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जब लोकसभा का कार्यकाल 5 से 7 साल कर दिया गया

फरवरी 1976 में लोकसभा का कार्यकाल 1 साल बढ़ाया गया था.

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आपातकाल के दौरान लोकसभा का कार्यकाल बढ़ाया गया था.

हम सब जानते हैं कि लोकसभा का कार्यकाल 5 बरस का होता है. हालांकि कई बार इसे मंत्रिपरिषद की सलाह पर समय से पूर्व ही राष्ट्रपति द्वारा भंग कर दिया जाता है और नए चुनाव कराए जाते हैं. लेकिन एक बार ऐसा भी हुआ है जब लोकसभा का कार्यकाल 2 बार एक-एक वर्ष के लिए बढ़ाया गया. यानी 5 वर्ष से बढ़ाकर 7 वर्ष कर दिया गया. लेकिन आखिर यह हुआ कैसे? आइए इसे जानने की कोशिश करते हैं.

दरअसल अपने देश के संविधान में यह व्यवस्था है कि यदि सरकार चाहे तो वह देश में आपातकालीन परिस्थितियों में लोकसभा का कार्यकाल एक बार में एक वर्ष तक बढ़ा सकती है. लेकिन यह आपातकालीन परिस्थिति (Emergency situation) होती क्या है?


जून 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगाई थी.
जून 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगाई थी.

आपातकालीन परिस्थितियों के लिए हमारे संविधान में आपातकाल की व्यवस्था है. संविधान के आर्टिकल 352 के तहत. इस आर्टिकल का अबतक 3 बार उपयोग हो चुका है. इस आर्टिकल के तहत पहली बार 26 अक्टूबर 1962 को भारत-चीन युद्ध के समय देश में इमरजेंसी लगाई गई. दूसरी बार 3 दिसंबर 1971 को भारत पाकिस्तान युद्ध के समय और तीसरी बार के बारे में तो हम सब जानते हैं कि 25 जून 1975 को किस प्रकार इंदिरा गांधी की तत्कालीन सरकार ने अपनी राजनीतिक मुसीबतों से पार पाने के मकसद से देश पर इमरजेंसी थोप दी थी. यहां यह बात भी गौर करने लायक है कि पहले दोनों मौकों पर इमरजेंसी लगाने की अधिसूचना तो जारी की गई थी लेकिन उसे हटाने कि कोई अधिसूचना जारी नहीं हुई थी. लिहाजा यह सवाल भी उठाया गया था कि 'जब पहले से देश में इमरजेंसी लागू ही है तो जून 1975 में फिर कैसे इसे लागू किया गया?'

लेकिन ये सब कानूनी और संवैधानिक सवाल हैं और इसे कानून के जानकारों के लिए ही छोड़ देते हैं और तीसरी इमरजेंसी के दौरान संविधान से छेड़छाड़ और लोकसभा का कार्यकाल बढ़ाने के किस्से की ओर लौटते हैं.


लोकसभा के कार्यकाल के साथ 1976 में छेड़छाड़ की गई थी.
लोकसभा के कार्यकाल के साथ 1976 में छेड़छाड़ की गई थी.

पहली दोनों इमरजेंसी में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल में किसी प्रकार की छेड़छाड़ नहीं की गई थी. लेकिन तीसरी इमरजेंसी में हर वो काम सरकार ने किया जिसे लोकतांत्रिक समाज में किसी भी तरह से जायज नहीं ठहराया जा सकता. आइए देखते हैं कि सरकार ने जून 1975 से मार्च 1977 की इमरजेंसी के दौरान क्या-क्या किया था?

38वां संविधान संशोधन : इस संशोधन के द्वारा यह व्यवस्था की गई कि इमरजेंसी लगाने की अधिसूचना को कोर्ट में चैलेंज नहीं किया जा सकता. यानी सरकार जब चाहे इमरजेंसी लगा दे, कोई उस पर कुछ नहीं कर सकता.
39वां संविधान संशोधन : इसके अंतर्गत यह व्यवस्था की गई कि 'राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति के चुनाव एवं प्रधानमंत्री-लोकसभा अध्यक्ष के बतौर सांसद चुनाव को किसी कोर्ट में चैलेंज नहीं किया जा सकता. इसे यदि आज के परिप्रेक्ष्य में समझना चाहें तो नरेन्द्र मोदी के वाराणसी से चुनाव और ओम बिरला के कोटा से चुनाव में यदि कोई गड़बड़ी भी हुई हो, तब भी इसे कोई कोर्ट में चैलेंज नहीं कर सकता. इस कानून को बनाने वाली सरकार की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का रायबरेली का चुनाव भी इलाहाबाद हाईकोर्ट ने रद्द कर दिया था, जिससे उनकी सारी परेशानी शुरू हुई थी और अंततः इमरजेंसी लगानी पड़ी थी. इसी वजह से इंदिरा गांधी की सरकार ने 39वां संविधान संशोधन विधेयक पास करवाया था.
42वां संविधान संशोधन : इसमें तो संविधान के लगभग ढ़ाई दर्जन आर्टिकल से छेड़छाड़ की गई थी. कई लोग तो इस संविधान संशोधन को 'मिनी कांस्टीट्यूशन' तक कहते हैं. लेकिन आज हम इसके सिर्फ उस हिस्से से आपको रूबरू करवाएंगे जो हमारे आज के इस आर्टिकल की विषयवस्तु है. यानी लोकसभा का कार्यकाल बढ़ाना. उस समय पांचवी लोकसभा अस्तित्व में थी और उसका कार्यकाल इमरजेंसी के संवैधानिक प्रावधानों के तहत 1 साल पहले ही बढ़ाया जा चुका था और इसके लिए संविधान संशोधन की कोई जरूरत नहीं थी.

लेकिन 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से लोकसभा का कार्यकाल स्थाई रूप से 5 वर्ष से बढ़ा कर 6 वर्ष कर दिया गया. 4 फरवरी 1976 को इसकी अधिसूचना भी जारी कर दी गई. इसका मतलब यह हुआ कि पांचवी लोकसभा की अवधि बढ़कर 7 साल (6 साल सामान्य और 1 साल इमरजेंसी के कारण बढ़ाया गया) हो गई. यानी मार्च 1971 में गठित पांचवी लोकसभा का कार्यकाल मार्च 1978 तक होना था.


इंदिरा गांधी ने लोकसभा भंग की

जनवरी 1978 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के मन में न जाने क्या आया कि 14 महीने पहले ही पांचवी लोकसभा को भंग कर दिया और चुनाव कराने की घोषणा कर दी. मार्च 1977 में छठी लोकसभा के चुनाव हुए. इस चुनाव में इंदिरा गांधी और कांग्रेस की बुरी हार हुई. जनता पार्टी सत्ता में आ गई और मोरार जी देसाई प्रधानमंत्री बन गए. मोरार जी देसाई ने सत्ता संभालते ही पहले से जारी तीनों इमरजेंसी (1962, 1971 & 1975) को एक साथ खत्म करने की अधिसूचना जारी कर दी. अब छठी लोकसभा का कार्यकाल केवल 6 वर्ष (42वें संशोधन की नई व्यवस्था के मुताबिक़) रह गया. यानी मार्च 1977 से मार्च 1983 तक.


1978 में 44वें संविधान संशोधन के द्वारा मोरारजी देसाई की सरकार ने लोकसभा का कार्यकाल पुनः 5 वर्ष कर दिया.
1978 में 44वें संविधान संशोधन के द्वारा मोरारजी देसाई की सरकार ने लोकसभा का कार्यकाल पुनः 5 वर्ष कर दिया.

लेकिन नई सरकार इमरजेंसी की गड़बड़ियों को ठीक करने के इरादे से आई थी. प्रधानमंत्री मोरार जी देसाई और कानून मंत्री शांति भूषण समेत जनता पार्टी के तमाम लोग संविधान से छेड़छाड़ के खिलाफ थे. नतीजतन 1978 में 44वां संविधान संशोधन विधेयक लाया गया और इसके माध्यम से इमरजेंसी के दौर के तमाम उटपटांग कामों को दुरूस्त किया गया. लोकसभा का कार्यकाल फिर से 5 वर्ष किया गया, मानवाधिकारों को बहाल किया गया, न्यायालय पर से मुकदमों को सुनने की बंदिशें हटाई गईं और सबसे बढ़कर कुछ ऐसे प्रावधान किए गए जिससे भविष्य में इमरजेंसी के प्रावधान (article 352) का दुरूपयोग न हो पाए. इसके लिए इमरजेंसी लगाने की शर्तों में से एक शर्त 'आंतरिक अशांति' को 'सशस्त्र विद्रोह' से रिप्लेस किया गया.

तब से लेकर अब तक लोकसभा का कार्यकाल 5 वर्ष ही रहा है और हर पांच वर्ष पर जनता को अपने प्रतिनिधि और अपनी सरकार चुनने का हक मिलता रहा है.