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इंडिया का छकरबाज डांस जिसमें लड़कों से यौन शोषण होता है

बिहार की इस डांस विधा को अब दर्शक नहीं मिल रहे. ये डांस आपने 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' में देखा होगा.

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फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर-2 के लौंडा नाच में अन्य कलाकारों के साथ राजकुमार राव.
छकरबाजी बिहार और मिथिलांचल में पॉपुलर डांस फॉर्म है. काफी पुराना. इसमें लड़कों को लड़कियों की ड्रेस पहनाकर नचाया जाता है. ये डांस करने वाले को छकरबाज कहते हैं. आमतौर पर इन लड़कों की उम्र 12 से 19 के बीच होती है. लड़कों का चुनाव भी यह देख कर किया जाता है कि लड़के सुंदर हों ताकि जब वो छकरबाजी करे तो अपने तीखे नैन-नक्श चला सकें. जब भी गांवों में कहीं मेला लगता है, शादियां होती हैं, तब छकरबाजी डांस का प्रोग्राम रखा जाता है. खास बात ये है कि मिथिलांचल में जहां इसे छकरबाजी कहते हैं, वहीं भोजपुरी बोलने वाले बेल्ट में ये लौंडा नाच के नाम से मशहूर है. जिसका जिक्र 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' फिल्म में भी आया था.

छकरबाज क्या पुरुषों से संबंध बनाते हैं..

जब ये लड़के स्टेज पर उतरते हैं तो 'लड़कियों' की तरह लगने की कोशिश करते हैं. दर्शक उत्साहित हो जाते हैं. कुछ स्टेज पर भी आ जाते हैं, साथ नाचने लगते हैं. ये भी धारणा बनी हुई है कि छकरबाजी करने वाले सुंदर लड़के, पुरुषों से संबंध बनाते होंगे. लेकिन ऐसा नहीं है. सबकी अपनी सेक्शुअल प्रिफरेंस है, जो सबकी अपनी होती है. वो कुछ भी हो सकती है.  इस डांस का एक नमूनाः https://www.youtube.com/watch?v=dJrwNLINovQ

ये डांस अब मर रहा है

बिहार में पहले हर छोटे-बड़े आयोजन में इस डांस का आयोजन होता था. शादी-ब्याह और दूसरे गंवई समारोहों में छकरबाजी नाच जरूर रखा जाता था. एक समय एेसा था जब बिहार में छकरबाजी नाच कंपनियों का बोलबाला था, अब हालात बदल चुके हैं. साल 2000 के बाद नाच कंपनियां बंद होती गईं और ऑर्केस्ट्रा का बोलबाला हो गया. मधुबनी, बिहार के नवानी गांव के बुजुर्ग शंकर मिश्र स्थानीय आर्टिस्ट हैं, प्ले करते हैं. इस डांस फॉर्म के खत्म होने जाने को लेकर उन्होंने द लल्लनटॉप को बताया, "आजकल के युवा गहराई से बहुत कम सोचते हैं. इसी कारण उन्हें सस्ता मनोरंजन पसंद है. जबकि विद्यापति के नाटक और उसके बीच दिखाई जाने वाली छकरबाजी आपको सोचने पर मजबूर करती है." खासकर विद्यापति ने अपनी रचनाओं में जो अर्धनारीश्वर शिव और बिपटा की कल्पना की है, पुराने छकरबाजी के नृत्य और गीतों में उसका अहम रोल था. यहां तक कि लेखक फणीश्वर नाथ रेणु ने भी अपनी रचना ‘मैला आंचल’ में छकरबाजी और बिपटा का जिक्र किया हैं. अब इसका चलन धीरे-धीरे कम होता जा रहा है. अब तो डीजे की धुन पर बच्चे हों या जवान डांस करते हैं. इस बदलाव की वजह से छकरबाजों के रोजगार पर असर पड़ा है. पहले नाच-गान के पेशे से वे अच्छी कमाई कर लिया करते थे, अब मांग नहीं है इसलिए वे दूसरे धंधों की तरफ जा रहे हैं.

यहां से पैदा हुई छकरबाजी 

मनोरंजन का ये रूप काफी पुराना रहा है. हालांकि उसका दायरा अलग-अलग रहा. पहले नामचीन तवायफों का दौर होता था. वे सिर्फ राजा-महाराजाओं के महलों तक सीमित थीं. वे ही बुला और नचा-गवा सकते थे. तवायफों के बाद बाईजी युग की शुरुआत हुई. तब जमींदार और धनाढ्य लोग इनका प्रदर्शन देखते थे. कहा जाता है कि वे खुले तौर पर उनके हाथ-गाल छूने लगे. आम आदमी कभी इसका हिस्सा नहीं था. तो विकल्प के रूप में इन्होंने खुद ही इसके विकल्प में छकरबाजी नृत्य खोज लिया. पुरुष ही स्त्री बनकर नाचने लगे. आम लोगों के यहां. राह चलते. जो लोग इस महत्वपूर्ण मनोरंजन विधा से सदियों से वंचित थे वे जनाना बने पुरुष को देखकर सीटियां बजाने लगे. उसका हाथ पकड़ने लगे. उस पर भी पैसा उड़ाया जाने लगा. देखते ही देखते इस नाच की कला ने आकार में बाईजी और तवायफ को पीछे छोड़ दिया. उसी समुदाय के लड़के खुद छकरबाज बनकर आम लोगों का मनोरंजन करने लगे. और इस तरह एक नाच कला छकरबाजी की शुरुआत हो गई.

दो तरह का होता है ये नाच

पहला, धार्मिक आयोजनों में. जैसे - रामलीला, रासलीला, यक्षगान परफॉर्मेंस के दौरान. इस प्रारूप अधिकतर मंदिरों के इर्द-गिर्द विकसित हुआ. दूसरा, आम जनता के बीच में. उनके मनोरंजन की भूख मिटाने के लिए आम जनता के ही द्वारा ये विकसित हुआ. इसमें आम जन-जीवन का मनोरंजन, हंसी-ठिठोली होती थी. ये बहुत पॉपुलर रहा. नौटंकी, तमाशा, नाचा, माच, खयाल इस तरह के डांस हैं. इस छकरबाजी में हार्मोनियम, ढोलक, तबला, चिकारा जैसे साज यूज़ होते हैं. 

नाम यूं पड़ा, फिल्मों में एेसे दिखा

छकरबाज शब्द 'छोकरा' और 'बाज' से मिलकर बना हैं. इन शब्दों का अर्थ समझें तो मतलब निकलता है - छोकरों का शौक रखने वाला. हालांकि व्यावहारिक मतलब है - एेसे लड़के जो स्त्रियों की वेशभूषा में नाचते-गाते हैं. डायरेक्टर प्रकाश झा की नेशनल अवॉर्ड विनिंग फिल्म ‘दामुल’ में एक गाना था ‘हमरी चढ़ल जवनिया गवना ले जा राजा जी’ जिसमें छकरबाज डांस था. राजश्री प्रोडक्शंस की 1982 में रिलीज हुई फिल्म ‘नदिया के पार’ में भी एक होली का गाना था ‘जोगीजी धीरे-धीरे, नदी के तीरे-तीरे’. इसमें छकरबाजी को अलग अंदाज में दिखाया गया. अनुराग कश्यप की फिल्म 'गैंग्स ऑफ वासेपुर-2' में भी एक मौके पर एेसा गाना रखा गया था. देखेंः  https://www.youtube.com/watch?v=qxH-5VVztSM

बहला-फुसला कर इनसे शारीरिक संबंध बनाए जाते हैं

छकरबाजी करने वाले कलाकारों के साथ एक दिक्कत यौन शोषण की है. नवानी गांव के छकरबाज सकल देव से 'द लल्लनटॉप' ने बात की. उन्होंने बताया, "आज हमारी सबसे बड़ी दिक्कत रोजगार की है. पहले छकरबाजी का चलन ज्यादा था. अब कम ही मौकों पर इसका आयोजन किया जाता है जिसके चलते इस पेशे में बने रहना बहुत ही मुश्किल होता जा रहा है." छकरबाजों के साथ लोगों के सलूक पर वे बताते हैं, "चूंकि ज्यादातर छकरबाज कम उम्र के होते हैं, इसलिए कई बार उनके साथ छेड़छाड़ की जाती है. और ऐसा मेरे साथ भी हो चुका है. पैसे भी ऑफर किए जाते हैं. कुछ छकरबाज हैं, जो समलैंगिक हैं. इनमें कुछ शादीशुदा भी हैं. यह उनके मिजाज पर निर्भर करता है. इनका यौन शोषण अधिकतर मामलों में बैंड पार्टी वाले ही करते हैं. वो रात में कलाकारों को अपने साथ सुलाते हैं. बहला-फुसलाकर उनके साथ शारीरिक संबंध बनाते हैं. कई बार जबरदस्ती ये सब करते हैं."

ये स्टोरी आदित्य प्रकाश ने की है


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