वो शख्स नहीं होता तो डायबटीज़ से पीड़ित लोगों को इन्सुलिन का इंजेक्शन न मिलता. न ही हेपिटाइटिस बी जैसी बीमारियों की वैक्सीन बन पाती और न ही एलन मस्क इंसानी दिमाग को कम्प्यूटर से जोड़ने की सोच पाते. ये सब कुछ संभव हो पाया एक भारतीय की बदौलत. लेकिन अफ़सोस की बात ये है कि हम में से अधिकतर लोगों को उसके बारे में नहीं पता. ये कहानी है एक ऐसे भारतीय वैज्ञानिक की जिसने अमेरिका की ताकतवर सरकार से टक्कर ली. और अंत में उसे झुकने पर मजबूर कर दिया. इतना ही नहीं उसने ईजाद किया एक ऐसा जीव जो समंदर में फैले तेल को पी सकता था. ये कहानी है डॉक्टर आनंद मोहन चक्रवर्ती की.
अमेरिकी सरकार को झुकाने वाला इंडियन साइंटिस्ट जिसे एलन मस्क दुआएं देते होंगे
इंडियन सांइटिस्ट जिसके आविष्कार ने तेल पीने वाला बैक्टीरिया बना दिया. ये न होते तो एलन मस्क इंसानी दिमाग को कंप्यूटर से जोड़ने की सोच भी न पाते!

दुनिया में डॉक्टर आनंद की हैसियत क्या है? अमेरिका की मशहूर टाइम पत्रिका के हवाले से सुनिए. साल 2018 में टाइम पत्रिका ने ऐसे 25 महत्वपूर्ण अवसरों की एक लिस्ट जारी की जिनसे अमेरिका का इतिहास प्रभावित हुआ था. इस लिस्ट में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला भी शामिल था. इस मुक़द्दमे कोडायमंड वर्सेज़ चक्रवर्ती के नाम से जाना जाता है. इस केस और डॉक्टर चक्रवर्ती की एक रिसर्च ने बायोटेक तकनीक के क्षेत्र में क्रांतिकारी असर डाला था. केस था क्या, ये जानने से पहले जरा डॉक्टर चक्रवर्ती की कहानी के उद्गम पर चलते हैं.

पश्चिम बंगाल का बीरभूम जिला. यहां साइन्थिया नाम की नगरपालिका पड़ती है. इसे नन्दिकेश्वरी शक्तिपीठ के लिए जाना जाता है. और इसी शक्तिपीठ के नाम पर पहले इस जगह का नाम नंदीपुर हुआ करता था. इसी नंदीपुर में आजादी से पहले जन्म हुआ था डॉक्टर आनंद मोहन चक्रवर्ती का. चार अप्रैल, 1938. मिडिल क्लास में पैदा हुए आनंद सात भाई बहनों में सबसे छोटे थे. पढ़ाई में तेज़ थे. सो माता-पिता ने कॉलेज पढ़ने भेज दिया. सेंट जेवियर कॉलेज से बीएससी करने के बाद उन्होंने कलकत्ता यूनिवर्सिटी से एमएससी किया और यहीं से 1965 में पीएचडी की डिग्री हासिल की. इस दौरान उन्होंने बायोकेमिस्ट्री पर एक रिसर्च पेपर लिखा. जिसे पढ़कर एक अमेरिकी वैज्ञानिक इतना इम्प्रेस हुआ कि उसने आनंद को अमेरिका आने का न्योता दे दिया.
यहां उन्हें यूनिवर्सिटी ऑफ इलेनॉय की एक रिसर्च लैब में नौकरी मिली. कुछ साल यहां काम किया और फिर आगे जाकर उन्होंने जनरल इलेक्ट्रिक कंपनी जॉइन कर ली. अब यहां तक तो डॉक्टर आनंद की कहानी अमेरिका गए किसी भी आम भारतीय सी लगती है. लेकिन जल्द ही इस कहानी में एक जबरदस्त मोड़ आने वाला था. ऐसा मोड़ जिसने डॉक्टर आनंद को सीधे अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के दरवाज़े तक पहुंचा दिया. और उन्हें सात साल तक केस लड़ना पड़ा. इस पूरी कश्मकश का जिम्मेदार था एक छोटा सा जीव. ऐसा जीव जो आम आंखों से दिखाई भी नहीं देता. इस जीव का नाम है बैक्टीरिया.
तेल पीने वाला बैक्टीरियाबैक्टीरिया को हम आम तौर पर बीमारी फैलाने वाले जीवाणु के तौर पर जानते हैं. लेकिन साइंस की दुनिया में ये बहुत काम का है. इंसानों या जानवरों की लाशें या कूड़े कचरे को यही बैक्टीरिया निपटाता है. कई बैक्टीरिया तो ऐसे होते हैं कि स्टील और यूरेनियम को भी खा जाएं. लेकिन एक चीज है जिसे ये नहीं खा सकते. ये है तेल जिसके बिना हमारे जीवन की गाड़ी नहीं चलती. और न ही मोटरगाड़ी चलती है. यानी पेट्रोलियम. पेट्रोलियम निकलता है तेल के कुओं से. अक्सर ये कुएं समंदर की तलहटी में पाए जाते है. और कुएं से निकालने के क्रम में कई बार ये तेल समंदर की सतह में फ़ैल जाता है.

ये कितना खतरनाक होता है इस उदाहरण से समझिए. साल 2010 में एक तेल के कुएं के रिसाव से 10 लाख समुद्री पक्षी और हजारों डॉलफिनें मारी गई थीं. लगभग साढ़े सात लाख लीटर तेल मेक्सिको की खाड़ी में फ़ैल गया था. साल 2023 तक भी इस तेल को पूरी तरह हटाया नहीं जा सका है. इस घटना को डीप वाटर होराइजन स्पिल के नाम से जाना जाता है. ऐसी और भी सैकड़ों घटनाएं हैं, जिनमें समंदर में फैले तेल ने पर्यावरण का बहुत नुकसान किया. इस तेल को हटाना काफी जद्दोजहद से भरी प्रक्रिया होती है. अधिकतर केमिकल्स का यूज़ किया जाता है, जो अपने आप में प्रदूषण का कारण बनते हैं. ऐसे में सालों से ऐसे जैविक तरीके डेवेलप करने की कोशिश चल ही है, जो बेहतर तरीके से तेल को हटा सके. इनमें से एक तरीका है ऐसे बैक्टेरिया की खोज जो पानी में फैसे तेल को डी कम्पोज़ कर सके. और इस दिशा में पहल कदम उठाया गया था डॉक्टर आनंद मोहन चक्रवर्ती ने.
जनरल इलेक्ट्रिक में काम करते हुए उन्होंने स्यूडोनोमास नाम की बैक्टीरिया की एक प्रजाति पर रिसर्च शुरू की. और सालों साल इसमें लगे रहे. समर्पण इस कदर था कि उन्होंने अपना ईमेल एड्रेस भी बैक्टेरिया के नाम पर रख लिया था- स्यूडोमो@uic.edu. इस मेहनत का उन्हें फल मिला और साल 1972 में उन्होंने बैक्टीरिया की ऐसी प्रजाति ईजाद कर ली, जो तेल को डिकम्पोज़ कर सकती था. यहां ध्यान दें कि हमने ईजाद शब्द का इस्तेमाल किया है, बजाय खोज के. ये जानबूझकर किया गया है. क्योंकि खोज और ईजाद के इस अंतर से आगे इस कहानी में बड़ा बवाल होने वाला है.
सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसलाडाक्टर आनंद का बनाया बैक्टीरिया काफी काम का था. इसलिए उनकी कंपनी यानी जनरल इलेक्ट्रिक इसका कमर्शियल इस्तेमाल करना चाहती थी. उन्होंने डॉक्टर आंनद से बैक्टीरिया का पेटेंट फ़ाइल करने को कहा. आनंद ने एप्लीकेशन फ़ाइल की लेकिन यहीं से एक बड़ी दिक्कत शुरू हो गई.
हुआ यूं कि अमेरिकी पेटेंट क़ानून ऑफिस के कमिश्नर ने डॉक्टर आंनद को पेटेंट जारी करने से इंकार दिया. कानून के अनुसार पेटेंट हासिल करने के लिए दो शर्तें पूरी करना जरूरी था.
-पहली शर्त- कोई भी नई चीज जो बनाई गई हो उसे पेटेंट किया जा सकता है. यानी जरूरी है कि चीज ईजाद की गई हो. खोजी गई चीजों का पेटेंट नहीं हो सकता था.
-दूसरी शर्त थी कि ईजाद की हुई वस्तु इंसान ने बनाई हो. यानी प्राकृतिक रूप से मिलनी वाली चीजों का पेटेंट नहीं दिया सकता था. कुल जमा मतलब ये था कि किसी जीवित चीज का पेटेंट नहीं दिया जा सकता था.
डॉक्टर आनंद को भी पेटेंट नहीं मिला. हालांकि वो भी जिद्दी थे. सो अदालत पहुंच गए. जब निचली अदालत में मामला नहीं हल हुआ तो केस सुप्रीम कोर्ट के पास भेजा गया. यहां शुरू हुई एक ऐतिहासिक जिरह जो सालों साल चली.

मामला पेचीदा था. डॉक्टर आनंद की खोज यानी बैक्टीरिया जीवित चीज थी. लेकिन ये भी सच था कि उसे लैब में ईजाद किया गया था. अलग-अलग अवयव जोड़कर. इस केस की सुनवाई नौ जजों की बेंच कर रही थी. जिनके सामने सवाल था कि अगर वो किसी जीवित वस्तु का पेटेंट दे देंगे तो इसका भविष्य में क्या असर पड़ेगा. क्लोनिंग जैसी तकनीकों के चलते इस फैसले का बड़ा असर हो सकता था. सात साल सुनवाई के बाद 1980 में सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में एक ऐतिहासिक फैसला दिया. 5-4 के बहुमत से कोर्ट ने डॉक्टर आनंद के पक्ष में फैसला सुनाया. इस फैसले में जस्टिस वारेन बर्गर की एक लाइन बड़ी फेमस हुई थी, जिसमें उन्होंने लिखा था, “anything under the sun that is made by man is patentable.” यानी इंसान की बनाई हर चीज का पेटेंट किया जा सकता है.
सुपरबग बनाने वाला साइंटिस्टडॉक्टर आनंद चक्रवर्ती की जीत हुई. हालांकि उनके खोजे बैक्टीरिया का बड़े पैमाने पर उपयोग होना भी बाकी है लेकिन इस फैसले ने तब उन्हें काफी फेमस कर दिया था. अख़बारों ने उन्हें सुपरबग बनाने वाले वैज्ञानिक का टैग दिया. ये फैसला इतना बड़ा था कि इसने बायोटेक्नोलॉजी के क्षेत्र में क्रांति ला दी. पेटेंट से मुनाफा कमाया जा सकता था इसलिए कंपनियां अब इस एरिया में रूचि लेने लगी. कंपनियों ने इस क्षेत्र में पैसा इन्वेस्ट करना शुरू किया. जिसके चलते आगे जाकर इन्सुलिन थेरेपी और हेपिटाइटिस C वैक्सीन की खोज हो पाई. एलन मस्क जिस न्यूरोलिंक टेक्नोलॉजी की बात करते रहते हैं, वो भी बायोटेक तकनीक का ही उदाहरण है. मस्क के अनुसार न्यूरालिंक तकनीक में दिमाग में एक चिप डाली जाएगी. जो सीधे कम्प्यूटर या मोबाइल से कनेक्ट होगी और इस तरह हमारा दिमाग सीधे कम्यूटर से कनेक्ट हो जाएगा.
बहरहाल डॉक्टर चक्रवर्ती की कहानी पर लौटते हैं. आगे जाकर उन्होंने कैंसर कोशिका को ख़त्म करने वाले बैक्टीरिया पर रिसर्च की. कई पेटेंट हासिल किए. दो बायोटेक कंपनियां शुरू की. जिनमें से एक अमृता थेरेप्यूटिक्स का हेडक्वार्टर अहमदाबाद गुजरात में है. ये कम्पनी एड्स और कैंसर पर शोध करती है.
इसके अलावा वो UNIDO यानी यूनाइटेड नेशंस इंडस्ट्रियल डेवेलपमेंट आर्गेनाईजेशन नामक संस्था के फ़ाउंडिंग मेंबर थे. और उन्होंने कई अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों में काम किया. पेटेंट लॉ में वो इस दर्ज़े के एक्सपर्ट माने जाते थे कि दुनिया भर के जज उनसे सलाह लेते थे. उनके योगदान के लिए भारत सरकार ने 2007 में उन्हें पद्मश्री पुरस्कार से विभूषित किया था. साल 2018 तक वो बतौर प्रोफ़ेसर शिकागो मेडिकल स्कूल से जुड़े रहे और यहीं से रिटायर हुए. साल 2020 में उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया.
वीडियो: तारीख: अमेरिका को ये राज्य बेचकर रूस पछता रहा है!