एक बार की बात है. बादशाह अकबर बीरबल से किसी बात पर नाराज हो गए. बोले, बीरबल अगर चाहते हो कि सर धड़ पर बना रहे तो एक काम करो. किसी भी हालत में एक उड़ने वाले घोड़े का इंतज़ाम करो. बीरबल राजी हो गए. लेकिन इस काम के लिए एक साल का वक्त मांग लिया. अकबर भी एक साल का वक्त देने को राजी हो गए.
10 हजार से शुरू हुई इंफोसिस कैसे बनी 8 लाख करोड़ की कम्पनी?
7 लोगों ने मिलकर साल 1981 में इंफोसिस की स्थापना की थी.

किसी ने पूछा, अब क्या करोगे बीरबल! तो बीरबल बोले, कुछ नहीं. एक साल का वक्त है. क्या पता तब तक बादशाह रहे न रहे, मैं रहूं न रहूं, बादशाह को ये बात याद रहे या न रहे, या क्या पता, उड़ने वाला घोड़ा मिल ही जाए.
साल 1990 में नागराजन विट्टल यही कहानी NASSCOM के मेम्बर्स को सुना रहे थे. नैसकॉम यानी नेशनल एसोसिएशन ऑफ़ सॉफ्टवेयर एंड सर्विस कम्पनीज, भारत में आईटी कंपनियों का एक ट्रेड एसोसिएशन है. और नागराजन विट्टल गुजरात काडर के रिटायर्ड आईएएस अफसर हैं. तब भारत सरकार के इलेक्ट्रॉनिक्स डिपार्टमेंट में सेक्रेटरी हुआ करते थे. विट्टल ये कहानी क्यों सुना रहे थे?
दरअसल 1989 के आसपास NASSCOM आईटी कंपनियों के लिए टैक्स में रियायत के लिए लॉबी कर रही थी. उस दौर में कम्यूटर आयात करना मुश्किल था और उस पर भारी टैक्स भी चुकाना पड़ता था. विट्टल इंडस्ट्री के सपोर्टर हुआ करते थे. अगस्त 1990 में एक मीटिंग हुई. जिसमें फाइनेंस सेक्रेटरी बिमल जालान ने उनसे कहा कि अगर आईटी सेक्टर को रियायत चाहिए तो उन्हें एक वादा करना होगा. वादा ये कि अगले एक साल में आईटी सेक्टर को अपना निर्यात चार गुना पहुंचाना होगा.

विट्टल तैयार हो गए और जाकर ये बात NASSCOM के सदस्यों को बताई. ये सुनते ही सबके चेहरे पर हवाइयां तैरने लगीं. 4 गुना निर्यात, वो भी एक साल में, ये बात कहीं से भी संभव नहीं लग रही थी. तब विट्टल ने उन्हें अकबर बीरबल की कहानी सुनाते हुए कहा, चिंता की कोई बात नहीं, क्या पता एक साल में क्या हो. क्या पता बादशाह रहे न रहे, हम रहे न रहें. और क्या पता, उड़ने वाला घोड़ा मिल ही जाए. जैसा कि हम जानते हैं विट्टल को उड़ने वाल घोडा मिला. और घोडा ऐसा उड़ा कि पांच साल में भारत का आईटी सेक्टर 170 करोड़ से 1900 करोड़ तक पहुंच गया. जिसमें से 1100 करोड़ तो सिर्फ निर्यात से आ रहे थे.
आज 28 जुलाई है और आज की तारीख का संबंध है इंफोसिस से. साल 2010 में आज ही के दिन ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने अपने भारत दौरे के दौरान बंगलुरु में इंफोसिस हेडक्वार्टर का दौरा किया था. इसी बहाने हमने सोचा क्यों न इंफोसिस के इतिहास पर एक नजर डाली जाए.
फिफ्टी टू.इन नाम की एक वेबसाइट है. वेदिका कान्त ने इंफोसिस के इतिहास पर एक बेहतरीन आर्टिकल लिखा है. ऊपर जो किस्सा हमने आपको सुनाया वो इसी आर्टिकल से लिया गया है. वेदिका लिखती हैं कि 1990 में हालात ऐसे हो गए थे कि इंफोसिस को बेचने की बात उठने लगी थी. साल 1993 में जब कंपनी ने अपना आईपीओ निकाला तो कंपनी के फाउंडर एन. नारायणमूर्ति के दोस्त भी इसके शेयर ख़रीदना नहीं चाहते थे. लेकिन जल्द ही सब कुछ बदल गया. कैसे? पूरी कहानी जानने के लिए शुरू से शुरू करते हैं.
IIT कानपुरभारत जब आजाद हुआ तो हमारे पास गिनती के 2500 इंजीनीयर थे. वो भी सब सिविल इंजीनियर. इसी के चलते IIT जैसे संस्थानों की शुरुआत हुई. ताकि भारत में टेक्निकल वर्कफोर्स पैदा हो सके. इन्हीं में से एक IIT कानपुर भी था. जिसे 9 अमेरिकन विश्वविद्यालयों की मदद से खोला गया था. वहीं से IIT कानपुर को अपना पहला कम्यूटर भी मिला. IBM 620 नाम की इस मशीन पर सॉफ्टवेयर डेवेलपर्स की एक पूरी जनरेशन ने ट्रेनिंग ली. इनमें से एक थे नागवरा रामाराव नारायणमूर्ति. कर्णाटक के एक छोटे से गांव में पैदा हुए नारायणमूर्ति ने मैसूर विश्वविद्यालय से इंजीनियरिंग की डिग्री ली. वो इलेक्ट्रिकल इंजीनियर बनना चाहते थे. लेकिन फिर जब मास्टर्स के लिए IIT कानपुर पहुंचे तो यहां कम्यूटर में दिल लग गया.

भारत में सॉफ्टवेयर इंजीनीयर तैयार रहे थे लेकिन प्राइवेट सेक्टर में ना के बराबर नौकरियां थी. इसलिए अधिकतर लोग ग्रैजुएशन के बाद विदेश चले जाते थे. लेकिन नारायणमूर्ति ने भारत में ही रहना चुना. IIM अहमदाबाद में एक नए कम्प्युटर सेंटर शुरू हो रहा था. मूर्ति यहां चीफ सिस्टम प्रोग्रामर के तौर पे काम करने लग गए.
1970 के दशक में उन्हें पेरिस से एक नौकरी का ऑफर मिला. नारायणमूर्ति पेरिस चले गए. पेरिस में रहने के दौरान एक घटना ने उन पर ख़ासा असर डाला. मूर्ति बताते हैं की शायद इंफोसिस की शुरुआत के बीज भी यहीं से उनके अंदर पड़े थे. इस दौर तक नारायणमूर्ति खुद को एक सोशलिस्ट मानते थे. लेकिन इस घटना ने उनके मन में समाजवाद के प्रति एक सवाल खड़ा कर दिया.
नारायणमूर्ति ने जब 3 दिन जेल में गुजारेहुआ ये कि 1974 की गर्मियों ने नाराणमूर्ति ने अपनी नौकरी छोड़ दी. और दुनिया घूमने के लिए निकल गए. इसी दौरान सर्बिया में उनके साथ एक घटना हुई. सर्बिया तब सोवियत रूस के कंट्रोल में था. नारायणमूर्ति एक ट्रेन में बैठे थे. उनके सामने की तरफ सीट पर एक लड़का-लड़की बैठे थे. यूरोप में सामान्य था कि अनजान लोग आपस में चर्चा करें. इसलिए नारायणमूर्ति ने दोनों से बात करने की कोशिश की. लड़के ने कुछ बात नहीं की लेकिन लड़की, जो फ्रेंच समझती थी, नारायणमूर्ति से बात करने लगी. कुछ देर में लड़का खड़ा हुआ और बोगी में खड़े कुछ पुलिसवालों से बात करने लगा. देखते-देखते पुलिसवालों ने मूर्ति का सामान पकड़ा और प्लेटफार्म पर फेंक दिया. इसके बाद नारायणमूर्ति को एक 8 बाय 8 के कमरे में बंद कर दिया गया. 120 घंटे बिना खाना पानी के रहने के बाद उन्हें छोड़ा गया. गार्ड ने उनसे कहा, तुम एक मित्र देश भारत से हो, इसलिए तुम्हें छोड़ रहे हैं.

नारायणमूर्ति बताते हैं कि उन्हें लगा अगर एक मित्र देश के साथ ऐसा बिहेव किए जा रहा है, तो दुश्मन के साथ कैसा बर्ताव किया जाता होगा. साथ ही उनका मन समाजवाद से भी उचट गया. मूर्ति बताते हैं कि इस घटना के बाद वो एक नर्म पूंजीवादी बन गए. उन्हें अहसास हुआ की नौकरी देना सरकार का काम नहीं, बल्कि उद्यमियों का काम है. और सरकार को उद्यमियों को सपोर्ट करना चाहिए ताकि ज्यादा से ज्यादा नौकरी पैदा कर सकें.
इसके बाद साल 1976 में नारायणमूर्ति भारत पहुंचते हैं. और एक कम्पनी की शुरुआत करते हैं. सॉफ्टट्रॉनिक्स. लेकिन देश में तब टेक कम्पनीज़ के लिए माहौल ठीक नहीं था. जनता पार्टी ने IBM को देश से बाहर निकाल दिया था. इसके अलावा कम्प्यूटर से नौकरियां ख़त्म हो जाएंगी, ऐसी बातें भी सुनाई देने लगी थीं. इन्हीं सब के चलते सॉफ्टट्रॉनिक्स को क्लाइंट मिलने में दिक्कत हुई और कम्पनी एक ही साल में बंद हो गई.
पाटनी कम्प्यूटर्सउस दौर में सरकार की तरफ से कम्प्यूटर आयत पर सख्ती थी. लेकिन एक लूपहोल था जिसका उपयोग कर TCS और पाटनी कम्प्यूटर्स जैसी कंपनियों ने अपने लिए मौका खोज लिया. नियम ये था कि आप कम्यूटर आयत कर सकते हो, लेकिन सिर्फ तभी जब आप उसके दोगुने मूल्य का निर्यात करो.

पटनी कम्यूटर्स की शुरुआत एक IIT ग्रेजुएट ने ही की थी. नाम था नरेंद्र पाटनी. अमेरिका में तब सॉफ्टवेयर पर बहुत काम हो रहा था. अमेरिका की एक कंपनी लेक्सिस नाम का एक डेटाबेस तैयार कर रही थी. जिसमें अदालती फैसलों और कागजातों का डेटा डाला जाता था. नरेंद्र पटनी को इसमें मौका दिखा. भारत में डेटा एंट्री करना सस्ता था. इसलिए पाटनी कम्प्यूटर्स ने ये ठेका अपने हाथ में ले लिया. 1976 में पाटनी कम्प्यूटर्स ने डाटा जनरल नाम की एक कंपनी से डील की. और न सिर्फ डेटा एंट्री बल्कि सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट का काम भी हासिल कर लिया. नरेंद्र पाटनी अमेरिका में थे. इसलिए भारत में ऑपरेशन संभालने के लिए उन्हें एक व्यक्ति की तलाश थी. उन्होंने ये काम सौंपा नारायणमूर्ति को. और इस तरह नारायणमूर्ति पाटनी कम्प्यूटर्स का हिस्सा बन गए.
नारायणमूर्ति ने नंदन नीलकेणी, गोपालकृष्णन, के दिनेश, SD शिबुलाल, NS राघवन, और अशोक अरोड़ा को पाटनी कम्यूटर्स में हायर किया. 1979 में पाटनी कम्प्यूटर्स ने अपना पहला बड़ा IT कॉन्ट्रैक्ट हासिल किया. 5 लाख डॉलर का ये कॉन्ट्रैक्ट एक अमेरिकी कंपनी से साथ हुआ था. इसके भारतीय ओउटसोर्सिंग युग की शुरुआत माना जा सकता है. इस डील ने भारतीय IT सेक्टर के लिए अमेरिका के दरवाजे खोल दिए. और साथ ही इस डील से नारायणमूर्ति और उनकी टीम में एक आत्मविश्वास जागा कि भारतीय सेक्टर में नई कम्पनी के प्रवेश का ये सही समय है.
इंफोसिस की शुरुआतनारायणमूर्ति ने अपने सात सहकर्मियों के साथ मिलकर 1981 में इंफोसिस की शुरुआत कर दी. तब इस काम के लिए उन्होंने अपनी पत्नी सुधा मूर्ति से 10 हजार रूपये लिए थे. कम्पनी की शुरुआत किसी बड़े रिस्क से कम न थी. भारत में प्राइवेट सेक्टर के लिए लालफीताशाही सरीखी कई मुश्किलें थीं. एक टेलीफोन लेने के लिए सालों लगते थे. बैंक किसी सॉफ्टवेयर कंपनी को लोन देने को राजी नहीं थे. एक-एक कम्यूटर आयात करने के लिए दिल्ली के दसियों चक्कर लगाने पड़ते थे.

दूसरी दिक्कत-
IT के अधिकतर क्लाइंट बाहर थे. ऐसे में विदेश जाना अपने आप में बड़ी मुश्किल थी. डॉलर की कमी थी. और एक्सचेंज से विदेश दौरे के लिए एक दिन का आठ डॉलर मिलता था. एक-एक ट्रिप के लिए रिज़र्व बैंक से मंजूरी लेनी पड़ती थी.
इसके अलावा एक बड़ी दिक्कत थी डाटा ट्रांसफर की. आज की तरह हाई स्पीड इंटरनेट तो था नहीं. और विदेश संचार का सारा काम एक सरकारी कम्पनी, विदेश सेवा निगम लिमिटेड, VSNL के जिम्मे था. कंपनी अपना सैटलाइट स्टेशन लगा नहीं सकती थी, ऐसे में डाटा ट्रांसफर में बड़ी दिक्कतों का सामना करना पड़ता था.
साल 1985 में टेक्सस इंस्ट्रूमेंट्स नाम के एक अमेरिकन कम्पनी ने इस दिशा में काम किया और बंगलुरु और ह्यूस्टन के बीच पहला सैटेलाइट लिंक स्थापित किया. उसी दौर में नागराजन विट्टल भारत सरकार में डिपार्टमेंट ऑफ इलेक्ट्रॉनिक्स से जुड़े. उनके दौर में सरकार ने बंगलुरु में एक सॉफ्टवेयर टेक्नोलॉजी पार्क को मंजूरी दी, ताकि आईटी कंपनियों के लिए एक स्पेशल ज़ोन तैयार हो सके. साथ ही VSNL की तरफ से आईटी पार्क को एक सैटलाइट लिंक भी मुहैया कराया गया, ताकि हाई स्पीड नेटवर्क से विदेशों तक सर्विस पहुंचाई जा सके.
इंफोसिस का पहला कॉन्ट्रैक्टइंफोसिस ने इन सब का फायदा उठाया और डाटा बेसिक्स नाम की एक कंपनी से अपना पहला कॉन्ट्रैक्ट हासिल किया. लेकिन एक दिक्कत थी कि कम्पनी के पास कंप्यूटर आयत के लिए पैसा नहीं था. इसके बाद काम करने का एक जुगाड़ खोजा गया. इंफोसिस ने अपने क्लाइंट से कहा कि वो भारतीय इंजीनियर को ऑन साइट भेजेंगे. इसके बाद क्लाइंट से इंजीनियर का एक इंटरव्यू कराया जाता और उसके बाद इंजीनयर अमेरिका जाकर सिस्टम पर काम करता. इस तरह इंफोसिस कंप्यूटर आयत किए बिना काम कर पाई . साथ ही उन्होंने क्लाइंट्स से एडवांस पेमेंट लेकर धंधे को फाइनेंस किया.

धीरे-धीरे कम्पनी के क्लाइंट बढ़ते गए और 1987 में इंफोसिस ने अमेरिका में दो ऑफिस भी खोल लिए. भारतीय आईटी सेक्टर में एक बड़ा बदलाव आया 1989 में. 1989 में जनरल इलेक्ट्रिक के सीईओ जैक वेल्श ने भारत का दौरा किया. वो यहां भारत सरकार के सामने GE के एयरक्राफ्ट इंजन पिच करने आए थे. लेकिन यहां उन्हें भारत सरकार की तरफ से खुद एक पिच मिली. सैम पित्रोदा और जयराम रमेश, राजीव गांधी सरकार में टेक एडवाइजर हुआ करते थे.
उन्होंने GE के आगे पेशकश रखी कि वो GE के सॉफ्टवेयर संभालने के लिए भारतीय कम्पोनीज़ की मदद लें. वेल्श तैयार हो गए. और इसका सबसे बड़ा फायदा मिला इंफोसिस को. इसी दौर में सरकार ने अपने नियमों में ढील दी और आईटी पार्क में स्थित कंपनियों को बिना लाइसेंस कम्यूटर आयत करने की छूट मिल गई. सॉफ्टवेयर एक्सपोर्ट से होने वाले प्रॉफिट पर भी छूट दी गई. भारतीय आईटी सेक्टर के सुनहरे दौर की शुरुआत हो चुकी थी. लेकिन इंफोसिस को इससे पहले एक अग्नि परीक्षा से गुजरना था.
इंफोसिस बिकने वाली थी?जनवरी 1990 की बात है. इंफोसिस के चार फाउंडर्स एक रेस्त्रां में खाना खा रहे थे. खाने से ज्यादा गर्म थी वो बहस, जो चारों के बीच चल रही थी. एक ऑफर आया था, कम्पनी को खरीदने का. करीब 2 करोड़ रूपये में. करीब एक साल पहले ही कंपनी मुश्किल से दिवालिया होने से बची थी. ऐसे में 2 करोड़ का ऑफर मुनाफे का लग रहा था. तीन लोग कंपनी बेचने के लिए तैयार थे. लेकिन नारायणमूर्ति ने साफ़ मना कर दिया. एक घंटे चली बहस में उन्होंने बाकी साथियों को इस बात के लिए राजी किया. और कंपनी बिकते-बिकते रह गई.

भविष्य ने नारायणमूर्ति के इस फैसले को सही साबित किया. 1991 में उदारवाद की शुरुआत हुई. और आईटी सेक्टर के वारे-न्यारे हो गए. उदारवाद के चलते विदेश जाना आसान हो गया. कैपिटल मार्किट सुधारों के चलते विदेशी निवेश की शुरुआत हुई. और शेयर मार्केट में आईटी कंपनियां भी लिस्ट होने लगी. 2006 में येल यूनिवर्सिटी को दिए एक इंटरव्यू में नारायणमूर्ति बताते हैं कि तब कंट्रोलर ऑफिस का एक व्यक्ति तय करता था कि नए IPO का मूल्य कितना होगा.
जुलाई 1993 में इन नियमों में चेंज हुआ. इंफोसिस ने अपना IPO निकाला. और इस तरह इंफोसिस शेयर मार्किट में लिस्ट होने वाली दूसरी सॉफ्टवेयर कंपनी बन गयी. शुरुआत में इंफोसिस के IPO ने अपेक्षा से कम परफॉर्म किया. तब 90 रूपये पर IPO लिस्ट हुआ था. लेकिन इन्वेस्टर सॉफ्टवेयर कंपनी में निवेश करने में झिझक रहे थे. यहां तक कि नारायणमूर्ति के अपने दोस्त और रिश्तेदार भी शेयर खरीदने में हिचकिचा रहे थे. इसके बावजूद कम्पनी ने अपने IPO ऐसे $4.4 मिलियन इकठ्ठा किए. मॉर्गन स्टैनले ने तब कंपनी के 13 % शेयर ख़रीदे थे.
आठ लाख करोड़ की कंपनीइसी दौर में अमेरिकी में हुई एक घटना ने भारतीय IT सेक्टर पर बड़ा असर डाला. 1990 में अमेरिका में H1B वीजा की शुरुआत हो चुकी थी. जिसके चलते भारतीय इंजिनीयर्स की मांग में लगातार इजाफा हुआ. भारत में एक के बाद एक IT कॉलेज की शुरुआत हुई.
20 वीं सदी के आख़िरी सालों में जब Y2K बग का मसला उठा तो इंफोसिस ने अपने लिए बिलकुल ठीक पोजीशन बना ली थी. अगले 5 सालों में Y2K कॉन्ट्रैक्ट्स से कम्पनी के खूब मुनाफा कमाया. 1998 में कम्पनी की 22% कमाई Y2K कॉन्ट्रैक्ट्स से ही हुई थी. मार्च 1999 में इंफोसिस NASDAQ पर लिस्ट हुई और 2004 आते-आते कम्पनी का रेवेन्यू 1 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया. अगले दो सालों में ये दोगुना होकर 2 बिलियन तक पहुंचा. और 2021 में कंपनी ने 100 बिलियन डॉलर (आठ लाख करोड़ रूपये) के आंकड़े को भी छू लिया. इस आंकड़े को छूने वाली ये सिर्फ चौथी भारतीय कंपनी है.
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