजा ये निकला कि मरीजों की तबीयत और खराब हो गई. उधर अपने ही देश में सीखे (संभवत: अफ्रीका) तरीकों से इलाज करने वाले डॉक्टर ने मरीजों को पेड़ से बनी हुई दवाई दी और वो 15 दिन में ही ठीक हो गए. इसके बाद उसे yaws से पीड़ित मरीजों के इलाज का इंचार्ज बना दिया गया. जो डॉक्टर इतने सालों तक बिना किसी नाम और पहचान के लोगों का इलाज करता है, उसे आखिर में 'नीग्रो डॉक्टर' कहा जाने लगा. लेकिन इस बात का हिसाब किसी के पास नहीं है कि गोरे डॉक्टरों की सनक ने कितने अश्वेतों की जिंदगी नर्क बना दी थी.
medical experiments on humans
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