युद्ध में ज़मीन पर ना सही कूटनीति से भारत ने चीन, अमेरिका और पाकिस्तान तीनों को पस्त किया था. इस जीत को हम भारत में विजय दिवस के रूप में मनाते हैं और इस मौक़े पर हम लाए हैं, 3 आर्टिकल्स की एक सीरीज. 14 और 15 दिसम्बर के पार्ट में हमने आपको बताया कैसे पाकिस्तान ने सुनियोजित ढंग बांग्लादेश में रेप और नरसंहार जैसे कुकृत्य किए. 15 दिसंबर की शाम तक भारत ढाका के मुहाने पर था. और वहां जनरल नियाजी अपने बिल में दुबके हुए थे. और पेशावर में पाकिस्तान की सुप्रीम लीडरशिप रंगरलियां मना रही थी. आज जानेंगे सरेंडर से ठीक पहले क्या कुछ हुआ. कैसे एक तस्वीर ने पाकिस्तानी सेना का मनोबल तोड़ा. और नियाजी को सरेंडर के लिए कैसे मनाया गया. वॉर ऑफ मूवमेंट युद्ध की शुरुआत से पाकिस्तानी आर्मी लीडरशिप को अंदाज़ा नहीं था कि भारत ढाका पहुंचने की कोशिश करेगा. जनरल याहया, नियाजी और टिक्का खान समझ रहे थे, ज़्यादा से ज़्यादा भारत एक हिस्से पर कब्जा कर वहां नई सरकार का शिलालेख कर देगा. और जैसा कि पहले के युद्धों में होता आया था, UN में अमेरिका सीजफ़ायर का प्रस्ताव पास कर देगा और मामला अधर में फ़ंस जाएगा.

इंदिरा भारत की जीत को लेकर पूरी तरह से आश्वस्त थीं. इसलिए अमेरिकी धमकी का भी उन पर कोई खास असर नहीं था (तस्वीर: Getty)
जनरल नियाजी पूर्व में पाकिस्तान आर्मी की कमान सम्भाल रहे थे. जब उन्हें लगा कि भारत ढाका पहुंचने की कोशिश में है. तो उन्होंने ढाका की सुरक्षा के लिए दो घेरे बनाए. इनर और आउटर. सभी मुख्य शहरों में फ़ौज मौजूद थी. जो ज़रूरत पड़ने पर ढाका की तरफ़ मूव कर सकती थी. मानेकशॉ भी इसी फ़िराक में थे कि ब्लिट्ज़क्रीग तरीक़े से सभी मुख्य शहरों पर कब्जा जमाते हुए ढाका की ओर बढ़ेंगे. लेकिन मेजर जनरल जेएफ आर जैकब इस रणनीति से सहमत नहीं थे. जैकब ने कहा कि ये ठीक नहीं होगा. इसमें जोखिम ज्यादा है. मानेकशॉ ने पूछा, फिर क्या करें? जवाब में जैकब लेकर आए एक खास स्ट्रैटजी. वॉर ऑफ मूवमेंट. इसके मुताबिक, भारतीय सेना को पूरा बांग्लादेश आजाद कराना था. लेकिन शहरों से होकर नहीं. बल्कि छोटे-छोटे गांवों और देहातों से होते हुए.
ऐसे में रिस्क कम था. छोटे इलाक़ों में बांग्ला निवासियों का सहयोग मिलता और बिना युद्ध को लम्बा खींचे भारत अपने मिशन में कामयाब हो जाता. 7 दिसंबर तक भारतीय सेना ने जेसोर और सियालहट को आजाद करा लिया था. ढाका तक पहुंचने के लिए आर्मी आगे बढ़ी, तो उत्तर में मौजूद 93 पाकिस्तानी ब्रिगेड ने ढाका की ओर मूव करना शुरू किया. पुरानी फोटो ने काम कर दिया इन्हें बीच में रोकने के लिए भारत की 2 पैरा बटालियन को पैराशूट के माध्यम से तंगेल में लैंड कराया गया. इनका मिशन था ज़मीन पर मराठा लाइट Infantry से लिंक स्थापित करना. मराठा लाइट इंफेंट्री तब ढाका की ओर बढ़ रही थी. 11 दिसम्बर की शाम IAF के 6 An-12s, 20 C-119 ‘पैकेट’ और 22 डकोटा विमान ने कोलकाता के दमदम हवाई अड्डे से उड़ान भरी. 800 जवानों को 12 जीपों सहित तंगेल में पैरा ड्रॉप कराया गया.

तस्वीर जिसे तंगेल में पैराशूट से उतरते सैनिकों की फोटो बताया गया. दुनियाभर के अख़बारों में ये फोटो छपी (तस्वीर: भारत सरकार)
साथ ही पाकिस्तान को कन्फ़्यूज़ करने के लिए और दो इलाक़ों में डमी पैराशूट उतारे गए. अगले दिन ब्रिटेन से लेकर अमेरिका के अख़बारों में इस घटना की तस्वीर छपी. हल्ला मचा कि भारत ढाका पर कब्जे के लिए पूरी ब्रिगेड उतार दी है. असलियत ये थी कि तंगेल में कभी कोई तस्वीर खींची ही नहीं गई. राम मोहन रॉय तब दिल्ली से भारतीय सेना के मूवमेंट की प्रेस रिलीज की ज़िम्मेदारी सम्भाल रहे थे. उन्होंने जो तस्वीर रिलीज़ की, वो दरअसल एक साल पहले हुई ट्रेनिंग एक्सरसाइज की फोटो थी. तस्वीर ने अपना काम कर दिया.
जंग के बाद जनरल नियाजी ने सरेंडर की एक मुख्य वजह इस फोटो को भी बताया. उन्होंने बताया कि टाइम्स लंदन में छपी इस तस्वीर ने ट्रूप्स का मनोबल तोड़ दिया था. तस्वीर से लग रहा था भारत ने पूरी ब्रिगेड उतार दी है. जबकि असल में सिर्फ़ एक बटालियन भर सैनिक ड्रॉप हुए थे. यही वो बटालियन थी जिसने सबसे पहले ढाका में एंटर किया. प्यारे अब्दुल्ला को संदेश 16 दिसम्बर की सुबह जनरल गंधर्व नागरा फ़ोर्स के साथ ढाका के ठीक बाहर खड़े थे. नियाजी को सरेंडर के लिए 16 दिसम्बर की सुबह 9 बजे का वक्त दिया गया था. 9 बजे तक कोई जवाब नहीं आया तो जनरल नागरा ने अपने दो ऑफ़िसर भेजे. साथ में नियाजी के लिए एक संदेश,
“प्यारे अब्दुल्ला, मैं ढाका पहुंच चुका हूं. खेल ख़त्म हो चुका है. मेरी सलाह है कि तुम खुद को मेरे हवाले कर दो. मैं तुम्हारा पूरा ध्यान रखूंगा.”सुबह 9 बजे एक सफ़ेद जीप में दोनों ऑफ़िसर संदेश लेकर नियाजी के पास पहुंचे. वापस लौटे तो पाकिस्तानी सेना के मेजर जनरल जमशेद भी साथ थे. नियाजी सरेंडर के लिए तैयार हो गए थे. तब सीजफ़ायर को शाम 5 बजे तक बढ़ा दिया गया. इसके बाद जनरल नागरा खुद नियाजी से मिलने पहुंचे. हेडक्वार्टर में नियाजी सर नीचे करे बैठे थे.

जनरल नियाजी और मेजर जनरल जेकब (तस्वीर: Getty एंड Aviation Defence)
नागरा को देखते ही बिलख-बिलख कर रोने लगे. फ़ौजी को फ़ौजी का सहारा मिला, तो नियाजी ने अपना दुखड़ा सुनाया. बोले,
'पिंडी में बैठे हुए हरामज़ादों ने मरवा दिया.'16 की दोपहर मेजर जनरल जेकब ‘सरेंडर अग्रीमेंट ड्राफ्ट’ के साथ ढाका में लैंड हुए. वहां उन्हें एक पकिस्तानी ब्रिगेडियर और दो UN प्रतिनिधियों ने रिसीव किया. इनमें से एक मार्क केली ने कहा,
‘जनरल हम आपके साथ चलेंगे ताकि आप ढाका में सरकार को टेक ओवर कर सको.’
जेकब ने जवाब दिया, “थैंक यू बट नो थैंक यू ”
जेकब किसी नौटंकी के मूड में नहीं थे. वो सीधे ढाका स्थित आर्मी हेडक्वार्टर पहुंचे. वहां नियाजी के साथ फ़रमान अली भी मौजूद थे. वही फ़रमान अली जिनकी डायरी में बांग्लादेश के प्रबुद्धजनों को मारने की लिस्ट मिली थी.
यहां पढ़िए- 1971 जंग के बाद पाकिस्तानी जनरल की डायरी में क्या मिला?
जंग से परे शतरंज की बिसात जेकब ने नियाजी और फ़रमान अली को सरेंडर ड्राफ़्ट पढ़कर सुनाया. शतरंज की बिसात तैयार हो चुकी थी. दोनों तरफ़ फ़ौजी. लड़ाई शब्दों से होनी थी. नियाजी ने अपनी पहली चाल से कुछ लेवरेज वापस हासिल करने की कोशिश की. उन्होंने सरेंडर की शर्तें मानने से साफ़ इनकार कर दिया. उन्होंने कहा, 'किसने कहा कि मैं सरेंडर कर रहा हूं? आप तो यहां बस सीजफायर की शर्तों और सेना वापसी पर बात करने आए हैं.'

मेजर जनरल गंधर्व नागरा जिनकी कमांड में ढाका को घेर लिया गया था (तस्वीर: Twitter एंड Getty)
अब बारी जेकब की थी. पहले तो कुछ देर उन्होंने नियाजी को मनाने की कोशिश की. लेकिन जब नियाजी नहीं माने, तो जेकब ने अपने तेवर सख़्त किए. उन्होंने नियाजी को साइड में ले जाकर कड़ी आवाज़ में कहा,
‘सरेंडर की शर्तों के हिसाब से तुमसे इज्जत से पेश आया जाएगा. लेकिन जैसा कि जेनेवा कन्वेशन में निहित है, केवल तब जब तुम सरेंडर के लिए राज़ी होगे. अगर तुम सरेंडर से इनकार करते हो, तो फिर आगे जो होगा, मेरी ज़िम्मेदारी नहीं होगी. 30 मिनट दे रहा हूं. सोच लो. अगर उसके बाद तुमने इनकार कर दिया तो जंग जारी रहेगी. और हम ढाका पर बमबारी करते रहेंगे.’इससे पहले कि नियाजी कुछ कहते, जेकब बिना जवाब का इंतज़ार किए कमरे से बाहर निकल गए. शतरंज के हिसाब से ये रिस्की मूव था. अगर नियाजी इनकार कर देते तो मामला अधर में लटक सकता था. 15 दिसंबर की रात से जो संघर्षविराम लागू हुआ था, उसे खत्म होने में कुछ ही वक्त बचा था. ऊपर से जैकब बिल्कुल कॉन्फिडेंट नजर आ रहे थे. मगर अंदर ही अंदर उन्हें बहुत घबराहट हो रही थी. वो सोच रहे थे कि अगर नियाजी ने सरेंडर करने से इनकार कर दिया, तो आगे की क्या रणनीति होगी. ऊपर से UN में भी सीज फ़ायर का प्रस्ताव कभी भी पारित हो सकता था. उनके पास बहुत वक्त नहीं था. सेकेंड राउंड- चेक एंड मेट आधे घंटे की मोहलत ख़त्म हुई तो जेकब दुबारा कमरे के अंदर घुसे. पूछा, जनरल, ‘तुम सरेंडर के लिए तैयार हो’. नियाजी ने कोई जवाब नहीं दिया. जेकब ने दो बार और वही सवाल पूछा. तीसरी बार जब कोई जवाब नहीं आया तो उन्होंने सरेंडर के काग़ज़ात उठाए और बोले,
'तो ठीक है फिर. मैं आपकी खामोशी को आपकी हां मान रहा हूं.’नियाजी को कुछ समझ नहीं आया. नियाजी की चुप्पी के बावजूद जेकब ने आख़िरी लेवरेज भी छीन ली थी. पूरी बाजी अब उनके हाथ में थी. इसके बाद उन्होंने नियाजी के पेंच कसने शुरू किए. बोले, 'कल रेस कोर्स में तुम ढाका के लोगों के सामने सरेंडर करोगे.'

पाकिस्तानी फ़ौज को सरेंडर कराने के लिए जमालपुर की तरफ़ मार्च करते हुए जनरल नागरा और CO 56 माउंटेन रेजिमेंट (तस्वीर: डेली एशियन ऐज)
नियाजी जो अभी-अभी सरेंडर के सदमे से उभरे नहीं थे. ‘सबके सामने’ वाली बात से उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई. रुंधे हुए गले से उन्होंने इनकार करने की कोशिश की. लेकिन तब तक खेल ख़त्म हो चुका था. चेक एंड मेट. जेकब ने तब उनकी आंख से आंख मिलाते हुए कहा,
‘तुम सरेंडर करोगे. पब्लिक में सरेंडर ना करने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता. इतना ही नहीं तुम लेफ़्टिनेंट जनरल अरोड़ा को गार्ड ऑफ़ ऑनर भी दोगे’नियाजी जितना ज़मीन से ऊपर थे, उतना ही ज़मीन के नीचे धंस चुके थे. फ़ौज के उसूलों के हिसाब से एक कमांडर के लिए दुश्मन को गार्ड ऑफ़ ऑनर देने से ज़्यादा शर्मिंदगी की बात दूसरी नहीं हो सकती थी. नियाजी ने बहाना मारा. बोले, कोई है ही नहीं, जो गार्ड ऑफ़ ऑनर को कमांड कर सके. मेजर जनरल जेकब ने नियाजी के ADC की ओर इशारा करते हुए कहा,
'तुम्हारा ADC यहां है. ही विल ब्लडी कमांड इट'जेकब गार्ड ऑफ़ ऑनर के लिए क्यों अड़े थे. ये जानने के लिए एक दूसरी तारीख पर जाना होगा. दूसरे विश्व युद्ध के बाद जब जापानी फ़ौज ने सरेंडर किया था, तो वो जेकब ही थे जिन्होंने ब्रिटिश इंडियन आर्मी की तरफ़ से सुमात्रा में जापानी फ़ौज का सरेंडर स्वीकार किया था. तब जापानी टुकड़ी ने उन्हें गार्ड ऑफ़ ऑनर भी दिया था. इसी कारण वो गार्ड ऑफ़ ऑनर के लिए इतना ज़ोर दे रहे थे. सरेंडर के काग़ज़ात पर दस्तख़त- दो बार सरेंडर ऐक्सेप्ट करने के लिए 16 की शाम को लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा पहुंचे. नियाजी ने खुद ढाका एयरपोर्ट जाकर लेफ्टिनेंट जनरल अरोड़ा को रिसीव किया. 16 दिसंबर 1971. यानी आज ही का दिन. ढाका का रामना रेसकोर्स. वही जगह, जहां कुछ साल पहले खड़े होकर शेख मुजीब-उर-रहमान ने बांग्लादेश की आजादी का ऐलान किया था. जहां बांग्लादेश का झंडा लहराया गया था.

शाम 4.55 पर सरेंडर के काग़ज़ात पर दस्तख़त हुए (तस्वीर: getty)
अरोड़ा और उनकी पत्नी, दोनों हेलिकॉप्टर से ढाका पहुंचे थे. जनरल नियाजी ने उन्हें देखा. उन्हें गार्ड ऑफ़ ऑनर दिया गया. फिर आगे बढ़कर नियाजी ने अरोड़ा से हाथ मिलाया. दोनों में कोई बात नहीं हुई. यहां से वो लोग सीधे रामना रेसकोर्स पहुंचे. हजारों बंगालियों की भीड़ वहां मौजूद थी. वो भारतीय सेना के लिए नारे लगा रही थी. भारतीय जवानों के लिए ताली बजा रही थी. नियाज़ी भारतीय फ़ौज की सुरक्षा में थे. लोग उनके खून के प्यासे हुए जा रहे थे. भारतीय फ़ौज ने किसी तरह उन्हें बचाए रखा.
इसके बाद जनरल नियाजी और लेफ्टिनेंट जनरल अरोड़ा ने सरेंडर के काग़ज़ात पर दस्तख़त किए. अगले दिन संसद में इसकी घोषणा हुई. प्रधानमंत्री इंदिरा ने बांग्लादेश को आज़ाद देश घोषित किया और बताया कि 16 दिसंबर शाम 4.31 पर पाकिस्तान ने सरेंडर कर दिया. असल में ये वक्त 4 बजकर पचपन मिनट था. शायद ज्योतिष के चलते सदन में 4.31 का वक्त बताया गया था.
BBC के साथ एक इंटरव्यू में मेजर जनरल जेकब ने खुद इस बात की पुष्टि की थी. इतना ही नहीं इस घटना के दो हफ़्ते बाद सरेंडर के काग़ज़ पर दुबारा दस्तख़त करवाए गए. कारण कि ओरिज़िनल दस्तावेज में कुछ ग़लतियां हो गई थीं. एपिलॉग 1971 युद्ध के नतीजे में ना केवल बांग्लादेश आज़ाद हुआ. बल्कि भारत ने वेस्टर्न फ़्रंट पर 15 हज़ार वर्ग किलोमीटर ज़मीन पर क़ब्जा कर लिया था. जिसे 1972 में हुए शिमला समझौते के बाद वापस लौटा दिया गया. आम तौर पर इसे इंदिरा सरकार की एक बड़ी नाकामी माना जाता है. लेकिन ये भी सच है कि तब जेनेवा कन्वेशन के हिसाब से भारत युद्धबंदियो को लेवरेज के तौर पर इस्तेमाल नहीं कर सकता था. इसके अलावा सोवियत संघ, जिसने युद्ध में भारत की मदद की थी, भारत पर अनुचित लाभ ना लेने का दबाव डाल रहा था. दूसरी तरफ का तर्क ये है कि पाकिस्तान ने कभी किसी नियम शर्त का पालन नहीं किया, तो भारत अकेले इस ढर्रे पर चले, ये क्यों ज़रूरी है. पाकिस्तान ने बाद में शिमला समझौते की कई शर्तों से भी हाथ पीछे खींच लिया था.
1971 युद्ध में चाहे भारत की जीत हुई हो. लेकिन उससे ज़्यादा याद रखने वाली बात ये है कि इस युद्ध में भारत के साढ़े तीन हज़ार जवान शहीद हुए थे. आज विजय दिवस की शुभकामनाओं के साथ-साथ लल्लनटॉप परिवार की तरफ़ से इन सभी शहीदों को श्रद्धांजलि.